Saturday, 14 December 2024

बृहदारण्यकोपनिषद, (दूसरा अध्याय), (चौथा ब्राह्मण) से संकलन ---

 बृहदारण्यकोपनिषद, (दूसरा अध्याय), (चौथा ब्राह्मण) से संकलन ---

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एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहा कि वे अपना सब कुछ उसमें और अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी में बांट देना चाहते हैं। इस पर मैत्रेयी ने उनसे पूछा कि क्या इस धन-सम्पत्ति से अमृत्व की आशा की जा सकती है? क्या वे उसे अमृत्व-प्राप्ति का उपाय बतायेंगे?
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इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा ... 'हे देवी! धन-सम्पत्ति से अमृत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता। अमृत्व के लिए आत्मज्ञान होना अनिवार्य है; क्योंकि आत्मा द्वारा ही आत्मा को ग्रहण किया जा सकता है।' उन्होंने कहा-'हे मैत्रेयी! पति की आकांक्षा-पूर्ति के लिए, पति को पत्नी प्रिय होती है। इसी प्रकार पिता की आकांक्षा के लिए पुत्रों की, अपने स्वार्थ के लिए धन की, ज्ञान की, शक्ति की, देवताओं की, लोकों, की और परिजनों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार, 'आत्म-दर्शन' के लिए श्रवण, मनन और ज्ञान की आवश्यकता होती है। कोई किसी को आत्म-दर्शन नहीं करा सकता। इसका अनुभव स्वयं ही अपनी आत्मा में करना होता है।'
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उन्होंने अनेक दृष्टान्त देकर इसे समझाया किे हे देवी! सभी 'आत्माओं' का आश्रय 'परमात्मा' है। उन्होंने आगे बताया-'हे मैत्रेयी! जिस प्रकार जल में घुले हुए नमक को नहीं निकाला जा सकता, उसी प्रकार उस महाभूत, अन्तहीन, विज्ञानघन परमात्मा में सभी आत्माएँ समाकर विलुप्त हो जाती हैं। जब तक 'द्वैत' का भाव बना रहता है, तब तक वह परमात्मा दूरी बनाये रखता है, किन्तु 'अद्वैत' भाव के आते ही आत्मा, परमात्मा में लीन हो जाता है, अर्थात् उसे अपनी आत्मा से ही जानने का प्रयत्न करो।'
१४ दिसंबर २०१८
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बृहदारण्यकोपनिषद, (चौथा अध्याय) (चौथा ब्राह्मण) से संकलन :----
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इस ब्राह्मण में शरीर त्यागने से पूर्व 'आत्मा' और 'शरीर' की जो स्थिति होती है, उसका विवेचन किया गया है। याज्ञवल्क्य ऋषि बताते हैं कि जब आत्मा शरीर छोड़ने लगता है, तब वह इन्द्रियों में व्याप्त अपनी समस्त शक्ति को समेट लेता है और हृदय क्षेत्र में समाहित होकर एक 'लिंग शरीर' का सृजन कर लेता है। यह लिंग शरीर ही आत्मा को अपने साथ लेकर शरीर छोड़ता है। यह जिस मार्ग से निकलता है, वह अंग तीव्र आवेग से खुला रह जाता है। उस समय आत्मा पूरी तरह चेतनामय होता है। उसमें जीव की प्रबलतम वासनाओं और संस्कारों का आवेग रहता है। उन्हीं कामनाओं के आधार पर वह नया शरीर धारण करता है। जैसे स्वर्णकार स्वर्ण को पिघलाकर एक रूप की रचना करता है, उसी प्रकार 'आत्मा' पंचभूतों के मिश्रण से एक नये शरीर की रचना कर लेता है।
जो पुरुष निष्काम भाव से शरीर छोड़ते हैं, वे जीवन-मरण के चक्र से छूटकर मुक्त हो जाते हैं और सदैव के लिए ब्रह्म की दिव्य ज्योति में विलीन हो जाते हैं। >>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>

बृहदारण्यकोपनिषद (चौथा अध्याय) (दूसरा ब्राह्मण) से संकलन :----
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विदेहराज जनक याज्ञवल्क्य के पास जाकर उपदेश की कामना करते हैं। याज्ञवल्क्य पहले राजा से उसका गन्तव्य पूछते हैं, पर जब राजा अपने गन्तव्य के विषय में न जानने की बात कहता है, तो वे गूढ अर्थ में योगिक क्रियाओं द्वारा उसे 'ब्रह्मरन्ध्र' में पहुंचने के लिए कहते हैं। उनका भाव यही है कि दोनों आंखों के बीच में 'आज्ञाचक्र' का स्थान है। उसका ध्यान करने से रोम-रोम में व्याप्त 'प्राण' की वास्तविक अनुभूति होने लगती है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। 'ब्रह्मरन्ध्र' में काशी का वास बताया गया है। इसी मार्ग से आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और इस मार्ग से प्राण छोड़ने पर सीधे मोक्ष प्राप्त होता है|

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