Tuesday, 12 November 2019

सभी समस्याओं का समाधान .....

सभी समस्याओं का समाधान .....
.
मेरा अब तक का यह एक अनुभव है जो आप सब के साथ बाँट रहा हूँ| जीवन की किसी भी जटिल समस्या और बुराई का समाधान मात्र स्वयं के प्रयास से नहीं हो सकता| परमात्मा की करुणामयी कृपा का होना अति आवश्यक है| निष्काम भाव से परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम, समर्पण और पुरुषार्थ ही सब समस्याओं का समाधान है| फिर योग-क्षेम का वहन वे ही करने के लिए वचनबद्ध हैं|
.
आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य के स्थान को स्थायी रूप से परमात्मा के लिए आरक्षित रखें| बार बार यह देखें कि देह में हमारी चेतना कहाँ है| जहाँ हमारी चेतना होगी वैसे ही विचार आयेंगे| यदि हमारी चेतना नाभि के नीचे है तो यह खतरे की घंटी है| प्रयास पूर्वक अपनी चेतना को नाभि से ऊपर ही रखें| कुछ प्राणायाम और योगासनों जैसे सूर्य नमस्कार, पश्चिमोत्तानासन, महामुद्रा, मूलबन्ध उड्डियानबंध जलंधरबंध आदि का नियमित अभ्यास हमारी चेतना को बहुत अधिक प्रभावित करता है| मेरुदंड को सीधा रखकर बैठकर भ्रूमध्य में ध्यान और अजपाजप करने से चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है| भागवत मन्त्र का यथासंभव हर समय मानसिक जाप हमारी किसी भी परिस्थिति में रक्षा करता है|
.
लक्ष्य एक ही है ..... वह है ..... परमात्मा कि प्राप्ति| जब तक परमात्मा को उपलब्ध न हों तब तक इधर उधर ना देखें, अपने सामने अपने लक्ष्य को ही सदा रखें| शुभ कामनाएँ और प्रणाम! ॐ नमः शिवाय! ॐ ॐ ॐ!!
कृपा शंकर
२५ अक्तूबर २०१४

धर्म और संस्कृति के पतन का समाधान..... .

धर्म और संस्कृति के पतन का समाधान.....
.
भारतवर्ष में धर्म और संस्कृति के ह्रास और पतन से मैं बहुत व्यथित हूँ| मेरी भावनाएँ बहुत आहत हैं| इस के समाधान की संभावना भी है जो हम कर सकते हैं|
पूरी सृष्टि परमात्मा के संकल्प से बनी है| परमात्मा से जुड़कर, उसके संकल्प से जुड़कर ही कोई समाधान निकल सकता हैं| इसके लिए समर्पण और साधना करनी होगी| किसी भी विषयपर बिना उस विषय के प्रत्यक्ष अनुभव के, किसी भी तरह के बौद्धिक निर्णय पर पहुँचना, अहंकार का लक्षण है जो एक अज्ञानता ही है| ऐसा नहीं होना चाहिए| भगवान भुवन-भास्कर उदित होने पर कभी नहीं कहते की मैं आ गया हूँ| उनकी उपस्थिति मात्र से सभी प्राणी उठ जाते हैं| उनकी उपस्थिति में कहीं भी कोई अन्धकार नहीं रहता| उनकी तरह ही निज जीवन को ज्योतिर्मय बनाना होगा तभी अन्धकार और अज्ञानता को दूर कर समाज और राष्ट्र को आलोकित किया जा सकता है| सिर्फ बुद्धि से हम किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते| किसी भी मान्यता के पीछे निज अनुभव भी होना चाहिए|
.
हम सब के जीवन में शुभ ही शुभ हो| हम सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ अक्तूबर २०१३

भगवान परमशिव ही मेरा जीवन और उनसे विमुखता ही मेरी मृत्यु है .....

भगवान परमशिव ही मेरा जीवन और उनसे विमुखता ही मेरी मृत्यु है .....
----------------------------------------------------------------------------
भगवान परमशिव की कृपा से ही मैं जीवित हूँ| मेरी सुख, शांति, सुरक्षा, जीवन और धर्म .... सब कुछ .... भगवान परमशिव हैं| मेरा एकमात्र संबंध भी उन्हीं से है, अन्य किसी से नहीं है| परमशिव में ही अमरता है, वहाँ कोई मृत्यु नहीं है| मृत्यु सिर्फ इस देह की चेतना में है|
.
सांसारिकता से अब बहुत अधिक डर लगने लगा है| सांसारिकता ही महाभय है| परमात्मा की अनंतता में कोई भय नहीं है, क्योंकि वहाँ परमशिव की सत्ता है| परमशिव की अनुभूति ही मृत्यु-भय को नष्ट करती है| परमशिव ही मेरे ध्येय हैं, उनका ध्यान ही इस महाभय से मेरी रक्षा कर रहा है|
.
गीता में भगवान कहते हैं .....
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||"
अर्थात इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है||
आरम्भका नाम अभिक्रम है इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्ग में अभिक्रम का यानि आरम्भ का नाश नहीं होता| आरम्भका फल अनैकान्तिक (संशययुक्त) नहीं है| इसमें प्रत्यवाय (विपरीत फल) भी नहीं होता है| इस कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा सा भी अनुष्ठान (साधन) जन्ममरणरूप महान् संसारभय से रक्षा करता है|
.
मेरी कर्मयोग की अवधारणा क्या है ? :----
------------------------------------
सामान्यतः घनीभूत प्राण चेतना (कुंडलिनी महाशक्ति) मूलाधार चक्र से जागृत होकर सब चक्रों को जागृत करती हुई सहस्त्रार में गुरु-तत्व तक जाकर बापस लौट आती है| परमशिव की अनुभूति ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता में होती है| सहस्त्रार से भी ऊपर एक श्वेत परम ज्योतिर्मय चक्र और है जो मुझे ध्यान में दिखाई देता है| उसके चारों ओर एक नीला और स्वर्णिम आवरण है| उस अति विराट श्वेत परम ज्योति के मध्य में एक पंचकोणीय नक्षत्र के रूप में पंचमुखी महादेव बिराजमान हैं| शिव पुराण में भी इनका वर्णन है| वे ही नारायण हैं, वे ही विष्णु हैं| वह श्वेत प्रकाश ही क्षीर-सागर है| उन पंचमुखी महादेव की अनंतता ही परमशिव है| उन से सम्मुखता ही जीवन है, और विमुखता मृत्यु है| वे ही मेरे जीवन और इष्ट देव हैं| उनका ध्यान और उनको निरंतर समर्पण ही मेरा कर्म है, और उस जागृत कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग है| यही मेरा कर्मयोग है|
.
वे भगवान परमशिव ही चन्द्रशेखर हैं जिन के आश्रय लेने वाले का यमराज कुछ नहीं बिगाड़ सकता......
रत्नसानुशरासनं रजताद्रिशृङ्गनिकेतनं| सिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युताननसायकम||
क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदिवालयैरभिवन्दितं| चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः||
.
ॐ तत्सत्! महादेव महादेव महादेव ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ!!
कृपा शंकर
२४ अक्तूबर २०१९

ग्रंथिभेद .....

ग्रंथिभेद (कुंडलिनी जागरण) ......
.
मूलाधार चक्र से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञानक्षेत्र है| जब तक चेतना इस क्षेत्र में है तब तक मनुष्य अज्ञान में ही रहता है| आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश करने पर ही ज्ञानक्षेत्र में प्रवेश होता है| इसमें चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही रहती है, तभी ज्ञानलाभ होना आरम्भ होता है| सहस्त्रार से आगे का पराक्षेत्र है| साधक को ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि और रूद्रग्रंथि का भेदन करना पड़ता है| मणिपूर चक्र के नीचे ब्रह्म ग्रन्थि, वहाँ से विशुद्धि चक्र तक विष्णु ग्रन्थि, तथा उससे ऊपर रुद्र ग्रन्थि है|
मुण्डकोपनिषद् के ३ मुण्डक इन ३ ग्रन्थियों के भेदन हैं| दुर्गा सप्तशती के ३ चरित्र भी उसी अनुसार हैं|
.
मणिपुर चक्र में १० दल हैं| उसको भू समानान्तर काटोगे तो ऊपर अनाहत चक्र की ओर ५ दल व नीचे की ओर ५ दल आएँगे| नीचे के ५ दल, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र मिल कर के हुए ब्रह्माग्रंथि| ऊपर के ५ दल से विशुद्धि चक्र तक विष्णु ग्रंथि| और उसके ऊपर रूद्र ग्रंथि है| भगवान बांके बिहारी श्रीकृष्ण की त्रिभंग मुद्रा इन्हीं तीन ग्रंथियों के भेदन का प्रतीक है|
.
ललिता सहस्रनाम में ग्रन्थित्रय के स्थानों का वर्णन इस प्रकार है .....
"मूलाधारैकनिलया ब्रह्मग्रन्थि विभेदिनी |
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थि विभेदिनी ||८९||
आज्ञाचक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थि विभेदिनी |
सहस्राराम्बुजारूढा सुधासाराभिवर्षिणी ||९०||"
.
भगवान आदि शंकराचार्य ने भी सौंदर्य लहरी में उपरोक्त का दृष्टान्त दिया है|
.
मुण्डकोपनिषद (२/२/७-९) में विष्णुग्रंथि भेद के बारे में .....
मनोमयः प्राण शरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय |
तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्विभाति ||७||
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः |
क्षीयन्ते चास्यकर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ||८||
हिरण्मये परे कोषे विरजं ब्रह्म निष्कलम्।
तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः ||९||
.
मुण्डकोपनिषद (३ /१-३) में रुद्रग्रन्थि भेद के बारे में .....
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकषीति ||१||
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः |
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशस्य महिमानमिति वीतशोकः ||२||
यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ||३||.
.
मुंडकोपनिषद (३/२) में ब्रह्मग्रंथि भेद के बारे में .....
वेदान्तविज्ञान सुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे॥६॥
गताः कलाः पञ्चदशप्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवताषु।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्व एकी भवन्ति॥७॥
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तः गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८॥
स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्या ब्रह्मवित् कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तो भवति॥९॥
.
श्रीमद्भागवत् में भी इसका वर्णन है| दुर्गासप्तशती में असुर वध ..... ह्रदय ग्रंथि भेदन का ही प्रतीक है| स्पष्ट है कि ग्रन्थिभेदन अत्यंत महत्वपूर्ण है|
ग्रंथियाँ सुषुम्ना में प्राण प्रवाह को बाधित करती है| ये ग्रन्थियां इड़ा एवम् पिंगला के संगम बिंदु पर बनती हैं|
स्वामी विष्णुतीर्थ की सौन्दर्य लहरी की हिन्दी टीका के अनुसार ब्रह्मग्रंथि का स्थान मूलाधार में, विष्णु ग्रन्थि का स्थान हृदय में और रुद्रग्रन्थि का स्थान आज्ञा चक्र में समझना चाहिये|
(ग्रंथिभेदन एक गोपनीय गुरुमुखी विद्या है जो गुरु द्वारा ही शिष्य को प्रत्यक्ष दी जाती है)
.
जैसे समुद्र में मिलने पर नदी का अलग नाम-रूप समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार परात्पर पुरुष से मिलने पर साधक का अपना कोई नाम रूप नहीं रह जाता| जो परंब्रह्म को जानता या पाता है वह ब्रह्म ही हो जाता है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० अक्तूबर २०१६