साधु, सावधान !! भटक रहे हो, अभी भी समय है, स्वयं को सुधार लो, अन्यथा पछताना पड़ेगा ---
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स्थितप्रज्ञता -- एक बहुत बड़ा गुण और आवश्यकता है जिसमें प्रज्ञा परमात्मा में निरंतर स्थिर रहती है। स्थितप्रज्ञता और ब्राह्मीस्थिति दोनों लगभग एक ही हैं। स्थितप्रज्ञता के लिए वीतरागता यानि राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त होना आवश्यक है। गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञता पर बहुत ज़ोर दिया है। नित्य नियमित ध्यान-साधना से एक साधक स्वतः ही वीतराग हो जाता है। वीतराग होना प्रथम उपलब्धि है। यदि हम अभी भी राग-द्वेष और अहंकार से ग्रस्त हैं, तो हमने आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की है।
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(प्रश्न) : जब भगवान स्वयं ही कर्ता और भोक्ता हैं, और हम एक निमित्त मात्र हैं, तो एक निमित्त द्वारा यह ऊहापोह क्यों?
(उत्तर) : माया के बंधन और आकर्षण बड़े प्रबल हैं। भगवान हमारी रक्षा निश्चित रूप से करेंगे। अपनी चेतना अपने लक्ष्य कूटस्थ की ओर ही रखो, उसी का आश्रय लो, उसी के चैतन्य में रहो, और उसी को अपना सर्वस्व समर्पित कर दो। इधर-उधर अन्य कुछ भी मत देखो। उनमें बड़ी गहराई से स्थित होकर ही हम निमित्त बन सकते हैं।
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अतः साधू, सावधान !! भटको मत। निरंतर शिव भाव में रहो। इस मानवी चेतना से स्वयं को मुक्त कर लो। अन्यथा बाद में पछताना पड़ेगा॥
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२४
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