अज्ञान कैसे दूर हो ?
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एक अति विराट और महत्वपूर्ण विषय पर मैं अपनी सीमित अति अल्प बुद्धि से चर्चा करने का दुःसाहस कर रहा हूँ| भगवान मेरी सहायता करें|
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सारे कर्मफलों के मूल में हमारी कामनाएँ और कर्ताभाव है| कामनाओं और कर्ताभाव का मूल अज्ञान है| अपनी आनंदरूपता यानि परमात्मा के साथ ऐक्यता का ज्ञान न होना ही अज्ञान है| सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अज्ञान कैसे दूर हो? सिर्फ पढ़ने मात्र से यह अज्ञान दूर नहीं हो सकता| इसके लिए नियमित गहन ध्यान साधना भी करनी होगी|
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अकर्ताभाव के बारे में भगवान कहते हैं .....
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् | पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ||५:८||
इसका भावार्थ है कि कर्मयोगी परमतत्व परमात्मा की अनुभूति करके दिव्य चेतना मे स्थित होकर देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वांस लेता हुआ इस प्रकार यही सोचता है कि मैं कुछ भी नही करता हूँ|
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एक अति विराट और महत्वपूर्ण विषय पर मैं अपनी सीमित अति अल्प बुद्धि से चर्चा करने का दुःसाहस कर रहा हूँ| भगवान मेरी सहायता करें|
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सारे कर्मफलों के मूल में हमारी कामनाएँ और कर्ताभाव है| कामनाओं और कर्ताभाव का मूल अज्ञान है| अपनी आनंदरूपता यानि परमात्मा के साथ ऐक्यता का ज्ञान न होना ही अज्ञान है| सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अज्ञान कैसे दूर हो? सिर्फ पढ़ने मात्र से यह अज्ञान दूर नहीं हो सकता| इसके लिए नियमित गहन ध्यान साधना भी करनी होगी|
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अकर्ताभाव के बारे में भगवान कहते हैं .....
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् | पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ||५:८||
इसका भावार्थ है कि कर्मयोगी परमतत्व परमात्मा की अनुभूति करके दिव्य चेतना मे स्थित होकर देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वांस लेता हुआ इस प्रकार यही सोचता है कि मैं कुछ भी नही करता हूँ|
पर इसके लिए परम तत्व परमात्मा की अनुभूति होना आवश्यक है| वह अनुभूति कैसे हो? वह ध्यान साधना में परमात्मा की परम कृपा से ही हो सकती है|
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भगवान आगे कहते हैं .....
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः|
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा||५:१०||
इसका भावार्थ है कि "कर्म-योगी" सभी कर्म-फ़लों को परमात्मा को समर्पित करके निष्काम भाव से कर्म करता है, तो उसको पाप-कर्म कभी स्पर्श नही कर पाते है, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल को स्पर्श नही कर पाता है|
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हमें हर कार्य भगवान को समर्पित कर के ही करना चाहिए| इसके लिए अभ्यास करना होगा, वह अभ्यास ही साधना है| गीता में साधना के ऊपर भगवान ने बहुत प्रकाश डाला है| हर मुमुक्षु को चाहिए कि वह गीता का स्वाध्याय करे|
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कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में योग साधना के ऊपर बहुत गहराई और विस्तार से बताया गया है| उसका भी स्वाध्याय आवश्यक है|
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अंत में सबसे महत्वपूर्ण है परमात्मा की परम कृपा जो परमप्रेम और शरणागति से प्राप्त होती है| वह परम कृपा ही हमारा अज्ञान दूर सकती है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जुलाई २०१८
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भगवान आगे कहते हैं .....
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः|
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा||५:१०||
इसका भावार्थ है कि "कर्म-योगी" सभी कर्म-फ़लों को परमात्मा को समर्पित करके निष्काम भाव से कर्म करता है, तो उसको पाप-कर्म कभी स्पर्श नही कर पाते है, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल को स्पर्श नही कर पाता है|
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हमें हर कार्य भगवान को समर्पित कर के ही करना चाहिए| इसके लिए अभ्यास करना होगा, वह अभ्यास ही साधना है| गीता में साधना के ऊपर भगवान ने बहुत प्रकाश डाला है| हर मुमुक्षु को चाहिए कि वह गीता का स्वाध्याय करे|
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कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में योग साधना के ऊपर बहुत गहराई और विस्तार से बताया गया है| उसका भी स्वाध्याय आवश्यक है|
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अंत में सबसे महत्वपूर्ण है परमात्मा की परम कृपा जो परमप्रेम और शरणागति से प्राप्त होती है| वह परम कृपा ही हमारा अज्ञान दूर सकती है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जुलाई २०१८
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