Thursday 13 February 2020

"अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति" भगवान का एक बहुत बड़ा आशीर्वाद और बहुत बड़ी उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं....

गीता में बताई हुई भगवान की "अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति" भगवान का एक बहुत बड़ा आशीर्वाद और बहुत बड़ी उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं....
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में जिस अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही है वह कई जन्मों की साधना के उपरांत प्राप्त होने वाली एक बहुत महान उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं| यह अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति एक क्रमिक विकास का परिणाम है, और परमात्मा को उपलब्ध होने की अंतिम सीढ़ी और उनकी परम कृपा है, जिसके उपरांत वैराग्य होना सुनिश्चित है|
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
इस भक्ति को उपलब्ध होने पर भगवान के अतिरिक्त अन्य कहीं मन नहीं लगता| भक्ति में व्यभिचार वह है जहाँ भगवान के अलावा अन्य किसी से भी प्यार हो जाता है| भगवान हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं| हम जरा से भी इधर-उधर हो जाएँ तो वे चले जाते हैं| इसे समझना थोड़ा कठिन है| हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें| सारा जगत ब्रह्ममय हो जाए| ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो| यह अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है| भगवान स्वयं कहते हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
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इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं .....
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः| निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति||२:७१||"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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व्यावहारिक व स्वभाविक रूप से यह अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति तब उपलब्ध होती है जब भगवान की परम कृपा से हमारी घनीभूत प्राण-चेतना कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर जाती है| तब लगता है कि अज्ञान क्षेत्र से निकल कर ज्ञान क्षेत्र में हम आ गए हैं| सहस्त्रार से भी परे ब्रह्मरंध्र का भेदन करने पर अन्य उच्चतर लोकों की और उनसे भी परे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं| फिर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय .... एक ही हो जाते हैं| उस स्थिति में हम कह सकते हैं .... "शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि"| फिर कोई अन्य नहीं रह जाता और हम स्वयं ही अनन्य हो जाते हैं|
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भगवान वासुदेव की अनंत कृपा सभी पर बनी रहे|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२०

2 comments:

  1. गीता से मुझे क्या प्रेरणा मिलती है? .....

    गीता में कर्म, भक्ति और ज्ञान .... ये तीन विषय हैं जिन्होंने पूरे आध्यात्म को समाहित कर लिया है| मुझे तो इसमें भक्ति और ज्ञान ही समझ में आते हैं| कुछ भी अन्य समझ में नहीं आता| अन्य कुछ समझने की क्षमता भी नहीं है| अब तो भक्ति के अलावा अन्य कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता| निश्चय कर परमात्मा में पूर्ण समर्पण, पूर्ण समर्पण, और पूर्ण समर्पण ..... बस यही भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण का संदेश है जिस से प्रेरणा और शक्ति मिलती है|

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  2. धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली, गोपी पीन पयोधर मर्दन चञ्चल कर युगशाली
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    रतिसुखसारे गतमभिसारे मदनमनोहरवेशम् ।
    न कुरु नितम्बिनि गमनविलम्बनमनुसर तं हृदयेशम् ॥
    धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली
    गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली ॥ १॥

    नाम समेतं कृतसंकेतं वादयते मृदुवेणुम् ।
    बहु मनुते ननु ते तनुसंगतपवनचलितमपि रेणुम् ॥ २॥ धीरसमीरे

    पतति पतत्रे विचलति पत्रे शङ्कितभवदुपयानम् ।
    रचयति शयनं सचकितनयनं पश्यति तव पन्थानम् ॥ ३॥ धीरसमीरे

    मुखरमधीरं त्यज मञ्जीरं रिपुमिव केलिसुलोलम् ।
    चल सखि कुञ्जं सतिमिरपुञ्जं शीलय नीलनिचोलम् ॥ ४॥ धीरसमीरे

    उरसि मुरारेरुपहितहारे घन इव तरलबलाके ।
    तडिदिव पीते रतिविपरीते राजसि सुकृतविपाके ॥ ५॥ धीरसमीरे

    विगलितवसनं परिहृतरसनं घटय जघनमपिधानम् ।
    किसलयशयने पङ्कजनयने निधिमिव हर्षनिदानम् ॥ ६॥ धीरसमीरे

    हरिरभिमानी रजनिरिदानीमियमपि याति विरामम् ।
    कुरु मम वचनं सत्वररचनं पूरय मधुरिपुकामम् ॥ ७॥ धीरसमीरे

    श्रीजयदेवे कृतहरिसेवे भणति परमरमणीयम् ।
    प्रमुदितहृदयं हरिमतिसदयं नमत सुकृतकमनीयम् ॥ ८॥

    (महाकवि जयदेव की अष्टपदी से संगृहित)

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