Thursday, 28 November 2024

ईश्वर से कुछ मांगना क्या उनका अपमान नहीं है ---

ईश्वर से कुछ मांगना क्या उनका अपमान नहीं है? हम तो यहाँ उनका दिया हुआ सामान उनको बापस लौटाना चाहते हैं। उनका दिया हुआ सबसे बड़ा सामान है -- हमारा अन्तःकरण। यदि वे हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार) स्वीकार कर लें तो उसी क्षण हम उन्हें उपलब्ध हो जाते हैं। यह समर्पण का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ है। बाकी तो व्यापार है कि हम तुम्हारी यह साधना करेंगे, वह साधना करेंगे, और तुम हमें वह सामान दोगे।

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वे हमारे हृदय में बिराजमान हैं, क्या उन्हें पता नहीं है कि हमें क्या चाहिये? उन्हें सब पता है। वे बिना किसी शर्त के हमारा सिर्फ प्यार मांगते हैं, जो हम उन्हें देना नहीं चाहते। इस समय यह संसार अपने लोभ, लालच और अहंकार रूपी तमोगुण से चल रहा है। यहाँ तो स्वयं को गोपनीय रखो और चुपचाप उनसे प्रेम करो। अपने हृदय की बात कहना लोगों से दुश्मनी लेना है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०२४

साधु, सावधान !! भटक रहे हो, अभी भी समय है, स्वयं को सुधार लो, अन्यथा पछताना पड़ेगा ---

साधु, सावधान !! भटक रहे हो, अभी भी समय है, स्वयं को सुधार लो, अन्यथा पछताना पड़ेगा ---

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स्थितप्रज्ञता -- एक बहुत बड़ा गुण और आवश्यकता है जिसमें प्रज्ञा परमात्मा में निरंतर स्थिर रहती है। स्थितप्रज्ञता और ब्राह्मीस्थिति दोनों लगभग एक ही हैं। स्थितप्रज्ञता के लिए वीतरागता यानि राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त होना आवश्यक है। गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञता पर बहुत ज़ोर दिया है। नित्य नियमित ध्यान-साधना से एक साधक स्वतः ही वीतराग हो जाता है। वीतराग होना प्रथम उपलब्धि है। यदि हम अभी भी राग-द्वेष और अहंकार से ग्रस्त हैं, तो हमने आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की है।
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(प्रश्न) : जब भगवान स्वयं ही कर्ता और भोक्ता हैं, और हम एक निमित्त मात्र हैं, तो एक निमित्त द्वारा यह ऊहापोह क्यों?
(उत्तर) : माया के बंधन और आकर्षण बड़े प्रबल हैं। भगवान हमारी रक्षा निश्चित रूप से करेंगे। अपनी चेतना अपने लक्ष्य कूटस्थ की ओर ही रखो, उसी का आश्रय लो, उसी के चैतन्य में रहो, और उसी को अपना सर्वस्व समर्पित कर दो। इधर-उधर अन्य कुछ भी मत देखो। उनमें बड़ी गहराई से स्थित होकर ही हम निमित्त बन सकते हैं।
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अतः साधू, सावधान !! भटको मत। निरंतर शिव भाव में रहो। इस मानवी चेतना से स्वयं को मुक्त कर लो। अन्यथा बाद में पछताना पड़ेगा॥
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२४

हमारा पीड़ित, दुःखी और बेचैन होना एक बहुत ही अच्छा और शुभ लक्षण है ---

 हमारा पीड़ित, दुःखी और बेचैन होना एक बहुत ही अच्छा और शुभ लक्षण है ---

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अपनी पीड़ा, दुःख और बेचैनी से मुक्त होने की कामना -- भगवान की भक्ति का आरंभ है। जीवन में जो भी अभाव हैं उनकी पूर्ति सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही कर सकती है। "संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" (भक्ति) से ही हो सकती है। हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं। अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे। अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों। भगवान से खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो। सारे दुःख दूर हो जाएंगे। हम को सब कुछ मिल जायेगा, स्वयं प्रेममय बन जाओ। अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो। आगे आनंद ही आनंद है।
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जिस नारकीय जीवन को तुम जी रहे हो, उस से तो अच्छा है कि अपने सारे अभाव, दुःख और पीड़ाएं -- बापस भगवान को सौंप दो। "प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है। हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"। भगवान को प्रेम करने में कंजूसी क्यों?
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२२