ईश्वर की अनुभूति ईश्वर की कृपा से ही कैसे होती है?---
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इस विषय पर मैंने लिखना तो आरंभ कर दिया है पर पता नहीं इस लेख का समापन कर पाऊँगा या नहीं| हो सकता है बीच में ही बंद कर इसे मिटाना भी पड़े, क्योंकि विषय बहुत अधिक कठिन है जिसे सरलतम भाषा में और कम से कम शब्दों में व्यक्त करना तो और भी अधिक कठिन है| यह एक परिचयात्मक लेख है जिसे सरलतम भाषा में कम से कम शब्दों में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ| ईश्वर की कृपा हुई तो यह लेख पूरा हो जाएगा, अन्यथा नहीं| कहीं कोई त्रुटि रह जाये तो मेरी भूल-चूक माफ करें|
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जब हम इस पृथ्वी की भूमध्य रेखा पर से या उस से नीचे दक्षिण गोलार्ध में खड़े होकर ध्रुव तारे को देखने का प्रयास करते हैं तो वह बिल्कूल भी दिखाई नहीं देगा, चाहे पहाड़ पर ही चढ़ कर कितनी भी शक्तिशाली दूरबीनों से देखने का प्रयास कर लें| जैसे जैसे हम भूमध्य रेखा से उत्तर की ओर बढ़ते है तब धीरे-धीरे ध्रुव तारा धुंधला सा दिखाई देने लगता है, जब कि भूगोल शास्त्र के अनुसार के अनुसार यह पृथ्वी से दिखाई देने वाले तारों में से ४५वाँ सबसे अधिक चमकदार तारा है| आज जो ध्रुव तारा हमें दिखाई दे रहा है वह वहाँ ४३४ वर्ष पूर्व था| ध्रुवतारे का प्रकाश जब वहाँ से चला था, तब से पृथ्वी तक पहुँचने में उसे ४३४ वर्ष लगे| इसकी चमक हमारे सूर्य से २२०० गुणा अधिक है, और हमारे सूर्य से यह ३० गुना अधिक बड़ा भी है| जैसे जैसे हम उत्तर की ओर बढ़ते हैं वैसे वैसे ही उसकी चमक भी बढ्ने लगती है| फिर भी ४५ डिग्री उत्तरी अक्षांस रेखा तक वह धुंधला ही दिखाई देखा| ४५ डिग्री उत्तरी अक्षांस रेखा से उत्तर में वह एक चमकीले तारे के रूप में दिखाई देगा| ध्रुव क्षेत्र तक पहुँचने से पूर्व भूतल से कुछ ऊपर की ऊँचाई पर हमें वायुमंडल में आकर्षक रंगीन प्रकाश की छटायें दिखाई देने लगती हैं, जिन्हें "ध्रुवीय प्रकाश" या "मेरु ज्योति" (Aurora Borealis) कहते हैं| ध्रुवीय प्रकाश हरे-पीले पर्दे की आकृति में दिखाई देने वाली प्रकाश की एक पट्टी की तरह दिखाई देता है जो कभी-कभी गहरे लाल रंग के दहकते हुए अंगारे के रूप में भी दिखाई देने लगता है| कभी-कभी तीव्र ध्रुवीय प्रकाश के साथ-साथ वायुमंडल में गड़गड़ाहट भी सुनाई देती है, जो ११ वर्षों में एक बार तो बहुत अधिक हो जाती है| ध्रुव क्षेत्र से पहले एक क्षेत्र ऐसा भी आता है जहाँ मध्य रात्रि में सूर्य कुछ समय के लिए दिखाई देता है (यह मैंने अपनी स्वयं की आँखों से देखा है), बाकी हर समय धुंध रहती है| ध्रुव क्षेत्र में धुंध रहती है, पर सब कुछ दिखाई देता है|
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अब तक मैंने जो कुछ भी लिखा है, उसे एक आध्यात्मिक रूप देता हूँ| हमारी प्राण-ऊर्जा बहिर्मुखी होती है जो निरंतर बाहर की ओर निःसृत होती रहती है| अपने आचरण और विचारों को पवित्र कर (जो पूर्ण आवश्यक है) जब हम भगवान के प्रति भक्ति के साथ-साथ, अजपा-जप करते हुए भ्रूमध्य पर ध्यान करते हैं, और अपनी चेतना का विस्तार करते हैं, तब वह बहिर्मुखी प्राण-ऊर्जा अंतर्मुखी होने लगती है, और धीरे धीरे मूलाधार चक्र में प्रकट होकर ऊर्ध्वमुखी हो, ऊपर की ओर उठने लगती है| यह कुंडलिनी जागरण है| ऊर्ध्वमुखी घनीभूत प्राण-ऊर्जा ही कुंडलिनी शक्ति है| हमारी देह का मणिपुर चक्र, देह की भूमध्य रेखा है| जब तक हमारी चेतना इसके नीचे है, हमें परमात्मा का प्रकाश नहीं दिखाई दे सकता| जैसे-जैसे हम ऊपर उठते हैं, कूटस्थ में एक धुंधली ज्योति के दर्शन होने लगते हैं| गुरुकृपा से जब वह घनीभूत ऊर्जा अनाहत चक्र तक पहुँचती है तब भक्ति का उदय होता है| विशुद्धि चक्र को पार करने पर विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं, और उस ब्रह्म-ज्योति के दर्शन स्पष्ट रूप से होने लगते हैं| तब लगता है कि हम यह देह नहीं, परमात्मा की अनंतता हैं| जब वह ऊर्जा आज्ञाचक्र का भेदन करती है तब ज्योतिर्मय ब्रह्म के स्पष्ट दर्शन होने लगते हैं और अनाहत नाद भी स्पष्ट रूप से स्वतः ही सुनाई देने लगता है, और हम उनके साथ एक होने लगते हैं| वास्तविक रूप से आध्यात्मिक यात्रा भी यहीं से आरंभ होती है| इससे आगे सहस्त्रार में ज्ञान-क्षेत्र, श्रीबिन्दु और पराक्षेत्र हैं, ज्येष्ठा, वामा और रौद्री ग्रंथियां हैं, ब्रह्मरंध्र और उससे बाहर की अनंतता से भी परे परमशिव हैं| योग-साधना का लक्ष्य कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव में विलय है|
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यह एक परिचयात्मक लेख है जिसका उद्देश्य एक जिज्ञासा उत्पन्न करना है| असली ज्ञान तो किसी ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध सदगुरु के सान्निध्य में साधना करने पर भगवान की कृपा से ही होता है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१२ अगस्त २०२०