मुझे वीर विनायक दामोदर सावरकर पर अभिमान है| उनसे बड़ा कोई स्वतन्त्रता सेनानी नहीं हुआ| उनके अथक प्रयासों से ही "भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम" प्रकाश में आया| यह ग्रंथ भारत के क्रांतिकारियों का संविधान था| क्रांतिकारियों को प्रेरणा इस पुस्तक से मिलती थी|
Saturday, 14 December 2024
मुझे वीर विनायक दामोदर सावरकर पर अभिमान है ---
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जब वे जेल में थे तव सावरकर के मन में यह विचार आया कि हम भारतीयों के पास न तो अस्त्र-शस्त्र हैं और न ही उन्हें चलाना आता है| उनका विचार था कि अधिक से अधिक भारतीय युवक अंग्रेजों से अस्त्र-शस्त्र चलाना सीखें, उन्हीं के अस्त्र लें, और उनका मुंह उन्हीं की ओर मोड़ दें| वे सशस्त्र क्रान्ति द्वारा अंग्रेजों को भारत से भगाना चाहते थे| तब उन्होने जेल से बाहर आने का निर्णय लिया|
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उनको कुल ५० वर्ष के दो आजीवन कारावास सुना दिये गए थे| तब वह २८ साल के थे| अगर सावरकर वहाँ से जीवित लौटते तो ७८ साल के हो जाते| तब वह देश की आजादी की लड़ाई में अपना योगदान और अधिक नहीं दे पाते| उनकी मंशा थी कि किसी तरह जेल से छूटकर देश के लिए कुछ किया जाए| १९२० में उनके छोटे भाई नारायण ने महात्मा गांधी से बात की थी और कहा था कि आप पैरवी कीजिए कि कैसे भी ये छूट जाएं| गांधी जी ने खुद कहा था कि आप बोलो सावरकर को कि वह एक याचिका भेजें अंग्रेज सरकार को, और मैं उसकी सिफारिश करूंगा| गांधी ने लिखा था कि सावरकर मेरे साथ ही शांति के रास्ते पर चलकर काम करेंगे तो इनको आप रिहा कर दीजिए|
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ऐसे में याचिका की एक लाइन लेकर उसे तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है| सावरकर को लेकर यह बहुत बड़ा भ्रम फैलाया जाता है कि उन्होंने दया याचिका दायर कर अंग्रेजों से माफी मांगी थी| सच तो यह है कि ये कोई दया याचिका नहीं थी, ये सिर्फ एक याचिका थी| जिस तरह हर राजबंदी को एक वकील करके अपना मुकदमा लड़ने की छूट होती है उसी तरह सारे राजबंदियों को याचिका देने की छूट दी गई थी| वे एक वकील थे, उन्हें पता था कि जेल से छूटने के लिए कानून का किस तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं|
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द्वितीय विश्व युद्ध के समय उन्होने हजारों युवकों को सेना में भर्ती करवाया| नेताजी सुभाष बोस को आज़ाद हिन्द फौज गठित करने की प्रेरणा उन्हीं ने दी| द्वितीय विश्व युद्ध ने अंग्रेजों की कमर तोड़ दी थी| वीर सावरकर की योजना काम आई| सभी भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेज़ अधिकारियों के आदेश मानने बंद कर दिये| अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय नौसेना का विद्रोह हुआ और मुंबई के कोलाबा में अंग्रेज़ अधिकारियों को बंद कर उनके चारों ओर बारूद बिछा दी गई| अंग्रेज़ लोग आज़ाद हिन्द फौज से, क्रांतिकारियों से और विद्रोही भारतीय सिपाहियों से बहुत अधिक डर गए थे| इसी कारण उन्होने भारत छोडने का निर्णय लिया| जाते जाते वे भारत का जितना अधिक अहित कर सकते थे, उतना किया| यहाँ यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वे शांतिपूर्ण तरीके से चरखे से डर कर नहीं गए थे|
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वीर सावरकर की माँ ने बहुत बड़े पुण्य किए होंगे जो उनकी कोख से एक ऐसे महान बालक का जन्म हुआ| ऐसे महान बालक मधु-बालाओं (बार-बालाओं) के यहाँ पैदा नहीं होते| भारत माता की जय| वंदे मातरम् ||
१५ दिसंबर २०१९
हमारे स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं पद्मासन लगाकर अपने परम ज्योतिर्मय रूप में ध्यान मग्न हैं ---
गुरुकृपा से ध्यान करते-करते जब यह बोध हो जाये कि हमारे स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं पद्मासन लगाकर अपने परम ज्योतिर्मय रूप में ध्यान मग्न हैं, तब उन्हें बिल्कुल भी न छेड़ें, और जब तक सामर्थ्य है, उन्हें ही कूटस्थ में निहारते रहें| निहारते-निहारते उनमें स्वयं को विलीन कर दें, और उनके साथ एक होकर ध्यान मग्न हो जाएँ|
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वे ही सारी क्रियायें व अन्य सब साधनायें कर रहे हैं| वे एक प्रवाह के रूप में हमारे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हैं| वे एक रस हैं जिनका रसास्वादन हम निरंतर कर रहे हैं| इस देह में वे ही वे हैं, हम नहीं| देह की हरेक क्रिया, और इस जीवन की यह लोकयात्रा वे ही कर रहे हैं| उन्हीं की जय हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ दिसंबर २०२०
सम्पूर्ण व अहैतुकी समर्पण ---
सम्पूर्ण व अहैतुकी समर्पण ---
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किसी भी तरह की कोई शिकायत, आलोचना और निंदा करने के लिए मेरे पास इस समय अब कोई विषय नहीं है। पुरुषोत्तम (भगवान) स्वयं ही यह सृष्टि बन गये हैं, और प्रकृति (जगन्माता, भगवती) अपने हिसाब से अपने नियमानुसार इस सृष्टि का संचालन कर रही है। प्रकृति ही इस सृष्टि की प्राण और चैतन्यता है। उसके नियमों को न समझना हमारी अज्ञानता है।
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मैं हिमालय से भी बड़ी बड़ी अपनी कमियों और अति अल्प व सीमित क्षमताओं को पहिचानता हूँ। जगन्माता के विराट कृपासिन्धु में मेरी कमियाँ कुछ छोटे-मोटे कंकर-पत्थरों से अधिक बड़ी नहीं हैं। वे वहाँ भी शोभा दे रही हैं। मेरे में इतनी क्षमता नहीं है कि उन्हे स्वयं से दूर कर सकूँ। भगवान को पाने की सामर्थ्य भी मुझमें नहीं है। अतः जैसा और जो कुछ भी सामान मेरे पास है, उसे साथ लेकर स्वयं को भी भगवान के श्रीचरणों में विलीन कर रहा हूँ।
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मेरी चेतना में मेरे समक्ष इस समय स्वयं भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण बैठे हैं, और पृष्ठभूमि में भगवती महाकाली खड़ी हैं। महाकाली सारे कर्मों को श्रीकृष्ण समर्पण कर रही हैं। अब और बचा भी क्या है? मेरी यह आभासीय चेतना भी उनमें विलीन हो जाये।
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ दिसंबर २०२३
बृहदारण्यकोपनिषद, (दूसरा अध्याय), (चौथा ब्राह्मण) से संकलन ---
बृहदारण्यकोपनिषद, (दूसरा अध्याय), (चौथा ब्राह्मण) से संकलन ---
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एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहा कि वे अपना सब कुछ उसमें और अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी में बांट देना चाहते हैं। इस पर मैत्रेयी ने उनसे पूछा कि क्या इस धन-सम्पत्ति से अमृत्व की आशा की जा सकती है? क्या वे उसे अमृत्व-प्राप्ति का उपाय बतायेंगे?
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इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा ... 'हे देवी! धन-सम्पत्ति से अमृत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता। अमृत्व के लिए आत्मज्ञान होना अनिवार्य है; क्योंकि आत्मा द्वारा ही आत्मा को ग्रहण किया जा सकता है।' उन्होंने कहा-'हे मैत्रेयी! पति की आकांक्षा-पूर्ति के लिए, पति को पत्नी प्रिय होती है। इसी प्रकार पिता की आकांक्षा के लिए पुत्रों की, अपने स्वार्थ के लिए धन की, ज्ञान की, शक्ति की, देवताओं की, लोकों, की और परिजनों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार, 'आत्म-दर्शन' के लिए श्रवण, मनन और ज्ञान की आवश्यकता होती है। कोई किसी को आत्म-दर्शन नहीं करा सकता। इसका अनुभव स्वयं ही अपनी आत्मा में करना होता है।'
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उन्होंने अनेक दृष्टान्त देकर इसे समझाया किे हे देवी! सभी 'आत्माओं' का आश्रय 'परमात्मा' है। उन्होंने आगे बताया-'हे मैत्रेयी! जिस प्रकार जल में घुले हुए नमक को नहीं निकाला जा सकता, उसी प्रकार उस महाभूत, अन्तहीन, विज्ञानघन परमात्मा में सभी आत्माएँ समाकर विलुप्त हो जाती हैं। जब तक 'द्वैत' का भाव बना रहता है, तब तक वह परमात्मा दूरी बनाये रखता है, किन्तु 'अद्वैत' भाव के आते ही आत्मा, परमात्मा में लीन हो जाता है, अर्थात् उसे अपनी आत्मा से ही जानने का प्रयत्न करो।'
१४ दिसंबर २०१८
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बृहदारण्यकोपनिषद, (चौथा अध्याय) (चौथा ब्राह्मण) से संकलन :----
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इस ब्राह्मण में शरीर त्यागने से पूर्व 'आत्मा' और 'शरीर' की जो स्थिति होती है, उसका विवेचन किया गया है। याज्ञवल्क्य ऋषि बताते हैं कि जब आत्मा शरीर छोड़ने लगता है, तब वह इन्द्रियों में व्याप्त अपनी समस्त शक्ति को समेट लेता है और हृदय क्षेत्र में समाहित होकर एक 'लिंग शरीर' का सृजन कर लेता है। यह लिंग शरीर ही आत्मा को अपने साथ लेकर शरीर छोड़ता है। यह जिस मार्ग से निकलता है, वह अंग तीव्र आवेग से खुला रह जाता है। उस समय आत्मा पूरी तरह चेतनामय होता है। उसमें जीव की प्रबलतम वासनाओं और संस्कारों का आवेग रहता है। उन्हीं कामनाओं के आधार पर वह नया शरीर धारण करता है। जैसे स्वर्णकार स्वर्ण को पिघलाकर एक रूप की रचना करता है, उसी प्रकार 'आत्मा' पंचभूतों के मिश्रण से एक नये शरीर की रचना कर लेता है।
जो पुरुष निष्काम भाव से शरीर छोड़ते हैं, वे जीवन-मरण के चक्र से छूटकर मुक्त हो जाते हैं और सदैव के लिए ब्रह्म की दिव्य ज्योति में विलीन हो जाते हैं।
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बृहदारण्यकोपनिषद (चौथा अध्याय) (दूसरा ब्राह्मण) से संकलन :----
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विदेहराज जनक याज्ञवल्क्य के पास जाकर उपदेश की कामना करते हैं। याज्ञवल्क्य पहले राजा से उसका गन्तव्य पूछते हैं, पर जब राजा अपने गन्तव्य के विषय में न जानने की बात कहता है, तो वे गूढ अर्थ में योगिक क्रियाओं द्वारा उसे 'ब्रह्मरन्ध्र' में पहुंचने के लिए कहते हैं। उनका भाव यही है कि दोनों आंखों के बीच में 'आज्ञाचक्र' का स्थान है। उसका ध्यान करने से रोम-रोम में व्याप्त 'प्राण' की वास्तविक अनुभूति होने लगती है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। 'ब्रह्मरन्ध्र' में काशी का वास बताया गया है। इसी मार्ग से आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और इस मार्ग से प्राण छोड़ने पर सीधे मोक्ष प्राप्त होता है|
सर्वस्व समर्पण ---
सर्वस्व समर्पण ---
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मैं अपने जन्म-जन्मांतरों के सारे बुरे-अच्छे संचित-प्रारब्ध कर्मफल, अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार), और सम्पूर्ण चैतन्य व अस्तित्व --- अपने परम आराध्य परमात्मा को समर्पित करता हूँ| मेरे पास अब अपना कहने को कुछ भी नहीं है| इस अति अल्प और सीमित बुद्धि की सीमा में कहीं कोई किंचित भी संशय, या जिज्ञासा का अवशेष अब नहीं रहा है| गुरुकृपा से अब कोई भी आध्यात्मिक रहस्य, रहस्य नहीं रहा है, सारी अवधारणाएँ स्पष्ट हैं|
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"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ||९:२७||
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः |
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ||९:२८||
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ||९:२९||
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ||९:३०||
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति |
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ||९:३१||"
अर्थात् हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो|| इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे|| मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ|| यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है|| हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता||
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साधक होने या साधना का भाव अब समाप्त हो गया है| सारी साधना तो भगवती जगन्माता स्वयं प्राण-तत्व कुल-कुंडलिनी के रूप में मेरुदंड में सुषुम्नानाड़ी की ब्रह्मउपनाड़ी में कर रही हैं| अधिकांशतः वे उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य) में निवास करती हैं| कभी-कभी वे सहस्त्रारचक्र व ब्रह्मरंध्र को पार कर आकाश-तत्व की अनंतता से भी परे समर्पण-भाव से परमशिव के चरण-स्पर्श कर लौट आती हैं| उनकी इस क्रिया का निमित्त साक्षीमात्र होना ही मेरी साधना है, और कुछ भी नहीं| परमशिव का ध्यान और सारी आराधना व साधना वे ही करती हैं, मैं नहीं|
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और भी सरल शब्दों में यह कह सकते हैं कि भगवती महाकाली ही सारी साधना कर के श्रीकृष्ण को अर्पित कर रही हैं| हम तो उन के साक्षीमात्र हैं| वे श्रीकृष्ण ही परमशिव हैं, वे ही विष्णु हैं, वे ही वासुदेव हैं, और वे ही मेरे सर्वस्व हैं| मैं उन को नमन करता हूँ --
"नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते |
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |"
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गुरु वंदना :--
बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती।।
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।। (रामचरितमानस)
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ दिसंबर २०२०
मजहबी उन्माद यानि Religious fanaticism का एकमात्र कारण deviant sexual thoughts and behavior है ---
मजहबी उन्माद यानि Religious fanaticism का एकमात्र कारण deviant sexual thoughts and behavior है ---
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अपनी वासनाओं को छिपाने के लिए मनुष्य मजहबी उन्मादी या Religious fanatic बन जाता है। यह मेरा अवलोकन है। बड़ी बड़ी धार्मिक बातें और धर्म का प्रचार-प्रसार तभी किया जाना चाहिए जब समाज में उपयुक्त वातावरण हो। मैं श्रीमद्भगवद्गीता और आध्यात्मिकता पर मूलभूत लेख लिखता हूँ, लेकिन पता नहीं उसका कुछ लाभ होता भी है या नहीं। लगता है यह एक धार्मिक मनोरंजन मात्र होकर रह गया है।
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अगर वास्तविकता में कुछ आध्यात्मिकता है तो मुझे उतना समय श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार एकांत में परमात्मा के ध्यान में व्यतीत करना चाहिए। मैं जो लिखता हूँ, यह मेरा परमात्मा के साथ सत्संग है। कोई अन्य इसका लाभ उठाए या न उठाए, मैं तो पूर्ण रूपेण लाभान्वित हूँ। मैं किसी अन्य के लिए नहीं, स्वयं के लिए ही लिख रहा हूँ। मैं जो कुछ भी लिखता हूँ, उसका चिंतन/मनन/स्वाध्याय भी खूब करता हूँ।
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गीता के क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग में भगवान कहते हैं --
"इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥१३:७॥
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥१३:८॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥१३:९॥
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१३:१०॥"
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥१३:१३॥
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥१३:१४॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥१३:१५॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥१३:१६॥
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥१३:१७॥"
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥१३:१८॥"
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Note :-- मैंने तो इसके भावार्थों का खूब स्वाध्याय किया है। यदि आपमें सच्ची जिज्ञासा है तो स्वयं इसके अर्थों का किसी अच्छे भाष्य में स्वाध्याय कीजिये। या फिर रहने दीजिये और मुझे अमित्र कर दीजिये। जब तक जगन्माता इस शरीर में प्राण-तत्व के रूप में बिराजमान हैं, मैं इस जन्म के अंतिम समय तक सिर्फ परमात्मा का ही चिंतन, मनन, और ध्यान करूंगा। भगवान ही मुझसे यह सब लिखवा रहे हैं। वे ही मेरी शक्ति और प्रेरणा हैं।
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आप सब में परमात्मा को नमन करता हूँ। मेरा एकमात्र संबंध परमात्मा से है, और परमात्मा की प्रेरणा से ही यह सब लिखा है। परमात्मा के सिवाय अन्य किसी से भी मेरा कुछ लेना-देना नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ दिसंबर २०२२
क्रिसमस पर भक्ति तो एक बहाना है, असली त्योहार तो दारू और डांस है --
क्रिसमस पर भक्ति तो एक बहाना है, असली त्योहार तो दारू और डांस है --
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उत्तरी ध्रुव से २४ दिसंबर को सांता क्लॉज नाम का एक पादरी हम मूर्खों के पास आ रहा है, जो हमारे बच्चों को कैंडी, चॉकलेट व टॉफी देगा। यह सेंट निकोलस नाम के एक पादरी का बाप है। वह स्लेज गाड़ी में आयेगा जो बर्फ में ही चलती है, जिसे रेनडीयर नाम के बारहसींगे खींचते हैं। भारत के मैदानी क्षेत्रों में तो बर्फ नहीं पड़ती, अतः वह भारत में नहीं आ सकता। बच्चो, जिन्हें सांता से प्यार है वे क्रिसमस की छुट्टियों में अपने माँ-बाप को लेकर फिनलेंड चलें जाएँ छुट्टी मनाने। खूब आनंद आयेगा।
फादर क्रिसमस सांता फिनलैंड के लोपलैंड प्रान्त में कोरवातुन्तुरी के पहाड़ों में अपनी पत्नी श्रीमती क्लॉज़ के साथ रहता है। उसके साथ एक अनिर्दिष्ट परन्तु बड़ी संख्या में कल्पित बौने और कम से कम आठ या नौ उड़ने वाले रेन्डियर भी रहते हैं। जिन्हें चलना है वे मुझे अपने साथ ले चलें। मेरा आने-जाने और रहने का पूरा खर्चा आप का होगा।
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क्रिसमस कैसे मनाते हैं? ---
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२४ दिसंबर की रात्री मे १२ बजे तक तो खूब भजन गाते हैं, जिन्हें केरोल कहते हैं। १२ बजे के बाद ऐक-दूसरे को बधाई देकर, दारू पीना शुरू कर देते हैं। दारू पीकर नशे में खूब भयंकर डांस होता है, जिसमें थकने तक डांस करते हैं। दूसरे दिन २५ तारीख को टर्की नाम की प्रजाति के एक मुर्गे का मांस ब्रेड सॉस के साथ खाते हैं। अपने घनिष्ठ मित्रों व रिश्तेदारों को उपहार देते हैं।
क्रिसमस के दिन दारू पीते हुए मेरे ईसाई दोस्त मुझे गालियाँ भी देने लगते कि तुम हिन्दू लोगों को तमीज नहीं है, दारू पीनी भी नहीं आती, कोई सलीका नहीं है तुम लोगों में। अपना प्याला ले आओ और दिल भरकर जितनी मांगता है उतनी दारू हमसे पीओ। नशा उतरते ही भूल जाते कि क्या बोला था।
क्रिसमस पर भक्ति तो एक बहाना है, असली त्योहार तो दारू और डांस है।
१४ दिसंबर २०२२
प्राण-चेतना ही जगन्माता हैं, जिन्हें हम भगवती भी कह सकते हैं। सारे रूप और गुण उन्हीं के हैं।
सूक्ष्म जगत के हमारे विराट और अनंत अस्तित्व के पीछे हमारी निरंतर गतिशील विस्तृत हो रही प्राण-चेतना है। वह प्राण-चेतना ही जगन्माता हैं, जिन्हें हम भगवती भी कह सकते हैं। सारे रूप और गुण उन्हीं के हैं।
यह प्रकाशमय विराट अनंतता व उससे परे का सम्पूर्ण अस्तित्व परमशिव है, जो हम स्वयं हैं। सारी साधना तो प्राण-तत्व के रूप में भगवती स्वयं कर रही है, जिसके हम साक्षी मात्र हैं। हम निरंतर परमशिव की चेतना में रहें -- यही साधना/उपासना है। इससे अतिरिक्त और कहने को कुछ भी इस समय नहीं है। यही सार है, जो भगवत्-कृपा से समझ में आ जाये तो ब्रह्मज्ञान है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ दिसंबर २०२३
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पुनश्च: --- प्राण-तत्व और आकाश-तत्व क्या हैं? परमात्मा का जो मातृरूप है, वह प्राण-तत्व है, जिससे सारी सृष्टि चैतन्य है। परमात्मा का जो सर्वव्यापक अनंत विराट पुरुष रूप है, वह आकाश-तत्व है। प्रत्येक जीव में महाशक्ति कुंडलिनी प्राण तत्व का ही घनीभूत रूप है। ध्यान के समय कूटस्थ सूर्यमंडल में आभासित पुरुषोत्तम ही पुरुष हैं। परमशिव भी वे ही हैं।
श्रीराधाजी प्राण हैं, और श्रीकृष्ण पुरुष ॥
क्रिसमस का त्योहार २४ व २५ दिसंबर को ही क्यों मनाते है? / हमारा साप्ताहिक अवकाश रविवार को ही क्यों होता है? .
(प्रश्न १) क्रिसमस का त्योहार २४ व २५ दिसंबर को ही क्यों मनाते है?
(प्रश्न २) हमारा साप्ताहिक अवकाश रविवार को ही क्यों होता है?
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(उत्तर) "रोमन सम्राट कोन्स्टेंटाइन द ग्रेट के आदेश से।"
यह उपरोक्त दोनों प्रश्नों का उत्तर है। हमारी पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में इस वर्ष शुक्रवार २२ दिसंबर २०२३ को सबसे छोटा दिन और सबसे लंबी रात होगी। २३ दिसंबर से दिन बड़े होने आरंभ हो जाएँगे। दो हज़ार वर्ष पूर्व २४ दिसंबर सबसे अधिक छोटा दिन और सबसे लंबी रात होती थी। २५ दिसंबर से बड़े दिन होने आरंभ होते थे, अतः उसने आदेश दिया कि २४ जनवरी की अर्धरात्रि को जीसस का जन्म और २५ दिसंबर को क्रिसमस मनाई जाये। चूंकि वह एक सूर्योपासक था अतः सूर्य के उपासकों के लिए असुविधा न हो, इस उद्देश्य से उसने रविवार को छुट्टी मनाने का आदेश दिया जो अभी तक है। बाइबल में उसने लिखवा दिया कि गॉड ने छह दिन में सृष्टि बनाई और रविवार के दिन विश्राम किया, अतः रविवार अवकाश का दिन है (the Sabbath day and a day of rest and worship)।
जब सृष्टि ही नहीं थी तो वार कहाँ से आए? पूरी गप्पोड़बाजी है।
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रोमन सम्राट कोन्स्टेंटाइन द ग्रेट एक सूर्योपासक था, वह कभी भी ईसाई नहीं बना। ईसाई रिलीजन का उपयोग उसने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए किया। उसी ने कोन्स्टेंटिनोपल (कुस्तुंतुनिया) नगर बसाया था, जिसे वर्तमान में इस्तांबूल कहते हैं। वहाँ का चर्च सैंट-सोफिया (वर्तमान में शाही मस्जिद) ईसाई रिलीजन की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी गद्दी हुआ करती थी।
सम्राट कोन्स्टेंटाइन द ग्रेट ने ही बाइबिल के नए सुसमाचार (New Testaments) लिखवाये थे।
१४ दिसंबर २०२३
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