Friday 20 January 2017

इस समय राष्ट्र को ब्रह्मत्व की आवश्यकता है .....

इस समय राष्ट्र को ब्रह्मत्व की आवश्यकता है| स्वयं के शिवत्व को प्रकट करें| वर्तमान नकारात्मक घटना क्रमों की पृष्ठभूमि में आसुरी शक्तियाँ हैं| राक्षसों, असुरों और पिशाचों से मनुष्य अपने बल पर नहीं लड़ सकते| सिर्फ ईश्वर ही रक्षा कर सकते हैं| अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिये हमें भगवान् की शरण लेकर समर्पित होना ही होगा, अन्यथा नष्ट होने के लिये तैयार रहें|
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साधना ..... अपने आप को सम्पूर्ण ह्रदय और शक्ति के साथ भगवान के हाथों में सौंप देना है| कोई शर्त मत रखो, कोई चीज़ मत माँगो, यहाँ तक कि योग में सिद्धि भी मत माँगो| जो भी साधना या जो भी भक्तिभाव या जो भी पूजापाठ हम करते हैं वह हमारे लिये नहीं अपितु भगवान के लिये ही है| उसका उद्देश्य व्यक्तिगत मुक्ति नहीं है| उसका एकमात्र उद्देश्य है ---- "आत्म समर्पण"|
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भगवान का शाश्वत वचन है -- "मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि|"
यानी अपने आपको ह्रदय और मन से मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर जाएगा| "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज | अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः|" समस्त धर्मों (सभी सिद्धांतों, नियमों व हर तरह के साधन विधानों का) परित्याग कर और एकमात्र मेरी शरण में आजा ; मैं तुम्हें समस्त पापों और दोषों से मुक्त कार दूंगा --- शोक मत कर|
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हम केवल उस यजमान की तरह हैं जो यज्ञ को संपन्न होते हुए देखता है; जिसकी उपस्थिति यज्ञ की प्रत्येक क्रिया के लिये आवश्यक है| सारे कर्म तो जगन्माता स्वयं करती हैं और यज्ञरूप में परमात्मा को अर्पित करती है| कर्ताभाव एक भ्रम है| जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, उन्हें वे वही चीज़ देते हैं जो वे माँगते हैं| परन्तु जो अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं| न केवल कर्ताभाव, कर्मफल आदि बल्कि कर्म तक को उन्हें समर्पित कर दो| साक्षीभाव या दृष्टाभाव तक उन्हें समर्पित कर दो| साध्य भी वे ही हैं, साधक भी वे ही हैं और साधना भी वे ही है| यहाँ तक कि दृष्य, दृष्टी और दृष्टा भी वे ही हैं|ॐ तत् सत्|
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. ११ वि.सं.२०७२| 20जनवरी2016.

चित्त की वृत्तियों का निरोध करना .....

चित्त की वृत्तियों का निरोध करना .....
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चित्त की वृत्ति दो रूपों --- श्वास-प्रश्वास और वासनाओं द्वारा व्यक्त होती हैं| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म होती हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः स्थूल रूप श्वास-प्रश्वास के माध्यम से प्राण तत्व की चंचलता को स्थिर किया जाता है| प्राण तत्व के स्थिर होने पर मन और चित्त की वृत्तियाँ भी स्थिर यानि नियंत्रित हो जाती हैं|
एक सूक्ष्म प्राणायाम है जो सुषुम्ना नाड़ी में किया जाता है| इस से प्राण तत्व की चंचलता कम होती है| यह चित्त की वृत्तियों के निरोध का एक अति प्रभावशाली साधन है|
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चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग बताया गया है| चित्त की वृत्तियाँ अधोमुखी होती हैं, उनका अधोगमन रोक कर उन्हें ऊर्ध्वमुखी बनाना ही उनका निरोध है| चंचल मन सबसे बड़ी बाधा है जिस पर विजय पाई जाती है चंचल प्राण को स्थिर कर| प्राण तत्व तक पहुँचने के लिए श्वास-प्रश्वास एक माध्यम है| अजपाजाप इसमें बहुत सहायक है| पर बिना भक्ति के कोई एक क़दम भी नहीं चल सकता योग मार्ग पर|
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योग है .... महाशक्ति कुण्डलिनी का परमशिव से मिलन|
योग मार्ग में यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) पर जोर इसी लिए दिया है कि बिना सदाचार के की गयी साधना साधक को या तो विक्षिप्त कर देती है या आसुरी जगत का उपकरण बनाकर असुर बना देती है| यह एक दुधारी तलवार है| सदाचार पूर्वक की गयी साधना दैवीय जगत से जोड़ती है|
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परमात्मा के प्रति अहैतुकी परमप्रेम एक ऐसी शक्ति है जो सब बाधाओं के पार पहुंचा देती है|
सभी को शुभ कामनाएँ| आप सब के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम जागृत हो|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. ११ वि.सं.२०७२| 20जनवरी2016.

निज विवेक से अपने अनुभूतिजन्य विचारों पर दृढ़ रहें .....

निज विवेक से अपने अनुभूतिजन्य विचारों पर दृढ़ रहें .....
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मैं अब तक जीवन में जितने भी लोगों से मिला हूँ, उन में से अधिकाँश में एक बात सामान्य देखी है कि उनकी चिंतनधारा दूसरों के विचारों के इर्दगिर्द ही सीमित रहती थी या है| स्वतंत्र विचारक बहुत कम नाममात्र के ही मिले हैं जीवन में| अधिकाँश लोग दूसरों का ही जीवन जीते हैं, स्वयं का नहीं| हमें अपनी मौलिकता को खोज कर उस पर दृढ़ रहना चाहिए|
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अपना चिंतन स्वतंत्र रहे| सत्य की खोज में हम स्वयं लगे रहें और निजानुभव से जिस भी सत्य का आभास हो उस पर दृढ़ता से डटे रहें| बहुत पहले की बात है, स्वामी रामतीर्थ का साहित्य पढ़ते पढ़ते एक पंक्ति पर कुछ देर के लिए मैं अटक गया था जिसका भावार्थ था कि परमात्मा को खोजते खोजते हम स्वयं को ही पा लेते हैं| वे स्वयं को सदा परमात्मा से अभिन्न मानते थे| अपने इस विचार पर वे सदा दृढ़ रहे, उन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं कि अन्य लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं|
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जीवन में परम सत्य की खोज भी एक गहन अभीप्सा और तड़फ का परिणाम है जो सब में नहीं होती| धन्य हैं वे लोग जिनके हृदय में ऐसी प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही है या है| यह कई जन्मों के अच्छे कर्मों से प्राप्त होती है| इसे दूसरों पर थोपा नहीं जा सकता| थोपने का प्रयास भी ना करें| अपना स्वयं का जीवन जीयें और यदि हमारे में कोई अच्छाई होगी तो दूसरे भी उसका अनुसरण करेंगे| दूसरों को अपना अनुयायी बनाने का प्रयास ना करें| यह बहुत बड़ी हिंसा है|
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जब हम स्वयं को अति महत्वपूर्ण मान लेते हैं और सोचते हैं कि हम ही सही हैं और अन्य सब गलत, और अन्य सब हमारी ही बात मानें, तब हम जाने अनजाने में मायावी यानि नकारात्मक शक्तियों के उपकरण बन जाते हैं|
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यह दुनिया हमारे बिना भी चल रही थी और हमारे बिना भी चलती रहेगी| हर पल हज़ारों लोग काल के गाल में समा रहे हैं, फिर भी हम स्वयं को अमर मान रहे हैं|
हम उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना हम स्वयं को मानते हैं| अब तक पता नहीं कितने लोग आये और चले गए, उन सब के बिना भी दुनियाँ चल रही है|
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यह सृष्टि परमात्मा की है और उसे हमारे सुझावों की आवश्यकता नहीं है| वह अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम है| एकमात्र अच्छा कार्य जो हम कर सकते हैं वह है अपनी सर्वश्रेष्ठता यानि अपनी यथासंभव पूर्णता को पाने का प्रयास करते रहें| उस परम सत्य परमात्मा को पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है उसे पाने का निरंतर प्रयास करना ही हमारा परम कर्तव्य और लक्ष्य हो सकता है|
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कुछ भी ना देखें, किसी ओर भी ना देखें, सिर्फ अपना लक्ष्य जो एकदम सामनें एक विराट ज्योति के रूप में परिलक्षित हो रहा है| उसी की ओर बढ़ते रहें| गिर भी जाएँ तो कोई बात नहीं, मर भी जाएँ तो कोई बात नहीं| न जाने कितनी बार मरे हैं, एक बार और सही| जीवन तो निरंतरता है, फिर मिल जाएगा| हार ना मानो, चलते रहो|
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इस बात का कोई महत्व नहीं है कि अपने साथ क्या होता है| महत्व सिर्फ और सिर्फ इसी बात का है कि हम अपने अनुभवों से क्या बनते हैं| इस तरह गिरते गिरते एक दिन हम पाएँगे की हम स्वयं परमात्मा के ह्रदय में हैं और उनके साथ एकाकार हैं|
उनको अपनी दृष्टी से कभी ओझल मत होने दो| बेशर्म होकर उनके पीछे पड़ जाओ|
एक दिन हम पायेंगे की वे स्वयं हमारे पीछे पीछे चल रहे हैं|
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संसार की दृष्टी में हम क्या हैं इसका कोई महत्व नहीं है| महत्व इसी बात का है कि हम परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं|
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर