Tuesday, 31 October 2017

सृष्टि का और जीव का उत्थान व पतन .....

सृष्टि का और जीव का उत्थान व पतन .....
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(यह मेरा निजी चिंतन है, जिस से किसी को आहत होने की आवश्यकता नहीं है, पूरी तरह पढ़े और समझे बिना किसी भी तरह की कोई टिप्पणी न करें)
मुझे प्रतीत होता है कि इस सृष्टि के सारे उत्थान और पतन के पीछे ज्योतिषीय कारण हैं जिन से मनुष्य की चेतना प्रभावित होती है | इसमें किसी भी प्राणी का कोई दोष नहीं है | सब प्रकृति के आधीन कठपुतलियाँ हैं, जो प्रकृति के नियमों के अंतर्गत ही संचालित हो रही हैं | मुझे प्रतीत होता है कि इस पूरी सृष्टि का कोई न कोई केंद्र अवश्य है जहाँ से समस्त सृष्टि को ऊर्जा मिल रही है | उस केंद्र को आप कोई भी नाम एक बार दे सकते हैं | जिस सौर मंडल में अपनी यह पृथ्वी है उसका केंद्र सूर्य है | इस तरह के अनंत सौर मंडल, अनंत ब्रह्माण्ड और अनंत सूर्य हैं व अनंत प्रकार के प्राणी हैं | सारे ब्रह्मांड गतिशील और परिक्रमारत हैं और एक निश्चित समय में अपने परिक्रमापथ पर सृष्टिकेंद्र से समीप और दूर आते जाते रहते हैं | जब कोई सूर्य अपने परिक्रमापथ पर सृष्टिकेंद्र के समीपतम होता है तब उसके ग्रहों में रहने वाले अधिकांश प्राणी अपनी उच्चतम चेतना में होते हैं, यह वहाँ सत्ययुग का चरम होता है | और जब वह सूर्य सृष्टिकेंद्र से अधिकतम दूरी पर होता है तब उसके ग्रहों में कलियुग का चरम होता है, और वहाँ के प्राणियों की निम्नतम चेतना होती है |
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ऐसे ही हर व्यक्ति के अस्तित्व में भी एक आत्मसूर्य है जिससे उसके चैतन्य की दूरी और समीपता ही यह तय करती है कि उसके विचार और भाव कैसे हों | ध्यान में अपना आत्मसूर्य आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य स्पष्ट दिखाई देता है | चैतन्य में उससे हमारी समीपता और दूरी ही हमारे विचार और भावों का निर्माण करती है |
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अब इस पृथ्वी ग्रह की बात करते हैं | जब भी पृथ्वी पर आवश्यकता होती है तब महान आत्माओं का अवतरण होता है | वे अपने उपदेश रूपी प्रकाश देकर चले जाते हैं, पर कालखंड में समय के प्रभाव से वे उपदेश और शिक्षाएँ लुप्त और प्रक्षिप्त हो जाती हैं | अतः किसी को दोष न देकर समय को ही दोष देना चाहिए |
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भगवान ने हमें एक दायित्व देकर इस संसार में भेजा है, वह दायित्व है ..... आत्मसाक्षात्कार | हमें उसी की ओर बढना चाहिए | वह तभी संभव होगा जब हम अपनी चेतना को अपने आत्मसूर्य से एकाकार कर लें | उस आत्मसूर्य की ओर बढने का प्रयास ही आध्यात्मिक साधना है |
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कर्मफलों का सिद्धांत भी सही है | जैसे हर एक व्यक्ति के कर्म होते हैं, वैसे ही हर एक राष्ट्र के भी कर्म और उनके फल होते हैं | उन कर्मफलों को हर राष्ट्र को भुगतना ही पड़ता है |
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मुझे मेरे विचार व्यक्त करने का अवसर देने के लिए आप सब को साभार धन्यवाद ! कम से कम शब्दों में मैनें अपने विचार प्रस्तुत किए हैं | आप अपनी स्वतंत्र दृष्टी से विचार कीजिये |
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कृपाशंकर
०१ नवम्बर २०१७