योग साधना और भक्ति .....
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योग साधनाएँ अति प्राचीन वैदिक युग से हैं| जहाँ तक मैं समझता हूँ, योग साधनाओं का मूल कृष्ण यजुर्वेद से है| योग साधनाएँ वैदिक हैं जिनकी शिक्षा कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद से आरम्भ होती हैं| कालान्तर में शेषावतार भगवान पतंजलि ने योगसुत्रों की रचना कर इन्हें एक दार्शनिक रूप दे दिया| ये शेषावतार भगवान पतंजलि ही अगले जन्म में आचार्य गोविन्दपाद के रूप में अवतृत हुए जो आचार्य शंकर के गुरु थे|
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यहाँ मैं भी अपनी सीमित अल्प बुद्धि से थोड़ा बहुत लिखने का दुःसाहस कर रहा हूँ| ये मेरे अपने निजी विचार हैं :---
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यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) अपने आप में इतने बड़े विषय हैं जिन पर अध्ययन करते करते एक पूरा जन्म भी व्यतीत हो जाए तो कम है| पर इतना समय कहाँ है? मेरा यह मानना है कि मन यदि निर्मल हो, हृदय में भक्ति हो, और भगवान की कृपा हो तो यम और नियम अपने आप ही जीवन में आ जाते हैं| ये यम और नियम भगवान के भक्त के पीछे पीछे चलते हैं| मैं दुबारा जोर देकर कह रहा हूँ कि भक्ति यदि सच्ची हो तो ये यम और नियम भगवान के भक्त के पीछे पीछे चलते हैं|
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आसन तो स्थिर होकर सुख से बैठना ही है जिसमें कमर सीधी हो| हठयोग के आसन और प्राणायाम तो घेरंड संहिता और हठयोग प्रदीपिका से लिए हुए हैं| महर्षि पतंजलि ने इनका उल्लेख कहीं भी नहीं किया है|
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प्राणायाम विषय को आचार्यों द्वारा गोपनीय रखा गया है| सूक्ष्म प्राणायामों से सूक्ष्म शक्तियाँ जागृत होती हैं| साधनाकाल में यदि आचार-विचार सही न हों तो ये लाभ के स्थान पर बहुत अधिक हानि कर देती हैं| अतः यह एक गुरुमुखी विद्या है जिसकी चर्चा मैं यहाँ नहीं करूँगा| आगे का सारा विषय एक गुरुवक्त्रगम्य विद्या है जिसे सिर्फ एक अधिकृत सदगुरु ही समझा सकता है|
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संक्षेप में प्रत्याहार भी एक तरह का इन्द्रियों को प्राणायाम द्वारा दिया हुआ प्रति आहार है| ध्यान के लिए एक धारणा की जाती है| समभाव में स्थिति समाधी है| ये सब गुरुकृपा से ही समझ में आती हैं|
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सार की कुछ बातें श्रीरामचरितमानस से उद्धृत कर रहा हूँ :----
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योग साधनाएँ अति प्राचीन वैदिक युग से हैं| जहाँ तक मैं समझता हूँ, योग साधनाओं का मूल कृष्ण यजुर्वेद से है| योग साधनाएँ वैदिक हैं जिनकी शिक्षा कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद से आरम्भ होती हैं| कालान्तर में शेषावतार भगवान पतंजलि ने योगसुत्रों की रचना कर इन्हें एक दार्शनिक रूप दे दिया| ये शेषावतार भगवान पतंजलि ही अगले जन्म में आचार्य गोविन्दपाद के रूप में अवतृत हुए जो आचार्य शंकर के गुरु थे|
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यहाँ मैं भी अपनी सीमित अल्प बुद्धि से थोड़ा बहुत लिखने का दुःसाहस कर रहा हूँ| ये मेरे अपने निजी विचार हैं :---
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यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) अपने आप में इतने बड़े विषय हैं जिन पर अध्ययन करते करते एक पूरा जन्म भी व्यतीत हो जाए तो कम है| पर इतना समय कहाँ है? मेरा यह मानना है कि मन यदि निर्मल हो, हृदय में भक्ति हो, और भगवान की कृपा हो तो यम और नियम अपने आप ही जीवन में आ जाते हैं| ये यम और नियम भगवान के भक्त के पीछे पीछे चलते हैं| मैं दुबारा जोर देकर कह रहा हूँ कि भक्ति यदि सच्ची हो तो ये यम और नियम भगवान के भक्त के पीछे पीछे चलते हैं|
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आसन तो स्थिर होकर सुख से बैठना ही है जिसमें कमर सीधी हो| हठयोग के आसन और प्राणायाम तो घेरंड संहिता और हठयोग प्रदीपिका से लिए हुए हैं| महर्षि पतंजलि ने इनका उल्लेख कहीं भी नहीं किया है|
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प्राणायाम विषय को आचार्यों द्वारा गोपनीय रखा गया है| सूक्ष्म प्राणायामों से सूक्ष्म शक्तियाँ जागृत होती हैं| साधनाकाल में यदि आचार-विचार सही न हों तो ये लाभ के स्थान पर बहुत अधिक हानि कर देती हैं| अतः यह एक गुरुमुखी विद्या है जिसकी चर्चा मैं यहाँ नहीं करूँगा| आगे का सारा विषय एक गुरुवक्त्रगम्य विद्या है जिसे सिर्फ एक अधिकृत सदगुरु ही समझा सकता है|
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संक्षेप में प्रत्याहार भी एक तरह का इन्द्रियों को प्राणायाम द्वारा दिया हुआ प्रति आहार है| ध्यान के लिए एक धारणा की जाती है| समभाव में स्थिति समाधी है| ये सब गुरुकृपा से ही समझ में आती हैं|
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सार की कुछ बातें श्रीरामचरितमानस से उद्धृत कर रहा हूँ :----
(१) "मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा | किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ||"
कोई कितना भी योग, तप, ज्ञान या वैराग्य का पालन करे, उसको बिना सच्चे और पूर्ण प्रेम के भगवान नहीं मिलेंगे|
कोई कितना भी योग, तप, ज्ञान या वैराग्य का पालन करे, उसको बिना सच्चे और पूर्ण प्रेम के भगवान नहीं मिलेंगे|
(२) "हरि ब्यापक सर्वत्र समाना | प्रेम ते प्रगट होंहि मैं जाना ||"
भगवान सर्वत्र सामान रूप से व्याप्त हैं| वे तो प्रेम से ही प्रकट होते हैं|
भगवान सर्वत्र सामान रूप से व्याप्त हैं| वे तो प्रेम से ही प्रकट होते हैं|
(३) "निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||"
सारी साधनाओं का लक्ष्य तो केवल मन की निर्मलता के लिए है, शेष कृपा तो प्रभु के हाथ में है। पर साथ में यह भी पूर्ण विश्वास है कि हम अपनी भमिका निभा जाएंगे तो उनकी कृपा में एक क्षण भी विलम्ब नहीं होगा|
सारी साधनाओं का लक्ष्य तो केवल मन की निर्मलता के लिए है, शेष कृपा तो प्रभु के हाथ में है। पर साथ में यह भी पूर्ण विश्वास है कि हम अपनी भमिका निभा जाएंगे तो उनकी कृपा में एक क्षण भी विलम्ब नहीं होगा|
"सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं | जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||"
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भगवान को खूब प्रेम करो| उनके प्रेम में मग्न होकर डूब जाओ| इतना प्रेम करो कि कोई भेद न रहे| उन्हें तो आना ही पडेगा| वे आयेंगे अवश्य | आगे का सारा मार्गदर्शन भी वे देंगे और वे ही हमारा निरंतर स्मरण करेंगे|
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भगवान को खूब प्रेम करो| उनके प्रेम में मग्न होकर डूब जाओ| इतना प्रेम करो कि कोई भेद न रहे| उन्हें तो आना ही पडेगा| वे आयेंगे अवश्य | आगे का सारा मार्गदर्शन भी वे देंगे और वे ही हमारा निरंतर स्मरण करेंगे|
यही है योगसाधना, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जुलाई २०१८
कृपा शंकर
८ जुलाई २०१८