Wednesday, 14 December 2016

हमारे सांसद .......

यह लेख राष्ट्रहित में अति महत्वपूर्ण है जो सभी को पढना चाहिए |
कृपया इस लेख पर विचार अवश्य करें और इसे अधिक से अधिक फैलाएँ|
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(1). हमारे देश के राजा सांसद हैं जो अत्यधिक वेतन, भत्ते, सुविधाएं और पेंशन आदि सब प्राप्त करते हैं| लोकसभा और राज्य सभा की सजीव कारवाई देख लीजिये कि वहाँ ये लोग क्या काम करते हैं| झूठे आरोप-प्रत्यारोप, शोरगुल, और संसद न चलने देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं करते| आजकल संसद के किसी भी सदन में कुछ भी कारवाई नहीं हो रही है|
(2) राज्य सभा की कोई आवश्यकता नहीं है| इसे देशहित में बंद ही कर दिया जाए| इससे देश का बहुत अधिक मूल्यवान समय और रुपया बचेगा|
(3) इनको वेतन भत्ते आदि तभी तक मिलने चाहिएँ जब तक ये सांसद हैं, उसके बाद पेंशन नहीं मिलनी चाहिए| सेना में भी 20 वर्ष की नौकरी के बाद पेंशन मिलती है|
(4) इनको अपनी सेवानिवृति की योजना स्वयं बनानी चाहिए जैसे कि भारत के अन्य सामान्य व्यक्ति करते हैं|
इनको स्वयं अपना वेतन बढाने का अधिकार नहीं होना चाहिए|
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(5) जो स्वास्थय लाभ योजना एक सामान्य आदमी के लिए है वे ही इनको मिलनी चाहिए| उससे अधिक नहीं|
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(6) जिस दिन संसद में कोई कारवाई नहीं होती है उस दिन कोई वेतन-भत्ता नहीं मिलना चाहिए|
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(7) जो नियम एक सामान्य नागरिक पर लागू होते हैं वे ही इन पर लागु हों|
किसी भी आपराधिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति सांसद ना बनना चाहिए|
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(8)सेवानिवृति की आयु 60 वर्ष हो|
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(9) गुटका, तम्बाखू और पाना-पराग आदि खाकर संसद में आने की अनुमति सासदों को नहीं होनी चाहिए|
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(10) देश के सारे नियम इन पर लागू हों| किसी तरह की कोई छूट न हो|
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देश की गरीब जनता कब तक इनका भार ढोएगी?
सांसद बनना एक सम्मान का देश की सेवा का कार्य है| जो देश की सेवा करना चाहते हैं वे ही सांसद बनें, अन्य नहीं|

निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः .....

निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः .....
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श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे |
त्रायस्व माम् केशव लोकनाथ गोविंद दामोदर माधवेति ||
‘हे श्रीकृष्ण ! हे विष्णो ! हे मधुकैटभको मारनेवाले ! हे भक्तोंके ऊपर अनुकम्पा करनेवाले ! हे भगवन्‌ ! हे मुरारे ! हे केशव ! हे लोकेश्वर ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो’ ||
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हे प्रभु, तुम्हारी परम कृपा से अब कभी भी कैसी भी कोई कामना उत्पन्न न हो|
मेरा तुम्हारे से पृथक कोई अस्तित्व ना रहे| बस तुम रहो और तुम्हारी ही तुम्हारी इच्छा रहे|
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जब तुम साथ में हो तो मुझे किसी अन्य की कोई आवश्यकता नहीं है ..... न कुछ पाने की और ना कुछ जानने की| सब कुछ तुम्हारा है| मेरा अस्तित्व भी तुम्हारा है| तुम और मैं एक हैं|
मैं तुम्हारी पूर्णता बनूँ, मैं तुन्हारे से पृथक नहीं रह सकता| मेरा समर्पण स्वीकार करो|
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कौन तो उपासक है और कौन उपास्य है? उपास्य, उपासक और उपासना सब कुछ तो तुम्ही हो| साध्य, साधक और साधना सब एक ही है| बिन्दु भी तुम हो, प्रवाह भी तुम हो और अनंतता भी तुम ही हो| जो कुछ भी है और नहीं भी है, वह सब कुछ तो हे परम प्रिय तुम्हीं हो|
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तुम्हारे परम प्रेम पर मेरा पूर्ण अधिकार है| मैं तुम्हारा परम प्रेम हूँ| जो तुम हो वह ही मैं हूँ और जो मैं हूँ वह ही तुम हो| दोनों में कोई भेद नहीं होना चाहिए|
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पर फिर भी एक धुएँ की लकीर सा पतला एक आवरण है जो दूर नहीं हो रहा है और विक्षेप भी आते रहते हैं जो बड़े दुःखदायक हैं|
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मेरा और कोई आश्रय नहीं है, अब और किसे पुकारूं?
हे जगदीश, मुझ निराश्रय की रक्षा करो, त्राहिमाम् त्रहिमाम् ..............
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अग्रे कुरूनाम् अथ पाण्डवानां दुःशासनेनाहृत वस्त्रकेशा |
कृष्णा तदाक्रोशदनन्यनाथ गोविंद दामोदर माधवेति ||
(जिस समय) कौरव और पाण्डवोंके सामने भरी सभामें दुःशासनने द्रौपदीके वस्त्र और बालोंको पकडकर खींचा, उस समय जिसका कोई दूसरा नाथ नहीं ऐसी द्रौपदीने रोकर पुकारा - ‘ हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ ||
श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे |
त्रायस्व माम् केशव लोकनाथ गोविंद दामोदर माधवेति ||
‘हे श्रीकृष्ण ! हे विष्णो ! हे मधुकैटभको मारनेवाले ! हे भक्तोंके ऊपर अनुकम्पा करनेवाले ! हे भगवन्‌ ! हे मुरारे ! हे केशव ! हे लोकेश्वर ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो’ ||
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हरे मुरारे मधुकैटभारे, गोबिंद गोपाल मुकुंद माधव |
यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णु, निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः ||
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ॐ ॐ ॐ ||

मेरी दृष्टी में निष्काम कर्मयोग ....

मेरी दृष्टी में निष्काम कर्मयोग ....
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कर्मयोग >>>>>
परमेश्वरार्पणबुद्धि से श्रुति-स्मृतियों में कर्तव्य बताए गए नित्य-नैमित्तिक कर्मों का स्वयं के माध्यम से संपादित होना ही कर्मयोग है|
यहाँ कर्ता हम नहीं अपितु स्वयं परमात्मा ही हो| हम तो परमात्मा के उपकरण मात्र ही रहें|
ॐ ॐ ॐ ||
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 परमात्मा का साक्षात्कार ही समष्टि का कल्याण है| परमात्मा के साक्षात्कार के लिए जो भी उपासना, भजन, साधन आदि किये जाएँ वे ही निष्काम कर्म योग हैं| भजन-कीर्तन, अष्टांग योग, वेदांत-विचार और निरंतर ब्रह्म-चिंतन आदि ये सब निष्काम कर्म योग हैं| यह ही सबसे बड़ी सेवा है|
वनों के एकांत में जो त्यागी-तपस्वी भोगनिवृत साधू-संत भगवान का ध्यान करते हैं, वे समष्टि का सबसे बड़ा कल्याण करते हैं| वे वास्तविक निष्काम कर्मयोगी हैं| वे ही सच्चे महात्मा हैं| हमें ऐसे निष्काम कर्मयोगी महात्माओं की सदा आवश्यकता पड़ेगी|
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कर्ताभाव से मुक्त होकर परमात्मा को समर्पित हर कार्य, अहैतुकी भक्ति और परमात्मा पर ध्यान ही ..... निष्काम कर्मयोग है .....
जीवन का केंद्र बिंदु परमात्मा को बनाकर, अहंभाव यानि कर्ताभाव से मुक्त होकर परमात्मा को समर्पित किया हुआ कार्य ही कर्मयोग हो सकता है| यही मेरी समझ है| परमात्मा के मार्ग की गली इतनी संकड़ी है कि उसमें दो तो क्या अकेला व्यक्ति भी चाहे तो बिना हरि कृपा के प्रवेश नहीं पा सकता| प्रभु भी मार्ग तभी प्रदान करते हैं जब उनसे हमें प्रेम हो जाता है| उसमें प्रवेश पाने के पश्चात जीवात्मा परमात्मा ही हो जाता है|
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प्रकृति में कुछ भी निःशुल्क नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पडती है| प्रभु के मार्ग पर चलने की कीमत प्रेम है| यह प्रेम ही चलने की सामर्थ्य देता है| यह प्रेम ही है जो उनके ह्रदय का द्वार खोलता है| पर पहिले हमें स्वयं के ह्रदय के द्वार खोलने पड़ते हैं| फिर भी प्रवेश अकेले को ही मिलता है| मन बुद्धि चित्त और अहंकार सब उसे ही समर्पित करने पड़ते हैं अन्यथा ह्रदय के द्वार नहीं खुलते| यह मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है|
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जब प्रभु से परम प्रेम होता है तभी कर्ताभाव तिरोहित होता है| उस स्थिति में संपादित हुआ कर्म ही निष्काम कर्मयोग है|
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मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासा .....

मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासा .....
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मनुष्य की शाश्वत जियासा है परमात्मा को जानने और पाने की| यह जिज्ञासा ही अभीप्सा में बदल जाती है|
मनुष्य की हर उपलब्धी प्रतीक्षा कर सकती है, पर साक्षात परमात्मा को उपलब्ध होने की खोज और प्रतीक्षा नहीं कर सकती|
पहले परमात्मा को प्राप्त करो फिर दुनिया के बाकी काम|
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परमात्मा कि प्राप्ति जिसे हम आत्मसाक्षात्कार भी कह सकते हैं सबसे बड़ी सेवा है जिसे कोई व्यक्ति समाज, राष्ट्र, विश्व, मानवता व समष्टि के प्रति कर सकता है|
ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व ही संसार के लिए वरदान है|
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परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम और सम्पूर्ण समर्पण मनुष्य जीवन की सर्वोच्च उपलब्धी है|
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युवावस्था में ही जब परमात्मा की एक झलक मिल जाए तब उसी समय से उसकी खोज में लग जाना चाहिए| जीवन बहुत छोटा है और मायावी आवरण और विक्षेप की शक्तियाँ अति प्रबल हैं|
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इस जन्म से पूर्व परमात्मा ही हमारे साथ थे और मृत्यु के पश्चात भी वे ही हमारे साथ रहेंगे| इस जन्म में भी हमें माता-पिता, बन्धु, मित्र, सगे-सम्बन्धी आदि से जो भी प्रेम मिलता है वह परमात्मा का ही प्रेम है जो औरों के माध्यम से व्यक्त हो रहा है|
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परमात्मा से हम इतना प्रेम करें कि हमारा स्वभाव ही प्रेममय हो जाए| यही जीवन का सार है| तब हम परमात्मा के एक उपकरण मात्र बन जाएंगे और स्वयं भगवान ही हमारे माध्यम से हर कार्य करेंगे, जो कि सर्वश्रेष्ठ होगा|
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Sermon on the Mount .....
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He said ..... "But seek ye first the kingdom of God, and his righteousness; and all these things shall be added unto you."
Matthew 6:33 KJV.
इसका अर्थ है कि पहिले परमात्मा के राज्य को ढूंढो, फिर अन्य सब कुछ तुम्हें स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||