Sunday, 8 July 2018

योग साधना और भक्ति .....

योग साधना और भक्ति .....
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योग साधनाएँ अति प्राचीन वैदिक युग से हैं| जहाँ तक मैं समझता हूँ, योग साधनाओं का मूल कृष्ण यजुर्वेद से है| योग साधनाएँ वैदिक हैं जिनकी शिक्षा कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद से आरम्भ होती हैं| कालान्तर में शेषावतार भगवान पतंजलि ने योगसुत्रों की रचना कर इन्हें एक दार्शनिक रूप दे दिया| ये शेषावतार भगवान पतंजलि ही अगले जन्म में आचार्य गोविन्दपाद के रूप में अवतृत हुए जो आचार्य शंकर के गुरु थे|
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यहाँ मैं भी अपनी सीमित अल्प बुद्धि से थोड़ा बहुत लिखने का दुःसाहस कर रहा हूँ| ये मेरे अपने निजी विचार हैं :---
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यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) अपने आप में इतने बड़े विषय हैं जिन पर अध्ययन करते करते एक पूरा जन्म भी व्यतीत हो जाए तो कम है| पर इतना समय कहाँ है? मेरा यह मानना है कि मन यदि निर्मल हो, हृदय में भक्ति हो, और भगवान की कृपा हो तो यम और नियम अपने आप ही जीवन में आ जाते हैं| ये यम और नियम भगवान के भक्त के पीछे पीछे चलते हैं| मैं दुबारा जोर देकर कह रहा हूँ कि भक्ति यदि सच्ची हो तो ये यम और नियम भगवान के भक्त के पीछे पीछे चलते हैं|
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आसन तो स्थिर होकर सुख से बैठना ही है जिसमें कमर सीधी हो| हठयोग के आसन और प्राणायाम तो घेरंड संहिता और हठयोग प्रदीपिका से लिए हुए हैं| महर्षि पतंजलि ने इनका उल्लेख कहीं भी नहीं किया है|
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प्राणायाम विषय को आचार्यों द्वारा गोपनीय रखा गया है| सूक्ष्म प्राणायामों से सूक्ष्म शक्तियाँ जागृत होती हैं| साधनाकाल में यदि आचार-विचार सही न हों तो ये लाभ के स्थान पर बहुत अधिक हानि कर देती हैं| अतः यह एक गुरुमुखी विद्या है जिसकी चर्चा मैं यहाँ नहीं करूँगा| आगे का सारा विषय एक गुरुवक्त्रगम्य विद्या है जिसे सिर्फ एक अधिकृत सदगुरु ही समझा सकता है|
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संक्षेप में प्रत्याहार भी एक तरह का इन्द्रियों को प्राणायाम द्वारा दिया हुआ प्रति आहार है| ध्यान के लिए एक धारणा की जाती है| समभाव में स्थिति समाधी है| ये सब गुरुकृपा से ही समझ में आती हैं|
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सार की कुछ बातें श्रीरामचरितमानस से उद्धृत कर रहा हूँ :----
(१) "मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा | किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ||"
कोई कितना भी योग, तप, ज्ञान या वैराग्य का पालन करे, उसको बिना सच्चे और पूर्ण प्रेम के भगवान नहीं मिलेंगे|
(२) "हरि ब्यापक सर्वत्र समाना | प्रेम ते प्रगट होंहि मैं जाना ||"
भगवान सर्वत्र सामान रूप से व्याप्त हैं| वे तो प्रेम से ही प्रकट होते हैं|
(३) "निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||"
सारी साधनाओं का लक्ष्य तो केवल मन की निर्मलता के लिए है, शेष कृपा तो प्रभु के हाथ में है। पर साथ में यह भी पूर्ण विश्वास है कि हम अपनी भमिका निभा जाएंगे तो उनकी कृपा में एक क्षण भी विलम्ब नहीं होगा|
"सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं | जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||"
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भगवान को खूब प्रेम करो| उनके प्रेम में मग्न होकर डूब जाओ| इतना प्रेम करो कि कोई भेद न रहे| उन्हें तो आना ही पडेगा| वे आयेंगे अवश्य | आगे का सारा मार्गदर्शन भी वे देंगे और वे ही हमारा निरंतर स्मरण करेंगे|
यही है योगसाधना, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जुलाई २०१८

क्या परमात्मा मन का विषय हैं ? .....

क्या परमात्मा मन का विषय हैं ? .....
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श्रुति भगवती कहती है ..... "यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्‌ | तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ||" (केनोपनिषद १-६).
'वह' जो मन के द्वारा मनन नहीं करता, 'वह' जिसके द्वारा मन स्वयं मनन का विषय बन जाता है, 'उसे' ही तुम 'ब्रह्म' जानो, न कि इसे जिसकी मनुष्य यहाँ उपासना करते हैं|
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मेरे विचार से यह विषय समझने के लिए गीता के तेरहवें अध्याय "क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग" का स्वाध्याय बहुत अधिक सहायक होगा|
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एक बात तो निश्चित है कि परमात्मा हमारे मन और बुद्धि की समझ से परे है| उसके गुणों की हम गहरे ध्यान में अनुभूति तो कर सकते हैं, पर अपना रहस्य तो वे स्वयं ही कृपा कर के किसी को अनावृत कर सकते हैं|
"सोइ जानहि जेहि देहु जनाई, जानत तुमहिं तुमहि हुई जाई|"
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जुलाई २०१८

सारी साधनाएँ एक बहाना है, असली चीज तो प्रभु की कृपा है .....

सारी साधनाएँ एक बहाना है, असली चीज तो प्रभु की कृपा है .....
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हमारी सारी आध्यात्मिक साधनाएँ, जप-तप, योग, ध्यान, भजन-कीर्तन और पूजा-पाठ आदि आदि सब एक बहाना मात्र हैं| ये सब सिर्फ हमारी कमियों को दूर करती हैं, इनसे प्रभु नहीं मिलते| शरणागति भी हमारी कमियों को ही दूर करती है| उस से भी प्रभु नहीं मिलते| प्रभु तो करूणावश सिर्फ अपनी कृपा से ही मिलते हैं| उन्हें कोई बाध्य नहीं कर सकता| सारी साधनाएँ तो एक बहाना मात्र हैं, और कुछ नहीं|
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एक बालक अपने माता-पिता से मिलना चाहे तो उसके माता-पिता क्या यह कहेंगे कि बेटा, तुम इतना तप करो, इतना जप करो, इतने यज्ञ करो, इतना ध्यान करो, इतना पुण्य करो, इतनी क्रिया करो, तब मैं मिलूंगा ? एक नालायक से नालायक संतान भी अपने माँ-बाप से मिलना चाहे तो माँ-बाप मना नहीं करते|
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फिर प्रभु से हम दूर क्यों हैं? वे हमें क्यों नहीं मिलते? इस पर ज़रा विचार करें और मुझे भी अपने ज्ञान का प्रकाश दें| धन्यवाद ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जुलाई २०१८
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पुनश्चः :-- मेरे लिए तो प्रभु परम कल्याणकारी, प्रेम और आनंदमय हैं| मैं ऐसे किसी भगवान को नहीं मानता जो प्राणियों की ह्त्या करा कर, उन पर अत्याचार करा कर और दूसरों को दुःख दिला कर प्रसन्न होता है|
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निर्मल मन जन, सो मोहिं पावा। सारी साधनाओं का लक्ष्य तो केवल मन की निर्मलता के लिए है, शेष कृपा तो प्रभु के हाथ में है। पर साथ में यह भी पूर्ण विश्वास है कि हम अपनी भमिका निभा जाएंगे तो उनकी कृपा में एक क्षण भी विलम्ब नहीं होगा ॐ ॐ ॐ !!
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सारी साधनाओं का लक्ष्य मन का मेल दूर करना है ....
श्री रामचरितमानस में भगवान श्रीराम ने एक ऐसा सूत्र पकड़ा दिया है जिस से भगवान स्वयं ही पकड़ में आ गये हैं| वह सूत्र है ....
"निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||"
यही बात हमारे सारे ग्रंथों में कही गयी है| जो इस बात को समझ कर अपने आचरण में ले आयेगा वह एक न एक दिन प्रभू को अवश्य प्राप्त कर लेगा|

अज्ञान कैसे दूर हो ? ....

अज्ञान कैसे दूर हो ?
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एक अति विराट और महत्वपूर्ण विषय पर मैं अपनी सीमित अति अल्प बुद्धि से चर्चा करने का दुःसाहस कर रहा हूँ| भगवान मेरी सहायता करें|
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सारे कर्मफलों के मूल में हमारी कामनाएँ और कर्ताभाव है| कामनाओं और कर्ताभाव का मूल अज्ञान है| अपनी आनंदरूपता यानि परमात्मा के साथ ऐक्यता का ज्ञान न होना ही अज्ञान है| सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अज्ञान कैसे दूर हो? सिर्फ पढ़ने मात्र से यह अज्ञान दूर नहीं हो सकता| इसके लिए नियमित गहन ध्यान साधना भी करनी होगी|
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अकर्ताभाव के बारे में भगवान कहते हैं .....
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ | पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ||५:८||
इसका भावार्थ है कि कर्मयोगी परमतत्व परमात्मा की अनुभूति करके दिव्य चेतना मे स्थित होकर देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वांस लेता हुआ इस प्रकार यही सोचता है कि मैं कुछ भी नही करता हूँ|
पर इसके लिए परम तत्व परमात्मा की अनुभूति होना आवश्यक है| वह अनुभूति कैसे हो? वह ध्यान साधना में परमात्मा की परम कृपा से ही हो सकती है|
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भगवान आगे कहते हैं .....
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः|
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा||५:१०||
इसका भावार्थ है कि "कर्म-योगी" सभी कर्म-फ़लों को परमात्मा को समर्पित करके निष्काम भाव से कर्म करता है, तो उसको पाप-कर्म कभी स्पर्श नही कर पाते है, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल को स्पर्श नही कर पाता है|
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हमें हर कार्य भगवान को समर्पित कर के ही करना चाहिए| इसके लिए अभ्यास करना होगा, वह अभ्यास ही साधना है| गीता में साधना के ऊपर भगवान ने बहुत प्रकाश डाला है| हर मुमुक्षु को चाहिए कि वह गीता का स्वाध्याय करे|
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कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में योग साधना के ऊपर बहुत गहराई और विस्तार से बताया गया है| उसका भी स्वाध्याय आवश्यक है|
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अंत में सबसे महत्वपूर्ण है परमात्मा की परम कृपा जो परमप्रेम और शरणागति से प्राप्त होती है| वह परम कृपा ही हमारा अज्ञान दूर सकती है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जुलाई २०१८

इतने सारे सदगुण कहाँ से लाएँ ? .....

इतने सारे सदगुण कहाँ से लाएँ ? .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च| निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी||१२:१३||
अर्थात् सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित, सब का मित्र और दयालु, ममता रहित, अहंकार रहित, सुख-दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीरको वशमें किये हुए, दृढ़ निश्चय वाला, मेरे में अर्पित मन-बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मेरेको प्रिय है|
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भगवान ने बहुत सारे गुण गिना दिए हैं| अब सिर्फ कामना करने, या संकल्प करने मात्र से तो इतने सारे गुण आ नहीं सकते, अब ये सारे गुण कहाँ से कैसे अपने भीतर लायें? यह तो हमारे वश के बात नहीं है| हे प्रभु आप चाहते हैं कि ये गुण आपके भक्तों में हों तो अब आप स्वयं ही इन्हें हमें प्रदान करें| ये हमारे वश की बात नहीं है कि हम इन्हें विकसित करें| हम तो आपके परम अनुग्रह पर निर्भर हैं|
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हमें तो आप से आप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| अपने गुण-अवगुण सब अपने पास ही रखो| ये हमारे किसी काम के नहीं हैं| आना है तो आओ, अन्यथा रहने दो| पर हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकते| तुम्हें इसी क्षण इसी क्षण आना ही पड़ेगा, कोई अन्य विकल्प तुम्हारे पास भी नहीं है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जुलाई २०१८

परमात्मा की क्या चर्चा करें ? ....

परमात्मा की क्या चर्चा करें ? ....
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गन्धर्वराज पुष्पदंत द्वारा रचित "शिवमहिम्नस्तोत्र" जो अपने आप में एक सम्पूर्ण ग्रन्थ है, का बत्तीसवाँ श्लोक कहता है .....
"असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे| सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी||
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं| तदपि तव गुणानामीश पारं न याति||"
भावार्थ: यदि समुद्र को दवात बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज़ बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है|
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परमात्मा अचिन्त्य है| हम सिर्फ उसके गुणों की ही चर्चा और गुणों का ही स्वाध्याय कर सकते हैं| बौद्धिक संतुष्टि ही पानी है तो रामचरितमानस का, सारे उपनिषदों का, और भगवद्गीता का स्वाध्याय कर लें| इन से बढ़िया और कुछ भी इस सृष्टि में नहीं है| आत्मा की संतुष्टि ही पानी है तो ओंकार का ध्यान किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के सान्निध्य और मार्गदर्शन में करें| कोई भी साधना हो किसी अधिकृत ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए, सिर्फ पुस्तकें पढ़ कर नहीं|
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बाकी और कुछ भी लिखना मेरे लिए व्यर्थ है| आत्मतत्व के बारे में सारा ज्ञान उपनिषदों में है| स्वाध्याय के साथ साथ ध्यान साधना भी करें| मुझे तो भगवान की परम कृपा और गुरुओं के आशीर्वाद से पूरा मार्गदर्शन प्राप्त है| किसी भी तरह की कोई शंका/संदेह व भ्रम नहीं है|
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आप सब महान आत्माओं को सप्रेम सादर नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१८

भगवान को निवेदित किये बिना, व औरों को खिलाये बिना अकेला ही खाने वाला केवल अपने पापों का ही भक्षण करता है ....

भगवान को निवेदित किये बिना, व औरों को खिलाये बिना अकेला ही खाने वाला केवल अपने पापों का ही भक्षण करता है ....
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गीता में भगवान कहते हैं ....
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः| तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः||१३:१२||
अर्थात यज्ञ द्वारा पोषित देवतागण तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे| उनके द्वारा दिये हुये भोगों को जो पुरुष उनको दिये बिना ही भोगता है वह निश्चय ही चोर है||
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सब कुछ हमें भगवान से उधार मिला है, वह एक ऋण है जो हमें बापस उन्हें लौटाना ही होगा| हमें भोजन भी भगवान की कृपा से ही मिलता है जिसके लिए हमें भगवान का उपकार मानना चाहिए| बिना उन्हें अर्पित किये कुछ भी आहार ग्रहण करना एक चोरी ही है| मनुस्मृति में भगवान मनु महाराज कहते हैं....
अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् | यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतां अन्नं विधीयते ||३:११८||
अर्थात् जो देवता आदि को अर्पित किये बिना केवल अपने लिए अन्न पकाकर खाता है, वह केवल पाप खाता है|
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श्रुति भगवती भी कहती हैं .....
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य|
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी|| ऋग्वेद १०:११७:६||
(शब्दार्थ-अप्रचेताः = दुर्बु( मनुष्य मोघम्= व्यर्थ ही अन्नम् = भोग-सामग्री को विन्दते= पाता है। सत्यं ब्रवीमि = सच कहता हूं कि सः= वह भोग-सामग्री तस्य = उस मनुष्य के लिए वध इत् = मृत्यु रूप ही होती है - उसका नाश करने वाली ही होती है। ऐसा दुर्बु( न अर्यमणं पुष्यति = न तो यज्ञ द्वारा अर्यमादि देवों की पुष्टि करता है नो सखायम् = और न ही मनुष्य-साथियों की पुष्टि करता है। सचमुच वह केवलादी = अकेला खाने-भोग करनेवाला मनुष्य केवलाघो भवति = केवल पाप को ही भोगनेवाला होता है।
साभार :वैदिक विनय)
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संसार में धनी दिखने वाले दुर्बुद्धि मनुष्यों के पास जो अन्न भण्डार आदि जो भोग विलास की सामग्री है, वह उनका काल यानी मृत्यु की सामग्री है क्योंकि वे इस से अपनी देह को ही पोषित करते हैं| औरों को खिलाये बिना अकेला ही खाने वाला केवल अपने पापों को ही खाता है|
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हे प्रभु, मैं तुम्हारी शरण में हूँ, सिर्फ तुम्हारा ही भरोसा है| इस लालची और स्वार्थमय विपत्ति रूपी रूपी पाप जाल को काटो| 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१८