Sunday 7 November 2021

गीता में "ॐ तत्सत्" का अर्थ ---

 गीता में "ॐ तत्सत्" का अर्थ .....

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गीता के सत्रहवें अध्याय के अंतिम छः श्लोक "ॐ तत्सत्" का अर्थ बतलाते हैं....
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ (२३)
भावार्थ : सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। (२३)
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌॥ (२४)
भावार्थ : इस प्रकार ब्रह्म प्राप्ति की इच्छा वाले मनुष्य शास्त्र विधि के अनुसार यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाओं का आरम्भ सदैव "ओम" (ॐ) शब्द के उच्चारण के साथ ही करते हैं। (२४)
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥ (२५)
भावार्थ : इस प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से अनेकों प्रकार से यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाऎं "तत्‌" शब्द के उच्चारण द्वारा की जाती हैं। (२५)
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ (२६)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! इस प्रकार साधु स्वभाव वाले मनुष्यों द्वारा परमात्मा के लिये "सत्" शब्द का प्रयोग किया जाता है तथा परमात्मा प्राप्ति के लिये जो कर्म किये जाते हैं उनमें भी "सत्‌" शब्द का प्रयोग किया जाता है। (२६)
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ॥ (२७)
भावार्थ : जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। (२७)
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌ ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ (२८)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है। (२८)
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"ॐ तत्सत्" शब्द परमात्मा की ओर किया गया एक निर्देश है| इस का प्रयोग गीता के हरेक अध्याय के अंत में किया गया है ....."ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुन ... ."
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ईसाई मत में इसी की नक़ल कर के "Father Son and the Holy Ghost" की परिकल्पना की गयी है| गहराई से यदि चिन्तन किया जाए तो "Father Son and the Holy Ghost" का अर्थ भी वही निकलता है जो "ॐ तत्सत्" का अर्थ है|
हरि: ॐ तत् सत् !
७ नवम्बर २०१८

'स्वार्थ' और 'परमार्थ' इन दोनों शब्दों में आध्यात्मिक रूप से कोई अंतर नहीं है ---

'स्वार्थ' और 'परमार्थ' इन दोनों शब्दों में आध्यात्मिक रूप से कोई अंतर नहीं है| 'स्व' क्या है? और 'परम' क्या है? ये दोनों शब्द पारब्रह्म परमात्मा का संकेत करते हैं| हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा, आत्म-तत्व ... स्वयं परमात्मा हैं। पूर्ण प्रेम से उन्हीं का ध्यान और उपासना करें|
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ध्यान-साधना ... अपनी भावना में इस देह के ब्रह्मरंध्र से बाहर रहकर करने का अभ्यास करें| परमात्मा की अनंतता का ध्यान करें| यह भाव रखें कि यह समस्त अनंतता ही 'मैं' हूँ, यह नश्वर देह नहीं| जब यह भाव गहरा हो जाएगा, तब उस अनंतता से परे एक परम ज्योति का आभास होने लगेगा| उस परम ज्योति को ही समर्पित होने की साधना करें| वह परम ज्योति ही कूटस्थ आत्म-तत्व यानि हम हैं, यह नश्वर देह नहीं|

ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
८ नवंबर २०२०