Sunday 2 October 2016

हम कितने भाग्यशाली हैं !!! .......

हम कितने भाग्यशाली हैं !!! .......
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हम कितने भाग्यशाली हैं कि अब तो साक्षात परमात्मा ही हमें याद करने लगे हैं|
मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देष्य प्रभु को समर्पण ही है| संसार सागर से पार जाने के लिए अपने आप को भगवान को समर्पित कर देने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है| भवसागर को भी बिना दैवीय सहायता के पार करना असम्भव है| माया इतनी प्रबल है कि उसके समक्ष समस्त मानवीय प्रयास विफल हो जाते हैं| हम झूठा बहाना बनाते हैं कि ....हमें फुर्सत नहीं है| पर जब तक साँस लेने की फुर्सत है तब तक प्रभु का स्मरण करने की भी फुर्सत ही है|
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निश्चय कर संकल्प सहित अपने आप को परमात्मा के हाथों में सौंप दो| जहाँ हम विफल हो जाएँगे, वहाँ वह हाथ थाम लेगा|
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भगवान की यह प्रतिज्ञा है ..... "अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।"
अपने भक्त का यदि वे मेरा स्मरण न कर सकें तो मैं स्वयं ही उनका स्मरण करता हूँ और उन्हे परम गति प्राप्त करा देता हूँ|
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हमें भगवान के वाचक ॐ या अन्य किसी भी नाम का आश्रय लेकर निरंतर उनका स्मरण करना चाहिए|
श्रुति भगवती की आज्ञा है कि प्रणव यानि ओंकार रूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य को प्रमादरहित होकर भेदना चाहिए|
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् || --मुण्डक,2/2/4
जैसे बाण का एक ही लक्ष्य होता है वैसे ही हम सबका लक्ष्य परमात्मा ही होना चाहिए।
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हे प्रभु ! मेरी हिमालय से भी बड़ी बड़ी भूलें ---- आप के कृपा सिन्धु में एक कंकर पत्थर से अधिक नहीं हैं| हे प्रभु ! मैं तो सर्वथा असमर्थ हूं, आप मेरा इस संसार सागर से उद्धार कर दीजिये| अब और अधिक रहा नहीं जा रहा है| त्राहिमाम् त्रहिमाम् |.
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अब आप ही कर्ता हैं, आप के ही हाथों में इस जीवन की पतवार है| आप ही मेरे कर्णधार हैं| सब कुछ आपको अर्पित है| न कोई साधक है, न साध्य है और न कोई साधना है| बस आप ही आप हैं, अन्य कुछ भी नहीं है| आप ही मुझे पकड़ कर संभालिये|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

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