सर्वस्व समर्पण ---
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मैं अपने जन्म-जन्मांतरों के सारे बुरे-अच्छे संचित-प्रारब्ध कर्मफल, अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार), और सम्पूर्ण चैतन्य व अस्तित्व --- अपने परम आराध्य परमात्मा को समर्पित करता हूँ| मेरे पास अब अपना कहने को कुछ भी नहीं है| इस अति अल्प और सीमित बुद्धि की सीमा में कहीं कोई किंचित भी संशय, या जिज्ञासा का अवशेष अब नहीं रहा है| गुरुकृपा से अब कोई भी आध्यात्मिक रहस्य, रहस्य नहीं रहा है, सारी अवधारणाएँ स्पष्ट हैं|
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"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ||९:२७||
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः |
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ||९:२८||
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ||९:२९||
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ||९:३०||
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति |
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ||९:३१||"
अर्थात् हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो|| इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे|| मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ|| यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है|| हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता||
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साधक होने या साधना का भाव अब समाप्त हो गया है| सारी साधना तो भगवती जगन्माता स्वयं प्राण-तत्व कुल-कुंडलिनी के रूप में मेरुदंड में सुषुम्नानाड़ी की ब्रह्मउपनाड़ी में कर रही हैं| अधिकांशतः वे उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य) में निवास करती हैं| कभी-कभी वे सहस्त्रारचक्र व ब्रह्मरंध्र को पार कर आकाश-तत्व की अनंतता से भी परे समर्पण-भाव से परमशिव के चरण-स्पर्श कर लौट आती हैं| उनकी इस क्रिया का निमित्त साक्षीमात्र होना ही मेरी साधना है, और कुछ भी नहीं| परमशिव का ध्यान और सारी आराधना व साधना वे ही करती हैं, मैं नहीं|
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और भी सरल शब्दों में यह कह सकते हैं कि भगवती महाकाली ही सारी साधना कर के श्रीकृष्ण को अर्पित कर रही हैं| हम तो उन के साक्षीमात्र हैं| वे श्रीकृष्ण ही परमशिव हैं, वे ही विष्णु हैं, वे ही वासुदेव हैं, और वे ही मेरे सर्वस्व हैं| मैं उन को नमन करता हूँ --
"नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते |
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |"
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गुरु वंदना :--
बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती।।
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।। (रामचरितमानस)
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ दिसंबर २०२०
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