Wednesday, 11 July 2018

अंतिम प्रवचन .....

अंतिम प्रवचन... (ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी महाराजके आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, विक्रम सम्वत-२०६२, तदनुसार ३ जुलाई, २००५ को परमधाम पधारने के पूर्व दिनांक २९-३० जून, २००५ को गीताभवन, स्वर्गाश्रम में दिये गये अन्तिम प्रवचन).
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एक बहुत श्रेष्ठ, बड़ी सुगम, बड़ी सरल बात है । वह यह है कि किसी तरह की कोई इच्छा मत रखो । न परमात्मा की, न आत्मा की, न संसार की, न मुक्ति की, न कल्याण की, कुछ भी इच्छा मत करो और चुप हो जाओ । शान्त हो जाओ । कारण कि परमात्मा सब जगह शान्तरूप से परिपूर्ण है । स्वतः-स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है । कोई इच्छा न रहे, किसी तरहकी कोई कामना न रहे तो एकदम परमात्मा की प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, पूर्णता हो जाय !

यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती । सब इच्छाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है । इच्छाओं का पूरा करना हमारे वश की बात नहीं है, पर इच्छाओं का त्याग करना हमारे वशकी बात है । कोई भी इच्छा, चाहना नहीं रहेगी तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मा में होगी । आपको परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जायगा । कुछ चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना नहीं, कोई अभ्यास नहीं । बस, इतनी ही बात है । इतनेमें ही पूरी बात हो गयी ! इच्छा करनेसे ही हम संसारमें बँधे हैं । इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा में स्वतः स्वाभाविक स्थिति है ।

प्रत्येक कार्यमें तटस्थ रहो । न राग करो, न द्वेष करो ।
तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥

एक क्रिया है और एक पदार्थ है । क्रिया और पदार्थ यह प्रकृति है । क्रिया और पदार्थ दोनोंसे संबंध-विच्छेद करके एक भगवान्‌ के आश्रित हो जायँ । भगवान्‌के शरण हो जायँ, बस । उसमें आप की स्थिति स्वतः है । ‘भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा’‒ ऐसे परमात्मा में आपकी स्वाभाविक स्थिति है । स्वप्न में एक स्त्रीका बालक खो गया । वह बड़ी व्याकुल हो गयी । पर जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथ में ही सोया है‒ तात्पर्य है कि जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा पूरे-के-पूरे विद्यमान है । आप जहाँ हैं, वहीं चुप हो जाओ !!

‒२९ जून २००५, सायं लगभग ४ बजे
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श्रोता‒कल आपने बताया कि कोई चाहना न रखे । इच्छा छोड़ना और चुप होना दोनोंमें कौन ज्यादा फायदा करता है ?

स्वामीजी‒मैं भगवान्‌ का हूँ, भगवान्‌ मेरे हैं, मैं और किसी का नहीं हूँ, और कोई मेरा नहीं है । ऐसा स्वीकार कर लो । इच्छा रहित होना और चुप होना‒दोनों बातें एक ही हैं । इच्छा कोई करनी ही नहीं है, भोगोंकी, न मोक्षकी, न प्रेमकी, न भक्तिकी, न अन्य किसीकी ।

श्रोता‒इच्छा नहीं करनी है, पर कोई काम करना हो तो ?

स्वामीजी‒काम उत्साह से करो, आठों पहर करो, पर कोई इच्छा मत करो । इस बात को ठीक तरहसे समझो । दूसरों की सेवा करो, उन का दुःख दूर करो, पर बदले में कुछ चाहो मत । सेवा कर दो और अन्तमें चुप हो जाओ । कहीं नौकरी करो तो वेतन भले ही ले लो, पर इच्छा मत करो ।

सार बात है कि जहाँ आप हैं, वहीं परमात्मा हैं । कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मामें ही होगी । जब सब परमात्मा ही हैं तो फिर इच्छा किस की करें ? संसार की इच्छा है, इसलिये हम संसार में हैं । कोई भी इच्छा नहीं है तो हम परमात्मामें हैं ।

‒ ३० जून २००५, दिनमें लगभग ११ बजे

सांसारिक/भौतिक ज्ञान का विस्फोट .....

सांसारिक/भौतिक ज्ञान का विस्फोट .....

आजकल भौतिक विज्ञान और टेक्नोलोजी का विस्तार इतनी तेजी से हो रहा है कि उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलना असंभव सा हो रहा है| एक तरह से यह अच्छा ही हो रहा है| अन्धकार और असत्य से भरी मान्यताएँ धीरे धीरे मूल्य विहीन हो रही हैं और प्राचीन सनातन मान्यताएँ पुनर्स्थापित हो रही हैं| इस प्रगति को कोई रोक नहीं सकता|

मनुष्य के मस्तिष्क का भी उसी द्रुत गति से विकास हो रहा है| यह एक संक्रांति काल है जिसमें अन्याय, छल-कपट और चोरी की घटनाएँ बहुत अधिक हो रही लगती हैं| ये पहले भी होती थीं पर पता नहीं चलता था, अब तुरंत पता चल जाता है| धीरे धीरे इनके दुष्परिणाम आने भी आने लगे हैं| 

मनुष्य के दुःख और पीड़ाओं की वृद्धि हो रही है| धीरे धीरे मनुष्य दुःखी होकर यह सोचने को बाध्य हो जाएगा कि मैं दुःखी क्यों हूँ| यह दुःख से मुक्त होने की तड़प ही उसे बापस आध्यात्म की ओर ले जायेगी, ऐसी मेरी सोच है|
जो भी होगा वह अच्छा ही होगा| दुःखों से मुक्ति के लिए बापस हमें आध्यात्म की ओर ही जाना होगा| यह सनातन धर्म की विजय होगी| सनातन धर्म ही हमें दुःखों से मुक्ति दिला सकता है| विश्व से असत्य और अन्धकार की शक्तियों का निश्चित रूप से पराभव होगा|

चारों ओर छाये असत्य का प्रतिकार करें, और सत्य मार्ग पर अडिग रहें| निश्चित रूप से असत्य का नाश होगा ,और सत्य की विजय होगी|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१८

परमात्मा के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए .....

परमात्मा के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए .....
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जो लोग इस भ्रम में हैं कि भगवान की साधना से कुछ मिल जाएगा, तो उन्हें मैं यह बता देना चाहता हूँ कि मिलेगा तो कुछ नहीं, जो कुछ पास में है वह भी चला जाएगा| भगवान को समर्पित होने पर सबसे पहिले तो हम जाति-विहीन हो जाते हैं, फिर वर्ण-विहीन हो जाते हैं, घर से भी बेघर हो जाते हैं, देह की चेतना भी छुट जाती है और मोक्ष की कामना भी नष्ट हो जाती है| विवाह के बाद कन्या अपनी जाति, गौत्र और वर्ण सब अपने पति की जाति, गौत्र और वर्ण में मिला देती है| पति की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| वैसे ही परमात्मा को समर्पित होने पर अपना कहने को कुछ भी नहीं बचता, सब कुछ उसी का हो जाता है| 'मैं' और 'मेरापन' भी समाप्त हो जाता है| सब कुछ 'वह' ही हो जाता है| भगवान् की जाति क्या है ? भगवान् का वर्ण क्या है ? भगवान् का घर कहाँ है ? मैं कौन हूँ? .... ऐसे प्रश्न भी तिरोहित हो जाते हैं|
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एक बात तो है कि जो कुछ भी परमात्मा का है ..... सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमता आदि आदि आदि उन सब पर हमारा भी जन्मसिद्ध अधिकार है| हम उनसे पृथक नहीं हैं| जो भगवान की जाति है वह ही हमारी जाति है| जो उनका घर है वह ही हमारा घर है| जो उनकी इच्छा है वह ही हमारी इच्छा है|
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मेरी भावनाएँ ....... तुम महासागर हो तो मैं जल की एक बूँद हूँ जो तुम्हारे में मिलकर महासागर ही बन जाती है| तुम एक प्रवाह हो तो मैं एक कण हूँ जो तुम्हारे में मिलकर विराट प्रवाह बन जाता है| तुम अनंतता हो तो मैं भी अनंत हूँ| तुम सर्वव्यापी हो तो मैं भी सदा तुम्हारे साथ हूँ| जो तुम हो वह ही मैं हूँ| मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| जब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता तो तुम भी मेरे बिना नहीं रह सकते| जितना प्रेम मेरे ह्रदय में तुम्हारे प्रति है, उससे अनंत गुणा प्रेम तो तुम मुझे करते हो| तुमने मुझे प्रेममय बना दिया है| जहाँ तुम हो वहीँ मैं हूँ, जहाँ मैं हूँ वहीं तुम हो| मैं तुम्हारा अमृतपुत्र हूँ, तुम और मैं एक हैं| ॐ शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||
(यह ध्यान की एक अनुभूति है जो प्रायः सभी उच्च स्तर के साधकों को होती है)
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१५

स्थिर होकर सुख से बैठने का अभ्यास .....

स्थिर होकर सुख से बैठने का अभ्यास .....
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इतना अभ्यास तो हमें करना चाहिए कि हम कम से कम ढाई से तीन घंटे तक बिना हिले-डुले सुख से एक ही आसन में बैठ सकें| यह विशेषता मैंने सभी साधू-संतों-महात्माओं में देखी है जिनसे मैं अब तक मिला हूँ| वे अपने साधन पर जब बैठते हैं तो उनका शरीर स्थिर रहता है, कोई किसी भी तरह की अनावश्यक हलचल उनके शरीर में नहीं होती| यह अभ्यास से ही संभव है| स्थिर होकर बैठने के अभ्यास के बाद ही कोई उपासना हो सकती है, अन्यथा कभी नहीं|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१८

क्या भारत के हर जिले में शरिया अदालतें आवश्यक हैं?

क्या भारत के हर जिले में शरिया अदालतें आवश्यक हैं?
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भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व.श्रीमती इंदिरा गाँधी ने राजनीतिक कारणों से अपने शासन काल में "मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड" नाम की एक संस्था बनवाई और उसका पंजीकरण भी एक वैधानिक संस्था के रूप में करवाया था|
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जैसा कि समाचारों में पढ़ रहे हैं, अब उस संस्था की माँग है कि भारत के मुसलमानों के लिए हर जिले में अलग से शरिया अदालतें बनवाई जाएँ| अर्थात जो मुसलमान हैं वे सिर्फ शरिया क़ानून का ही पालन करेंगे, भारत के संविधान या नागरिक संहिता का नहीं| इस का अर्थ है कि देश में दो तरह के कानून होंगे ..... (१) शरिया कानून मुसलमानों के लिए और (२) नागरिक संहिता के कानून गैर मुसलमानों के लिए|
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इस व्यवस्था को लागू करने के लिए फिर पुलिस भी दो तरह की होगी .... एक तो शरिया पुलिस और दूसरी सिविल पुलिस| कोई मुसलमान अपराध करेगा तो उसे शरिया पुलिस ही गिरफ्तार कर सकेगी और उस पर मुक़द्दमा भी शरिया अदालत में ही चलेगा|
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क्या इस तरह की व्यवस्था किसी अन्य देश में भी है ? क्या एक देश में दो तरह की नागरिक संहिताएँ संभव हैं? क्या यह देश के एक और विभाजन की तैयारी नहीं है? इस तरह की माँग को आरम्भ में ही समाप्त कर मुस्लिम पर्सनल बोर्ड नाम की संस्था को बंद कर एक सामान्य नागरिक संहिता लागू कर देनी चाहिए|

किसका संग करूँ ? वह परम पुराण पुरुष ही मेरा शाश्वत् मित्र है .....

किसका संग करूँ ? वह परम पुराण पुरुष ही मेरा शाश्वत् मित्र है .....
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संग मैं उसी का करूँ जो यथावत् मुझे स्वीकार कर ले, अन्य कोई नहीं| मुझेे यथावत् स्वीकार कर सकने वाला मेरा एकमात्र संगी-साथी वह पुराण पुरुष परमात्मा ही हो सकता है जिस के बारे में गीता में भगवान कहते हैं .....
"पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया | यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ||८:२२||"
अर्थात् .... हे पार्थ सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है वह परम पुरुष परमात्मा अनन्यभक्ति से प्राप्त होने योग्य है|
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वह मेरे इस शरीर रूपी पुर में शयन कर रहा है, और सर्वत्र पूर्णतः समान रूप से व्याप्त भी है, इसलिए वह पुरुष कहलाता है| पुराण का अर्थ है ... शाश्वत/सनातन/प्राचीन| वह परम पुराण पुरुष ही मेरा सच्चा मित्र है, अन्य कोई नहीं| वह अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त होता है| उस अनन्य भक्ति को भी मेरे लिए वह स्वयं ही कर रहा है| अतः बलिहारी जाऊँ मैं उस पर, उस से श्रेष्ठतर मित्र होना असंभव है|
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त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||११:३८||
अर्थात् ..... आप ही आदि देव और पुराण पुरुष हैं तथा आप ही इस संसारके परम आश्रय हैं| आप ही सबको जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं| हे अनन्त रूप आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है|
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विवेक-चूडामणि का १३१ वाँ श्लोक कहता है ..... "एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो निरन्तराखण्ड-सुखानुभूति | सदा एकरूपः प्रतिबोधमात्र येनइषिताः वाक्असवः चरन्ति ||"
अन्य भी अनेक ग्रंथों में पुराण पुरुष शब्द का अनेक बार प्रयोग परमात्मा के लिए हुआ है| वह पुराण पुरुष परमात्मा ही मेरा शाश्वत मित्र है| मैं उसमें नाचूँ या गाऊँ ? किसी को क्या ? मैं तो उसमें मग्न हूँ| मेरे लिये एकमात्र साथ उसी का है| उसके अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जुलाई २०१८
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पुनश्च्च :- ऊपर बताया हुआ गीता के ८ वें अध्याय का २२ वां श्लोक यह भी बताता है कि ईश्वर की प्राप्ति अनन्य भक्ति से ही संभव है| अनन्य का अर्थ वेदान्तिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा| ध्यान में साधक यह भाव रखता है कि मेरे सिवा अन्य कोई भी नहीं है|