Sunday, 24 November 2024

जो करना चाहता हूँ, वैसी सामर्थ्य नहीं है ---

“The spirit is willing but the flesh is weak”. मैं कहीं भी जाऊँ, कहीं भी रहूँ, कुछ भी करूँ, घूम फिर कर मेरे विचार परमात्मा पर ही आकर केंद्रित हो जाते हैं। परमात्मा के सिवाय और कुछ मुझे आता-जाता भी नहीं है। परमात्मा ने दिमाग और बुद्धि तो मुझे दी ही नहीं है। वे ही मेरे दिमाग हैं और वे ही मेरी बुद्धि हैं। करने योग्य कुछ भी काम मुझे नहीं आता है। जो कुछ भी करना है, वह सब वे ही करते हैं। मैं तो उनका एक उपकरण मात्र हूँ।
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एक कार्य तो अवश्य वे मुझे निमित्त बनाकर कर रहे हैं -- हर आती-जाती सांस पर अपना स्मरण। सांस रुक भी जाती है तब भी वे उस अवधि में और हर समय ज्योति और नाद के रूप में अपना स्मरण कराते रहते हैं। एक मात्र कर्ता वे ही हैं। उनकी इच्छा ही मेरी इच्छा है। जो कुछ भी करना है, उसे वे ही करते हैं, मेरे में कोई कार्य-कुशलता नहीं है। वे जगन्माता भी हैं, और जगत्पिता भी। दोनों के रूप में वे निरंतर अनुभूत होते हैं।
मेरी एकमात्र और सबसे बड़ी कमी व कमजोरी है -- “The spirit is willing but the flesh is weak.”
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वैसे तो उनके कृपा-सिंधु में मेरी हिमालय से भी बड़ी बड़ी भूलें, छोटे-मोटे कंकर-पत्थरों सी ही लगती हैं। मेरी उनसे प्रथम, अंतिम, और एकमात्र प्रार्थना है कि वे मुझे हर समय अपने हृदय में रखें और अपना पूर्ण प्रेम दें। और कुछ भी नहीं चाहिए।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ नवंबर २०२४

स्वयं को मुझ में व्यक्त करो ---

स्वयं को मुझ में व्यक्त करो। (Reveal Thyself unto me)। एक बार अनुभूति हुई कि सामने एक महासागर आ गया है, तो बिना किसी झिझक के मैंने उसमें छलांग लगा दी और जितनी अधिक गहराइयों में जा सकता था उतनी गहराइयों में चला गया। फिर सांस लेने की इच्छा हुई तो पाया कि सांस तो स्वयं महासागर ले रहा है, सांसें लेने का मेरा भ्रम मिथ्या है। फिर भी पृथकता का यह मिथ्या बोध क्यों? यही तो जगत की ज्वालाओं का मूल है।

शिवो भूत्वा शिवं यजेत्” --- जीवन में हम क्या बनना चाहते हैं, और क्या प्राप्त करना चाहते हैं? यह सब की अपनी अपनी सोच है। इस जीवन के अपने अनुभवों और विचारों के अनुसार इस जीवन में मैं जो कुछ भी प्राप्त करना चाहता हूँ, वह तो शिवभाव में मैं स्वयं हूँ। स्वयं से परे अन्य कुछ है ही नहीं। कृपा शंकर २३ नवंबर २०२४

सम्पूर्ण भारत में तमोगुणी विचारधाराओं का सम्पूर्ण नाश हो, और रजोगुण व सतोगुण में निरंतर वृद्धि हो ---

सम्पूर्ण भारत में तमोगुणी विचारधाराओं का सम्पूर्ण नाश हो, और रजोगुण व सतोगुण में निरंतर वृद्धि हो। अधर्म के नाश, व धर्म की विजय के लिए प्रकृति यदि महाविनाश भी करती है, तो उसका स्वागत है।

यह पृथ्वी राक्षसों व राक्षसी विचारधारा से मुक्त हो। भगवान श्रीराम ने भी प्रतिज्ञा की थी कि -- "निसिचर हीन करहुँ महि भुज उठाई पन कीन्ह”॥ (भगवान श्रीराम ने अपनी भुजा उठाकर प्रण किया था कि वे पृथ्वी को राक्षसों से मुक्त कर देंगे।) वही संकल्प हम दुहरा रहे हैं।
धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, और विश्व का कल्याण हो --- इसके लिए नित्य प्रार्थना करते हैं। अब शरणागत भाव से समर्पित होकर भगवान से और भी अधिक प्रार्थना करेंगे।
पूरे भारत में राष्ट्रभक्ति जागृत हो। सभी भारतीय सत्यनिष्ठ, कार्यकुशल और धर्मावलम्बी बनें। भारत में कहीं भी अधर्म न रहे।
धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, और विश्व का कल्याण हो।
धर्म उन्हीं की रक्षा करेगा, जो धर्म की रक्षा करेंगे। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। हम एक शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा के स्वधर्म का पालन कीजिए। वर्तमान में चल रहे, और अति शीघ्र ही आने वाले विकट समय में धर्म ही हमारी सदा रक्षा करेगा। परमात्मा की शरणागति लेकर समर्पित भाव में रहें। नित्य नियमित आध्यात्मिक उपासना करते रहें। आपका कोई अहित नहीं होगा। सदा याद रखें कि हमारा लक्ष्य केवल परमात्मा हैं।
ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ॥ २२ नवंबर २०२४

भगवान के पास किसी को कुछ भी देने के लिए कोई सामान नहीं है ---

भगवान के पास किसी को कुछ भी देने के लिए कोई सामान नहीं है। जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है या नहीं दिखाई दे रहा है -- वह सब कुछ तो वे स्वयं हैं। उनके सिवाय कुछ भी या कोई भी अन्य नहीं है। हाँ, हमारे पास एकमात्र सामान हमारा "अन्तःकरण" है, और कुछ भी सामान हमारे पास नहीं है। वह उनको समर्पित करने के पश्चात उनमें और हमारे में भी कोई भेद नहीं है।

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जो यह "मैं" और "मेरा" है, वह भी सब कुछ भगवान ही हैं। कुछ बचा ही नहीं है। भगवान स्वयं को ही दे सकते हैं, और हम भी स्वयं को ही दे सकते हैं। मैं दुबारा कह रहा हूँ कि उनके सिवाय कोई भी या कुछ भी अन्य नहीं है।

भगवान से आजतक जितनी भी प्रार्थनाएँ की हैं, जो कुछ भी उनसे माँगा है, जितनी भी अभीप्सा थी, उनके साथ साथ सारी महत्वाकांक्षाएँ, अरमान, विचार, भाव, और सारे संकल्प -- अब महत्वहीन हैं। न तो मैं कोई याचक या मंगता-भिखारी हूँ, और भगवान भी कोई सेठ-साहूकर नहीं हैं।

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नारायण !! नारायण !! हरिःॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ नवंबर २०२२

गुरु के प्रति समर्पण कैसे हो?

  (प्रश्न) गुरु के प्रति समर्पण कैसे हो?

(उत्तर) जिस आध्यात्मिक चेतना में गुरुदेव स्थित हैं, महत्व उस आध्यात्मिक चेतना का है। गहनतम दीर्घ ध्यान करते हुए उस चेतना के साथ एक हो जाना चाहिए। यह गुरु के प्रति समर्पण है।
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भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - यह ब्राह्मी स्थिति है, जिसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।
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भगवान से यह संदेश है कि -- "सब कर्मों का सन्यास करके केवल ब्रह्म रूप से स्थित हो जाना है।" ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ नवंबर २०२२

जिन भी हिन्दू राजाओं ने मुगलों को अपना सहयोग दिया, उन्हें कुछ धन के अतिरिक्त और क्या मिला?

जिन भी हिन्दू राजाओं ने मुगलों को अपना सहयोग दिया, उन्हें कुछ धन के अतिरिक्त और क्या मिला? आमेर के मिर्जा राजा सवाई जयसिंह और उनके पुत्र राजा रामसिंह दोनों को मुगल बादशाह औरंगज़ेब ने विष देकर मरवा दिया था। यह था उनकी स्वामी-भक्ति का पुरस्कार। मध्य एशिया से आए सभी तुर्क बादशाहों ने हिन्दू राजाओं से संधि कर के उनके सहयोग से ही भारत के कुछ क्षेत्रों में अपना राज्य स्थापित किया था। उनके सहयोग के बिना वे एक दिन भी राज्य नहीं कर सकते थे।

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मध्य एशिया के इतिहास में इस्लाम के आगमन से पूर्व वहाँ हिन्दू बौद्धमत था। उससे भी पूर्व सनातन धर्म था। वर्तमान तुर्की -- तुरुष्क हिन्दू क्षत्रियों द्वारा शासित प्रदेश था।
महाभारत में जिस किरात जाति का उल्लेख है, वह ही अब मंगोल जाति कहलाती है। मंगोल राजा चंगेज़ खान और उसका पोता राजा कुबलई खान दोनों ही महान हिन्दू सम्राट थे। चंगेज़ खान का वास्तविक नाम गंगेश हान था, और उसके पोते कुबलई खान का वास्तविक नाम कैवल्य हान था। हान एक सम्मानसूचक उपाधि हुआ करती थी। "हान" शब्द का अपभ्रंस ही "खान" है। भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम "कान्ह" है। कान्ह से अपभ्रंस होकर हान शब्द बना, और हान का अपभ्रंस खान हुआ। सभी मंगोल शासक अपने नाम के साथ सम्मानसूचक उपाधि "हान" लगाते थे।
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हिंदुओं के बौद्ध मत ने "अहिंसा" पर बहुत अधिक जोर दिया। अहिंसा नकारात्मक हो गई। शत्रु का बिलकुल भी प्रतिरोध न करने को अहिंसा मान लिया गया। लोगों ने शत्रु से अपने सिर कटवा दिये, या मतांतरित हो गए, लेकिन उनका प्रतिरोध नहीं किया, यही हिंदुओं के पतन का सर्वोपरि मुख्य कारण था।
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आज अहोम (असम) साम्राज्य के सेनानायक परमवीर योद्धा श्री लचित बोरफुकन की जयंती है। उनकी स्मृति को नमन !!
कृपा शंकर
२४ नवंबर २०२३
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पुनश्च: :-- पिछले डेढ़ हजार वर्षों में एक हिन्दू सम्राट कुबलई खान (कैवल्य हान) से अधिक पराक्रमी राजा इस पृथ्वी पर कोई अन्य नहीं हुआ। उसने बौद्ध मत अपना लिया था। उसकी एक ऐतिहासिक भूल से मंगोल साम्राज्य का पतन हो गया था। पृथ्वी के २०% भाग पर उसका साम्राज्य था। उसका साम्राज्य पूर्व में कोरिया से लेकर पश्चिम में कश्यप सागर तक, और उत्तर में साईबेरिया की बाईकाल झील से लेकर दक्षिण में विएतनाम तक था। चीनी लिपि का आविष्कार उसी ने करवाया था। उसी ने तिब्बत के प्रथम दलाई लामा को नियुक्त किया था। मार्को पोलो उसी के समय चीन गया था।