“The spirit is willing but the flesh is weak”. मैं कहीं भी जाऊँ, कहीं भी रहूँ, कुछ भी करूँ, घूम फिर कर मेरे विचार परमात्मा पर ही आकर केंद्रित हो जाते हैं। परमात्मा के सिवाय और कुछ मुझे आता-जाता भी नहीं है। परमात्मा ने दिमाग और बुद्धि तो मुझे दी ही नहीं है। वे ही मेरे दिमाग हैं और वे ही मेरी बुद्धि हैं। करने योग्य कुछ भी काम मुझे नहीं आता है। जो कुछ भी करना है, वह सब वे ही करते हैं। मैं तो उनका एक उपकरण मात्र हूँ।
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एक कार्य तो अवश्य वे मुझे निमित्त बनाकर कर रहे हैं -- हर आती-जाती सांस पर अपना स्मरण। सांस रुक भी जाती है तब भी वे उस अवधि में और हर समय ज्योति और नाद के रूप में अपना स्मरण कराते रहते हैं। एक मात्र कर्ता वे ही हैं। उनकी इच्छा ही मेरी इच्छा है। जो कुछ भी करना है, उसे वे ही करते हैं, मेरे में कोई कार्य-कुशलता नहीं है। वे जगन्माता भी हैं, और जगत्पिता भी। दोनों के रूप में वे निरंतर अनुभूत होते हैं।
मेरी एकमात्र और सबसे बड़ी कमी व कमजोरी है -- “The spirit is willing but the flesh is weak.”
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वैसे तो उनके कृपा-सिंधु में मेरी हिमालय से भी बड़ी बड़ी भूलें, छोटे-मोटे कंकर-पत्थरों सी ही लगती हैं। मेरी उनसे प्रथम, अंतिम, और एकमात्र प्रार्थना है कि वे मुझे हर समय अपने हृदय में रखें और अपना पूर्ण प्रेम दें। और कुछ भी नहीं चाहिए।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ नवंबर २०२४
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