Sunday 2 October 2016

महिषासुर और रावण कहीं बाहर नहीं है, हमारे भीतर ही छिपे हैं .....

महिषासुर और रावण कहीं बाहर नहीं है, हमारे भीतर ही छिपे हैं .....
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महिषासुर और रावण कहीं बाहर नहीं है, वे हमारे भीतर ही छिपे हैं| मुझे उनकी भयावह हँसी और अट्टहास नित्य सुनाई देते हैं|
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असली महिषासुर भी भीतर ही छिपा है, और असली रावण भी हमारे भीतर ही है|
महिषासुर है .....हमारा आलस्य और दीर्घसूत्रता|
रावण है ..... वासनाओं का चिंतन और अहंकार| यही सब बुराइयों का कारण है|
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अपने अंतर में राम-तत्व को जागृत कर के ही हम अपने इन शत्रुओं का वध कर सकते हैं| हमें अपने चित्त में अहैतुकी परम प्रेम यानि भक्ति को जागृत कर के जगन्माता के श्रीचरणों में अपने अस्तित्व का सम्पूर्ण समर्पण करना होगा| तभी हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति होगी और तभी हमारे में श्रीराम जागृत होंगे|
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श्रीराम ..... सच्चिदानंद ब्रह्म हैं जिनमें समस्त योगी और भक्त सदैव रमण करते हैं|
राम ..... ज्ञान स्वरूप हैं,
सीताजी ..... भक्ति हैं, और
अयोध्या ..... हमारा ह्रदय है|
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राम को पाने के लिए हमें जगन्माता सीता जी का आश्रय लेना ही होगा, अर्थात अहैतुकी परमप्रेम जागृत कर अहंभाव का सम्पूर्ण समर्पण करना ही होगा|
तभी इस महिषासुर और रावण का नाश होगा|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!

हम कितने भाग्यशाली हैं !!! .......

हम कितने भाग्यशाली हैं !!! .......
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हम कितने भाग्यशाली हैं कि अब तो साक्षात परमात्मा ही हमें याद करने लगे हैं|
मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देष्य प्रभु को समर्पण ही है| संसार सागर से पार जाने के लिए अपने आप को भगवान को समर्पित कर देने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है| भवसागर को भी बिना दैवीय सहायता के पार करना असम्भव है| माया इतनी प्रबल है कि उसके समक्ष समस्त मानवीय प्रयास विफल हो जाते हैं| हम झूठा बहाना बनाते हैं कि ....हमें फुर्सत नहीं है| पर जब तक साँस लेने की फुर्सत है तब तक प्रभु का स्मरण करने की भी फुर्सत ही है|
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निश्चय कर संकल्प सहित अपने आप को परमात्मा के हाथों में सौंप दो| जहाँ हम विफल हो जाएँगे, वहाँ वह हाथ थाम लेगा|
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भगवान की यह प्रतिज्ञा है ..... "अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।"
अपने भक्त का यदि वे मेरा स्मरण न कर सकें तो मैं स्वयं ही उनका स्मरण करता हूँ और उन्हे परम गति प्राप्त करा देता हूँ|
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हमें भगवान के वाचक ॐ या अन्य किसी भी नाम का आश्रय लेकर निरंतर उनका स्मरण करना चाहिए|
श्रुति भगवती की आज्ञा है कि प्रणव यानि ओंकार रूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य को प्रमादरहित होकर भेदना चाहिए|
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् || --मुण्डक,2/2/4
जैसे बाण का एक ही लक्ष्य होता है वैसे ही हम सबका लक्ष्य परमात्मा ही होना चाहिए।
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हे प्रभु ! मेरी हिमालय से भी बड़ी बड़ी भूलें ---- आप के कृपा सिन्धु में एक कंकर पत्थर से अधिक नहीं हैं| हे प्रभु ! मैं तो सर्वथा असमर्थ हूं, आप मेरा इस संसार सागर से उद्धार कर दीजिये| अब और अधिक रहा नहीं जा रहा है| त्राहिमाम् त्रहिमाम् |.
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अब आप ही कर्ता हैं, आप के ही हाथों में इस जीवन की पतवार है| आप ही मेरे कर्णधार हैं| सब कुछ आपको अर्पित है| न कोई साधक है, न साध्य है और न कोई साधना है| बस आप ही आप हैं, अन्य कुछ भी नहीं है| आप ही मुझे पकड़ कर संभालिये|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

कौन माँगे ? किससे माँगे ? क्या माँगे ? .........

कौन माँगे ? किससे माँगे ? क्या माँगे ? .........
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एक अथाह, अनंत, असीम और अति विराट महासागर में ...........
मैं एक लहर की बूँद मात्र हूँ |
महासागर की एक बूँद और लहर, महासागर से माँग ही क्या सकती है ?
और महासागर एक बूँद और लहर को दे ही क्या सकता है ?
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जो रुपये पैसे माँगते हैं, उनमें और आशीर्वाद, मोक्ष व मुक्ति माँगने वालों में क्या कोई अंतर है?
सभी भिखारी ही हैं| कुछ भी माँगना स्वयं में निहित देवत्व का क्या अपमान नहीं है?
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पुष्प की सार्थकता उसके खिलने में है, चाहे वह बगीचे में हो या वन में|
पुष्प कभी यह अपेक्षा नहीं करता कि कोई उसके सौन्दर्य को निहारे या उसकी सुगंधी का आनंद ले| पर प्रकृति उसे निहार कर नृत्य करती है और परमात्मा भी उसमें व्यक्त होकर प्रसन्न होते हैं|
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वैसे ही जल की एक बूँद और लहर मात्र समर्पण ही कर सकती है| उनका समर्पण ही सार्थकता है|
महासागर भी उस बूँद को अपने मैं मिलाकर उसे महासागर ही बना देता है|
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वैसे ही जीवात्मा स्वयं को समर्पित कर शिवत्व को प्राप्त हो जाती है| सपर्पित होकर जीव शिव बन जाता है, और आत्मा परमात्मा बन जाती है|
और क्या चाहिए ?????
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

मन को नियंत्रित कैसे करें .......एक अनुभव ......

मन को नियंत्रित कैसे करें .......एक अनुभव ......
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हम मन को नियंत्रित करने की बात करते हैं, पर हमारा मन और भी अधिक अनियंत्रित हो जाता है| अनेक लोग व अनेक संस्थाएँ हमें मन को नियंत्रित करने की कला सिखाने नाम पर हमारा शोषण करती हैं| अपना धन और समय लुटाकर भी हम मन को अनियंत्रित ही पाते हैं|.
एक बात ध्यान से सुन लें कि जब तक हमारे मन में कामनाएँ हैं तब तक मन कभी नियंत्रित हो ही नहीं सकता, चाहे कितना भी प्रयास कर लें|
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कामनाओं को नष्ट करने का एकमात्र उपाय है ...... प्रभु से प्रेम और निरंतर नाम-स्मरण| अन्य कोई उपाय नहीं है| इसके लिए ह्रदय में भक्ति जागृत करनी होगी| जब परमात्मा निरंतर हृदय में होंगे तव सारी कामनाएँ तिरोहित हो जाएँगी|
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कई जन्मों के बहुत ही अच्छे कर्म जब संचित होते हैं तब व्यक्ति में परमात्मा को पाने व जानने की इच्छा उत्पन्न होती है और परमात्मा से व उसकी सृष्टि से अहैतुकी प्रेम हो जाता है| और भी अधिक अच्छे कर्म हों तो व्यक्ति स्वयं ही प्रेममय हो जाता है|
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भक्ति सूत्रों में नारद जी ने इस परम प्रेम को ही भक्ति कहा है|
यह कोई एक जन्म की उपलब्धि नहीं है| यह बहुत सारे जन्मों में किये हुए बहुत ही अच्छे कर्मों का फल है| एक जन्म में कोई भक्त नहीं बन सकता| हाँ, यदि उसमें पूर्वजन्मों के अच्छे संस्कार हैं तो सत्संग से भक्ति जागृत हो जाती है|
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यह भक्ति ही आध्यात्म और ज्ञान को जन्म देती है| आध्यात्मिक और ज्ञानी वही बन सकता है जिसमें परम प्रेम यानि भक्ति हो| भक्ति माता है और अन्य सब गुण उसके पुत्र हैं| बिना भक्ति के मन पर नियंत्रण नहीं हो सकता|
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धन्य हैं ऐसे व्यक्ति, धन्य हैं उनके माता-पिता और धन्य है ऐसा परिवार और कुल जहाँ ऐसी भक्त आत्माएँ जन्म लेती हैं|
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हे जगन्माता, भारतवर्ष में सिर्फ भक्त, वीर और दानियों को ही जन्म दो|
ॐ ॐ ॐ ||

आत्म-तत्व में स्थित होना ही वास्तविक साधना और साध्य है .....

आत्म-तत्व में स्थित होना ही वास्तविक साधना और साध्य है .....
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परमात्मा से एक क्षण के लिए भी पृथक होना महाकष्टमय मृत्यु है| वास्तविक महत्व इस बात का है कि हम क्या हैं| सच्चिदान्द परमात्मा सदैव हैं, परन्तु साथ साथ जीवभाव रूपी मायावी आवरण भी लिपटा है| उस मायावी आवरण के हटते ही सच्चिदानन्द परमात्मा भगवान परमशिव व्यक्त हो जाते हैं| सच्चिदानन्द से भिन्न जो कुछ भी है उसे दूर करना ही आत्म-तत्व यानि पूर्णता यानि सच्चिदानंद की अभिव्यक्ति और वास्तविक साधना है| इस साधना में अन्य सब साधनाएं आ जाती हैं|
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अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित होना ही साक्षात्कार है, उपासना और भक्ति ही मार्ग है| जब परमात्मा के प्रति प्रेम हमारा स्वभाव हो जाए तो लगना चाहिए कि हम सही मार्ग पर हैं| परमात्मा के प्रति सहज प्रेम ही हमारा वास्तविक स्वभाव है|
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कर्ता भाव को सदा के लिए समाप्त करना है| वास्तविक कर्ता तो परमात्मा ही हैं| कर्ताभाव सबसे बड़ी बाधा है| अतः सब कुछ यहाँ तक कि निज अस्तित्व भी परमात्मा को समर्पित हो| यह समर्पण ही साध्य है, यही साधना है और यही आत्म-तत्व में स्थिति है| इसके लिए वैराग्य और अभ्यास आवश्यक है| जो भी बाधा आती है उसे दूर करना है| अमानित्व, अदम्भित्व और परम प्रेम ये एक साधक के लक्षण हैं| हम जो कुछ भी है, जो भी अच्छाई हमारे में है, वह हमारी नहीं अपितु परमात्मा की ही महिमा है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!