Thursday, 13 February 2020

हिन्दू, हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र .....

हिन्दू, हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र .....

(१) हिन्दू :-- जो भी व्यक्ति आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, कर्मफलों व ईश्वर के अवतारों में आस्था रखता है, वह हिन्दू है, चाहे वह पृथ्वी के किसी भी भाग पर किसी भी देश में रहता है|

(२) हिन्दुत्व :-- हिन्दुत्व एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करता है| हिन्दुत्व है हिंसा से दूरी| मनुष्य का लोभ और अहंकार हिंसा हैं, जिनसे मुक्ति अहिंसा है|

(३) हिन्दू राष्ट्र :-- 'हिन्दू राष्ट्र' ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करना चाहते हैं, चाहे वे पृथ्वी के किसी भी भाग में रहते हों|

११ फरवरी २०२० 

मेरी पीड़ा का कारण और उस का समाधान .....

मेरी पीड़ा का कारण और उस का समाधान .....
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मेरी पीड़ा का कारण मेरे अपने स्वयं के निज जीवन में व अपने परिवार, समाज, और राष्ट्र में चारों ओर व्याप्त असत्य रूपी घोर अंधकार है| यह बहुत अधिक पीड़ा दे रहा है| भगवान से प्रार्थना की तो अंतरात्मा से उत्तर मिला कि ..... "यह हमारे भीतर का ही अंधकार है जो बाहर व्यक्त हो रहा है| इसे दूर करने के लिए अपने 'लोभ' और 'अहंकार' से मुक्त होकर स्वयं के भीतर ही प्रकाश की वृद्धि करनी होगी, तभी बाहर का यह अन्धकार दूर होगा|"
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जहाँ तक अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से मैं समझा हूँ, इसके लिए हमें आध्यात्मिक साधना द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर स्वयं को ही ज्योतिर्मय बनना होगा| यही रामकाज है जिसके बिना कोई विश्राम नहीं हो सकता| हम स्वयं ज्योतिर्मय होंगे तो हमारा संसार भी ज्योतिर्मय होगा|
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गीता का सार उसके इस अंतिम श्लोक में है ...."यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम|" इसका अर्थ अपने आप में स्पष्ट है|
जब धनुर्धारी भगवान श्रीराम, सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण, और पिनाकपाणी देवाधिदेव महादेव स्वयं हृदय में बिराजमान हैं तब कौन सी ऐसी बाधा है जो हम पार नहीं कर सकते? हमें अपने निज जीवन की बची खुची सारी ऊर्जा एकत्र कर के "प्रबिसि नगर कीजे सब काजा हृदयँ राखि कोसलपुर राजा" करना ही होगा| तभी "गरल सुधा रिपु करहिं मिताई गोपद सिंधु अनल सितलाई" होगी| सदा सफल हनुमान जी हमारे आदर्श हैं जो कभी विफल नहीं हुए| हनुमान जी का ध्येय वाक्य हैं .... "राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम|" यही हमारा भी ध्येय वाक्य होना चाहिए| हमारा जन्म ही इस रामकाज के लिये हुआ है| हनुमान जी निरंतर रामजी के काज में लगे हुए हैं बिना विश्राम किए| हमें भी उनका अनुशरण करना होगा ..... "राम काज करिबे को आतुर", तभी हम "रामचन्द्र के काज संवारे" कर सकते हैं|
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आध्यात्म मार्ग के पथिक को निरन्तर चलते ही रहना है| उसके लिए कोई विश्राम हो ही नहीं सकता| वह अनुकूलता की प्रतीक्षा नहीं कर सकता| अनुकूलता कभी नहीं आएगी| न तो समुद्र की लहरें कभी शांत होंगी और न नदियों की चंचलता ही कभी कम होगी| यह संसार जैसे चल रहा है वैसे ही प्रकृति के नियमानुसार चलता रहेगा, न कि हमारी इच्छानुसार| कौन क्या कहता है और क्या करता है, इसका कोई महत्व नहीं है| महत्व सिर्फ इसी बात का है कि हमारे समर्पण में कितनी पूर्णता हुई है| अपनी चरम सीमा तक का प्रयास हमें करना होगा|
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हरिः ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय ||
कृपा शंकर
झुंझुनू (राजस्थान)
१० फरवरी २०२०

मेरा "धर्म" क्या है?

मेरा "धर्म" क्या है?
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हमारे प्रायः सभी धर्मग्रन्थों में धर्म को खूब अच्छी तरह से समझाया गया है, धर्म के लक्षण भी बताए गए हैं| पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण जब स्वधर्म और परधर्म की बात कहते हैं तब हम यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि हर व्यक्ति का पृथक पृथक स्वधर्म और परधर्म भी होता है| भगवान कहते हैं ....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:३५||
अर्थात् सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है||
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जहाँ तक मैं समझा हूँ यानि जहाँ तक मेरी समझ है ..... धर्म एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जो हमें परमात्मा से संयुक्त करता है|
"यथो अभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धि स धर्म"| जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि हो वही धर्म है| धर्म की यह परिभाषा कणाद ऋषि ने वैशेषिकसूत्रः में की है जो हिंदू धर्म के षड्दर्शनों में से एक है|
"जिससे हमारा सम्पूर्ण सर्वोच्च विकास और सब तरह के दुःखों/कष्टों से मुक्ति हो वही धर्म है|"
यह धर्म की सर्वमान्य हिंदू परिभाषा है| यही वास्तविकता है|
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जिसका भी ऊर्ध्वमुखी भाव है, जिस में भी परमात्मा के प्रति अहैतुकी परमप्रेम है, व उन्हें पाने की अभीप्सा है, वही धार्मिक है| सही अर्थों में वही एक सच्चा भारतीय भी है| ऐसे लोगो का समूह ही अखंड भारत है| ईश्वर ने यही भाव सम्पूर्ण सृष्टि में फैलाने के लिए भारतवर्ष को चुना है| अतः सनातन धर्म ही भारत है और भारत ही सनातन धर्म है| सनातन धर्म का विस्तार ही भारत का विस्तार है, और भारत का विस्तार ही सनातन धर्म का विस्तार है|
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सम्पूर्ण ब्रह्मांड मेरा घर है और समस्त सृष्टि मेरा परिवार| जब सारी सृष्टि साँस लेती है तब ही मेरी भी साँसें चलती हैं| समस्त सृष्टि का प्राण ही मेरा अस्तित्व है| मेरा केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं| मैं अपने प्रियतम के साथ एक हूँ, यह भाव ही मेरा स्वधर्म है, अन्य सब मेरे लिए परधर्म है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ फरवरी २०२०

कुण्डलिनी महाशक्ति .......

कुण्डलिनी महाशक्ति .......

मेरे ये शब्द प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध हैं अतः किसी को बुरा लगना भी स्वाभाविक है| कुछ बातों को समझाने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया जाता है पर वे प्रतीक ही कालान्तर में रहस्यमय हो जाते हैं| फिर कोई कोई उन पर प्रकाश डालता है वह अपने शब्दों में आकर्षण लाने के लिए उसे और भी अधिक रहस्यमय बना देता है| ऐसा ही एक शब्द है ...'कुण्डलिनी'|
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इस शब्द को इतना अधिक रहस्यमय बना दिया गया है जब कि इसमें कोई रहस्य है ही नहीं| इसे समझना बड़ा सरल है| कोई भी साधक जो नियमित ध्यान साधना करता है वह प्रत्यक्ष अनुभूति से इसे तुरंत समझ जाता है| बिना ध्यान साधना के सिर्फ बौद्धिकता से इस विषय को समझना असंभव है|
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कुछ लोग अपनी मान्यताओं के विरुद्ध कोई बात सुनते ही भड़क जाते हैं और सीधे अभद्र भाषा का प्रयोग करने लगते हैं| ऐसा नहीं होना चाहिए| यह प्रस्तुति ऐसे लोगों के लिए नहीं है| मैं जो लिख रहा हूँ वह मेरा निजी अनुभव है| कोई क्या सोचता है यह उसकी अपनी समस्या है|
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सर्वप्रथम तो मैं यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि कुण्डलिनी कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है| यह प्रकृति या मूल प्रकृति भी नहीं है| इसे सिर्फ एक "कुण्डलिनी महाशक्ति" नाम दिया गया है जो मात्र प्रतीकात्मक है| वास्तव में यह सब तरह की शक्तियों से परे बिखरी हुई प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन मात्र है| जैसे जैसे इस घनीभूत प्राण ऊर्जा का आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन होता है, वैसे वैसे चेतना का और समझ का स्तर बढ़ता जाता है| यह साधक की चेतना को अज्ञान क्षेत्र से ज्ञान क्षेत्र और उससे भी परे परा क्षेत्र में ले जाती है|
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हम कुण्डलिनी को अपने प्रयास मात्र से जागृत नहीं कर सकते, यह चेतना सिद्ध गुरु और परमात्मा के अनुग्रह से स्वयं जागृत होकर हमें ही जागृत करती है|
कुण्डलिनी से सम्बंधित सारी साधनाएँ शिष्य की पात्रता देखकर कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु परमात्मा की इच्छा से कृपा कर के शिष्य को प्रदान करता है| किसी पुस्तक को पढ़कर या किसी से सुनकर इसकी साधना नहीं की जा सकती|
यह चेतना स्वयमेव प्रभुकृपा से ही जागृत होती है| 'क्रियायोग' व इस तरह की कुछ अन्य साधनाओं से चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है|
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जब गुरु की आज्ञा से कोई साधक भ्रूमध्य पर दृष्टी स्थिर कर आज्ञा चक्र पर ध्यान करता है तब सूक्ष्म देह की बहिर्मुखी शक्तियाँ अंतर्मुखी होकर मेरुदंड के नीचे मूलाधार चक्र में प्रकट होती हैं इसकी अनुभूति प्रत्येक साधक को होती है| उसे लगता है जैसे कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| पर इसमें कोई घबराने की बात नहीं है| यह कुण्डलिनी जागरण का एक side effect है| मुख्य लक्ष्य तो भक्ति है| कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है|
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प्रभुकृपा से जैसे जैसे यह चेतना सुषुम्ना में ऊर्ध्वमुखी होकर ऊपर के चक्रों को पार करती है साधक की समझ भी विस्तृत होती जाती है| नीचे के तीन चक्रों को पार कर जब यह चेतना ह्रदय के पीछे अनाहत चक्र तक आती है तब विशुद्ध भक्ति जागृत होती है| जिसमें पूर्वजन्मों के अच्छे संस्कारों से विशुद्ध भक्ति है उसकी कुण्डलिनी पहिले से ही जागृत है|
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मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक ज्ञान क्षेत्र है, और उससे आगे परा क्षेत्र है| इससे अधिक यहाँ इस पोस्ट में लिखना एक भटकाव होगा|
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सार की बात यह है कि कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है| हमारा लक्ष्य भक्ति द्वारा प्रभु की शरणागति और समर्पण है| जब यह कुण्डलिनी चेतना आज्ञा चक्र से ऊपर उठती है तब सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं जो साधक को परमात्मा से विमुख करती हैं| उस ओर ध्यान देना ही नहीं चाहिए| ध्येय ..... भक्ति द्वारा परमात्मा की शरणागति और समर्पण ही हैं अन्य कुछ भी नहीं|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
७ फरवरी २०१६

परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है .....

परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है| सारे यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), और सारे नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान), भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं, भक्त उन के पीछे नहीं| हृदय में परम-प्रेम होने पर भगवान के सारे गुण भक्त में स्वतः खिंचे चले आते हैं| जैसे एक शक्तिशाली चुंबक लौहकणों को अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही भगवान की भक्ति सारे सदगुणों को अपनी ओर खींच लेती है| प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि भी स्वतः ही उपलब्ध हो जाती हैं| वह भूमि भी धन्य और सनाथ हो जाती है जहाँ उनके पैर पड़ते हैं| वे पृथ्वी पर चलते-फिरते देवता हैं| देवता भी उन्हें देखकर आनंदित होकर नृत्य करने लगते हैं| अपना सर्वश्रेष्ठ प्रेम परमात्मा को दें| फिर एक दिन हम पायेंगे कि कहीं कोई पृथकता नहीं है, हम भगवान के साथ एक हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२०

"अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति" भगवान का एक बहुत बड़ा आशीर्वाद और बहुत बड़ी उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं....

गीता में बताई हुई भगवान की "अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति" भगवान का एक बहुत बड़ा आशीर्वाद और बहुत बड़ी उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं....
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में जिस अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही है वह कई जन्मों की साधना के उपरांत प्राप्त होने वाली एक बहुत महान उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं| यह अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति एक क्रमिक विकास का परिणाम है, और परमात्मा को उपलब्ध होने की अंतिम सीढ़ी और उनकी परम कृपा है, जिसके उपरांत वैराग्य होना सुनिश्चित है|
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
इस भक्ति को उपलब्ध होने पर भगवान के अतिरिक्त अन्य कहीं मन नहीं लगता| भक्ति में व्यभिचार वह है जहाँ भगवान के अलावा अन्य किसी से भी प्यार हो जाता है| भगवान हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं| हम जरा से भी इधर-उधर हो जाएँ तो वे चले जाते हैं| इसे समझना थोड़ा कठिन है| हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें| सारा जगत ब्रह्ममय हो जाए| ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो| यह अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है| भगवान स्वयं कहते हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
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इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं .....
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः| निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति||२:७१||"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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व्यावहारिक व स्वभाविक रूप से यह अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति तब उपलब्ध होती है जब भगवान की परम कृपा से हमारी घनीभूत प्राण-चेतना कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर जाती है| तब लगता है कि अज्ञान क्षेत्र से निकल कर ज्ञान क्षेत्र में हम आ गए हैं| सहस्त्रार से भी परे ब्रह्मरंध्र का भेदन करने पर अन्य उच्चतर लोकों की और उनसे भी परे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं| फिर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय .... एक ही हो जाते हैं| उस स्थिति में हम कह सकते हैं .... "शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि"| फिर कोई अन्य नहीं रह जाता और हम स्वयं ही अनन्य हो जाते हैं|
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भगवान वासुदेव की अनंत कृपा सभी पर बनी रहे|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२०

धर्म और राष्ट्र की रक्षा हमारा सर्वोपरि दायित्व है .....

धर्म और राष्ट्र की रक्षा हमारा सर्वोपरि दायित्व है .....
सारे उपदेश तभी तक सार्थक हैं जब तक परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति न हो जाये| एक बार उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाये तो उन्हीं की शरणागत होकर उन्हीं में समर्पित हो जाना चाहिए| फिर कोई कर्तव्य नहीं रहता| तब तक अपना साधन-भजन नहीं छोडना चाहिए| गीता पाठ, गायत्री जप, प्राणायाम, ध्यान, मंत्रजप आदि का अपनी अपनी गुरु-परंपरानुसार नित्य नियमित अभ्यास अवश्य करना चाहिए|
समाज और राष्ट्र का ऋण हमारे ऊपर है| राष्ट्र है, तभी हम है, तभी हमारा धर्म और हमारा अस्तित्व है| अतः राष्ट्रहित में अपने सभी कर्म करने चाहियें| परमात्मा की व धर्म की सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारतवर्ष में ही हुई है| जो हमें परमात्मा का साक्षात्कार करवा सकता है वह सनातन धर्म है| अतः धर्म और राष्ट्र की रक्षा हमारा सर्वोपरि दायित्व है| सनातन धर्म ही हमारी राजनीति हो| ॐ तत्सत् ||
५ फरवरी २०२० 

गीता के निम्न १४ श्लोकों का अर्थ सहित नित्य पाठ, मनन और ध्यान ..... किसी भी श्रद्धालु का परम कल्याण कर सकता है :---

एक महान संत के अनुसार गीता के निम्न १४ श्लोकों का अर्थ सहित नित्य पाठ, मनन और ध्यान ..... किसी भी श्रद्धालु का परम कल्याण कर सकता है :---
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"तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्ितर्विशिष्यते| प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः||७:१७||"
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं यातिपार्थानुचिन्तयन्||८:८||"
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्| कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च||१०:९||"
"ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः| अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते||१२:६||"
"तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्| भवामि नचिरात् पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्||१२:७||"
"मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय| निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः||१२:८||"
मां च योऽव्यभिचारेण भक्ितयोगेन सेवते| स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते||१४:२६||"
"चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः| बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव||१८:५७||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"