Monday, 12 March 2018

सत्संग, गुरु-सेवा व गुरु-शिष्य कौन .....

सत्संग, गुरु-सेवा व गुरु-शिष्य कौन .....
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गुरु की प्रशंसा में हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं, पर गुरु हैं कौन?
कौन गुरु की पात्रता रखता है?
कैसे गुरु को पहिचानें और गुरु की आवश्यकता क्या है?
शिष्य की पात्रता क्या है? आदि आदि|
इन सब पर विचार करना आवश्यक है क्योंकि गुरुवाद के नाम पर आजकल गोरखधंधा भी खूब चल रहा है| दिखावटी गुरु बनकर चेले मूँड कर उनका शोषण करना आजकल खूब सामान्य व्यवसाय हो चला है|
वैसे ही फर्जी चेला बनना भी एक व्यवसाय हो गया है|
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'शिष्यत्व' एक पात्रता है| जब वह पात्रता होती है तब सद्गुरु स्वयं चले आते हैं| सद्गुरु को कहीं ढूँढना नहीं पड़ता| सबसे महत्वपूर्ण है शिष्यत्व की पात्रता|
वह पात्रता है ..... परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम और उसे पाने की तड़प, और एक अदम्य अभीप्सा| जब वह अभीप्सा होती है तब प्रभु एक सद्गुरु के रूप में निश्चित तौर से आते हैं|
वे शिष्य के ह्रदय में यह बोध भी करा देते हैं की मैं आ गया हूँ| एक निष्ठावान शिष्य कभी धोखा नहीं खाता|
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जब आप प्रभु को ठगना चाहते हैं तो प्रभु भी एक ठग गुरु बन कर आते हैं, और आपका सब कुछ हर कर ले जाते हैं|
प्रभु किसी महापुरुष या महात्मा (जो आत्मा महत् तत्व से जुडी हो) के रूप में आते हैं और साधक मुमुक्षु को दिव्य पथ पर अग्रसर कर देते हैं| यही दीक्षा है|
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गुरु शिष्य का मंगल और कल्याण ही चाहते हैं|
" मीङ्गतौ " धातु से " मङ्गल " शब्द बनता है , जिसका अर्थ होता है "आगे बढ़ना"| आगे तो शिष्य को ही बढना पड़ता है| जब आगे बढने की कामना और प्रयास ही नहीं होता तब शिष्य भी अपनी पात्रता खो देता है और गुरु का वरदहस्त उस पर और नहीं रहता|
"कल्याण" शब्द का भी यही अर्थ है संस्कृत में "कल्य" का अर्थ होता है "प्रातःकाल" | इसलिए कल्याण का तात्पर्य यह है कि जीवन में " नवप्रभात " आये|
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गुरु तो एक निश्चित भावभूमि पर अग्रसर कर शिष्य को छोड़ देता है, फिर आगे की यात्रा तो शिष्य को स्वयं ही करनी पडती है| वहाँ प्रभु 'कूटस्थ' रूप में हमारे गुरु होते हैं| 'कूटस्थ' का अर्थ है -- जो सर्वत्र है पर कहीं भी नहीं प्रतीत होता है, छिपा हुआ है|
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योग साधक ---- ध्यान में भ्रूमध्य और उससे ऊपर दिखाई देने वाली सर्वव्यापक ज्योति और ध्यान में ही सुनाई देने वाली अनहद नाद रूपी प्रणव ध्वनी पर ध्यान करते हैं, और जब उनकी चेतना विस्तृत होकर सर्वव्यापकता को निरंतर अनुभूत करती है उसे कूटस्थ चैतन्य कहते हैं| उस सर्वव्यापकता को कूटस्थ ब्रह्म मानते हैं| कूटस्थ ही वास्तविक गुरु है जो दिव्य ज्योति और प्रणव रूप में निरंतर प्रेरणा और मार्गदर्शन देता रहता है| मेरे विचार से और मेरी अल्प व सीमित बुद्धि से गुरु वही बन सकता है जिसे ईश्वर द्वारा गुरु बनने की प्रेरणा प्राप्त हो, जो निरंतर ब्राह्मी स्थिति कूटस्थ चैतन्य में हो|
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गुरु सेवा का अर्थ है ----- ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु के द्वारा बताए हुए मार्ग पर सतत चलना| आपकी साधना में कोई कमी रह जाती है तब गुरु उस कमी का शोधन कर उसे दूर कर देते हैं|
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गुरु आध्यात्मिक मार्गदर्शक होता है वह किसी के निजी जीवन में दखल नहीं देता| जिस के संग में हमारे मन की चंचलता समाप्त हो, मन शांत हो, और जिसके संग से परमात्मा की चेतना निरंतर जागृत रहे वही गुरु पद का अधिकारी हो सकता है| गुरु जिस देह रूपी वाहन से अपनी लोक यात्रा कर रहे हों उसका ध्यान रखना भी गुरु सेवा का एक भाग है पर मुख्य बात है कि उनके संग से आपकी परमात्मा में स्थिति हो रही है या नहीं|
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यदि गुरु की सेवा भी परमार्थ के ज्ञान में, अपने अद्वैत - अखण्ड की अनुभूति में बाधक होती हो तो उनको भी छोड़ देना चाहिए --- न गुरुः और न शिष्यः।
जब परमार्थ में स्थिति हो जाये तब गुरु - शिष्य का शारीरिक सम्बन्ध भी नहीं रहना चाहिये। यह बहुत विलक्षण बात है| गुरु साधनरूप हैं साध्य नहीं| उनकी हाड-मांस की देह गुरु नहीं हो सकती|
गुरु तो उनकी चेतना है|
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"कूटस्थ" शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है| यह भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त बड़ा सुन्दर और गहन अर्थों वाला शब्द है|
सुनार सोने को आकृति देने के लिए जिस पर रख कर छोटी हथौड़ी से पीटता है उसे भी 'कूट' कहते हैं, और इस प्रक्रिया को 'कूटना' कहते हैं|
'कूट' का अर्थ छिपा हुआ भी है| जो सर्वत्र व्याप्त है और कहीं दिखाई नहीं देता उसे 'कूटस्थ' कहते हैं| भगवान 'कूटस्थ' हैं अतः गुरु भी 'कूटस्थ' है|
योगियों के लिए भ्रूमध्य में अवधान 'कूटस्थ' है|
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निरंतर ज्योतिर्मयब्रह्म के आज्ञाचक्र और सहस्त्रार में दर्शन, और नादब्रह्म का निरंतर श्रवण --- 'कूटस्थ चैतन्य' है|
ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन एक पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के रूप में होते हैं, वह पंचमुखी महादेव हैं| उस श्वेत नक्षत्र के चारों ओर का नीला आवरण 'कृष्णचैतन्य' है| उस नीले आवरण के चारों ओर की स्वर्णिम आभा 'ओंकार' यानि प्रणव है जिससे समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है| \
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उस श्वेत नक्षत्र का भेदन कर योगी परमात्मा से एकाकार हो जाता है| तब वह कह सकता है ------ 'शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि'| यही परमात्मा की प्राप्ति है|
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कूटस्थ ही हमारा घर है, कूटस्थ ही हमारा आश्रम है और कूटस्थ ही हमारा अस्तित्व है|
दरिया साहेब का एक बड़ा सुन्दर पद्य है ---
"जाति हमारी ब्रह्म है, माता पिता हैं राम| गृह हमारा शुन्य में, अनहद में विश्राम||"
कौन तो गुरु है और कौन शिष्य ? सब कुछ तो परमात्मा है जो हम स्वयं हैं|
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गुरु बनना महापुरुषों का काम है, साधकों का नहीं| किसी साधक का गुरु बनना उसके पतन का हेतु है|
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आज के युग की स्थिति बड़ी विचित्र है| चेले सोचते हैं की कब गुरु मरे और उसकी सम्पत्ति हाथ लगे| कई बार तो चेले ही गुरु को मरवा देते हैं| गुरु के मरने पर कई बार तो चेलों में खूनी संघर्ष भी हो जाता है| व्यवहारिक रूप से इस तरह की अनेक घटनाओं को सुना व देखा है| अतः इन पचड़ों में न पड़कर भगवान की निरंतर भक्ति में लगे रहना ही अच्छा है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१३ मार्च 2014

हम हर प्रकार की मानसिक दासता से मुक्त हों .....

हम हर प्रकार की मानसिक दासता से मुक्त हों .....
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हम किसी भी समाचार पत्र, दूरदर्शन, पत्रिकाओं और पुस्तकों में व्यक्त विचारों, व मिलने जुलने वाले व्यक्तियों की सोच से प्रभावित ना हों|
हमारे विचार स्वतंत्र हों और निज विवेक पर आधारित हों|
जहाँ बुद्धि काम नहीं करती वहाँ शास्त्र प्रमाण हैं|
हम यह सीमित देह नहीं हैं|
सारे ब्रह्मांड से भी बड़ी हमारी चेतना और अस्तित्व है|
ये सब चाँद, तारे, ग्रह, नक्षत्र और आकाशगंगाएँ हमारी ही देह के भाग हैं| समस्त सृष्टि और परमात्मा की अनंतता ही हमारा घर है| सब प्राणी हमारा ही परिवार हैं|
भगवान परमशिव ही हमारी गति हैं|
वे लोग बहुत भाग्यशाली हैं जो भगवान से प्रेम करते करते स्वयं प्रेममय हो जाते हैं|
इस परमप्रेम की परिणिति ही आनंद है|
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यह विराटता, सर्वव्यापकता और सम्पूर्णता ही परमब्रह्म परमशिव का स्वरुप है| यही हमारा वास्तविक घर और अस्तित्व है| यही हमारी वास्तविक देह है| कहाँ हम अपने तुच्छ अहंकार और ममत्व में फँसे हैं? प्रभु की इस अनंत विराटता में प्रेममय समर्पण ही परमात्मा से साक्षात्कार है|

हे परमशिव, मैं आपका अमृतपुत्र हूँ, मुझे अपने साथ एक करो, मैं आपसे पृथक नहीं, आप और मैं एक हैं| आप ही मेरी गति हैं| मेरा कोई अस्तित्व नहीं, मैं नहीं, आप ही आप हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ मार्च २०१५

अज्ञानता का नाश कैसे हो ? ......

अज्ञानता का नाश कैसे हो ? ......
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परमात्मा का ज्ञान न होना ही वास्तविक अज्ञान है| यह अज्ञान ही सब बुराइयों कि जड़ है| इस अज्ञान के कारण ही मनुष्य में कामनाएँ, लोभ और क्रोध का जन्म होता है| ये तीनों ही महादोष हैं जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण ने नर्क का द्वार कहा है ....
"त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः| कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत्||"
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क्रोध का कारण ... कामना और लोभ की पूर्ति का न होना है| अब प्रश्न यह उठता है कि कामना और लोभ से कैसे मुक्त हुआ जाए| ये दोनों ही सब समस्याओं कि जड़ हैं|
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अगला प्रश्न यह उठता है कि नर्क और स्वर्ग क्या हैं? इसका उत्तर अति कठिन है| हरेक व्यक्ति अपनी अपनी सामर्थ्यानुसार ही इसे समझता है| सबकी अपनी अपनी समझ है, अतः इस विषय पर चर्चा नहीं करूँगा| मुख्य प्रश्न है ..... अज्ञानता का नाश कैसे हो?
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इस पर विचार और इसका निर्णय भी मैं प्रबुद्ध पाठकों पर छोड़ता हूँ| आप सब से अनुरोध है कि इस पर विचार अवश्य करें और किसी ना किसी निर्णय पर अवश्य पहुंचें|
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एक बार ब्रह्मा जी के पास देवता, दानव और मनुष्य गये और उपदेश देने कि प्रार्थना की|
ब्रह्मा जी ने तीनों को कहा .... " द द द " | तीनों प्रसन्न होकर चले गये|
देवताओं ने इसका अर्थ लगाया कि हम भोगी लोगों को 'दमन' यानि इन्द्रियों और मन का दमन करना चाहिए|
दानवों ने इसका अर्थ लगाया कि हम क्रूर लोगों को 'दया' करनी चाहिए|
मनुष्यों ने इसका अर्थ लगाया कि हम लोभी लोगों को 'दान' करना चाहिए|
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मनुष्यों में ही देव, दानव और मानव इन तीनों कि वृत्तियाँ हैं| जिस अवगुण से हम छुटकारा पाना चाहते हैं, उससे विपरीत गुणों का हमें निरंतर चिंतन करना पडेगा| विरोधी धर्मोँ का अभ्यास करने से ही ये अवगुण छूटते हैं| इसके लिए साधना करनी पडती है| जब इसका बोध हो जाएगा कि हम यह देह नहीं अपितु शाश्वत आत्मा हैं तब देह के सुख की कामना और लोभ नहीं रहेगा|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ मार्च २०१६

पुरुषार्थ .....

पुरुषार्थ .....
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सामान्यतः हम परिश्रमपूर्वक किये गए किसी कार्य को पुरुषार्थ कहते हैं| हमारे शास्त्रों में .... धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष .... ये चार पुरुषार्थ बताये गए हैं|
पर जहाँ तक मेरी समझ में आया है ....पुरुष शब्द का अर्थ है ... जो पुर यानि हम सब के अन्तस्थ में स्थित है (या शयन कर रहा है) .... यानि परमात्मा|
परमात्मा हम सब के भीतर है अतः परमात्मा ही एकमात्र पुरुष है, और उसको पाने का पूर्ण प्रयास ही पुरुषार्थ है, जिसकी सिद्धि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में होती है|
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शास्त्रों में पुरुषार्थ से भ्रष्ट हो जाने वाले को .... आत्महंता ... कहा गया है| आत्मा को पुरुषार्थ की ओर प्रवृत्त न करना आत्मा का हनन है यानि आत्मा की ह्त्या है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ मार्च २०१६

खाटूश्यामजी का मेला ---

खाटूश्यामजी का मेला ...,
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राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में भरने वाले अनेक प्रसिद्ध मेलों में ये तीन मेले तो पूरे भारत में प्रसिद्ध हैं .... खाटूश्यामजी, सालासर बालाजी और राणी सती जी|
इनमें पूरे भारत से हज़ारों श्रद्धालु आते हैं|
खाटूश्याम जी का मेला इस वर्ष 20 मार्च तक का है| अभी से हज़ारों श्रद्धालु पदयात्री हाथों में ध्वजरूपी निशान लिए खाटू मार्ग पर अग्रसर हैं, इनकी संख्या शीघ्र ही लाखों में पहुँच जायेगी| मेला वैसे तो 15 मार्च से आरम्भ होगा पर अभी से लगभग आरम्भ हो ही चुका है| एकादशी वाले दिन यानि 19 मार्च को तो पैर रखने को भी स्थान नहीं मिलेगा| क्षेत्र कि सारी धर्मशालाएं और अतिथि भवन भर चुके हैं| रात्रि जागरण और भजन-कीर्तन खूब हो रहे हैं|
यह मेला भक्ति भाव को ही नहीं बल्कि इस क्षेत्र के विभिन्न लोकनृत्यों, संगीत तथा कलाओं को भी प्रदर्शित करता हे|
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भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित खाटूश्यामजी का मंदिर ..... सीकर से 65कि.मी. दूर खाटू गाँव में स्थित है| इसका इतिहास महाभारत कालीन है|
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इतिहासकार पंडित झाबरमल्ल शर्मा के अनुसार सन् 1679 में औरंगजेब की सेना ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया था| इस मंदिर की रक्षा के लिए उस समय अनेक राजपूतों ने अपना प्राणोत्सर्ग किया था|
उसके बाद एक बार फिर मुग़ल बादशाह फर्रूखशीयर ने अपनी मुग़ल सेना को लेकर मंदिर को ध्वस्त किया था जिसका वर्णन कुछ वर्षों पूर्व 'राजस्थान पत्रिका' नामक समाचार पत्र में 'नगर परिक्रमा' शीर्षक के अंतर्गत छपे स्तम्भ के अनेक लेखों में विस्तृत रूप से छपा था| पर वह कहीं भी पुस्तक के रूप में आज तक नहीं छपा है| इस युद्ध में राजपूत सेनाओं के साथ ब्राह्मणों ने भी शस्त्र उठाये और युद्ध किया था| मंदिर के महंत मंगलदास और उनके सेवक सुन्दरदास भंडारी के सर कट गए पर उनके धड मुग़ल सेनाओं से लड़ते रहे जिनका विकराल रूप देखकर मुग़ल सेना भाग खडी हुई| फर्रूखशीयर ने उन धडों से स्वयं को गाफिल बताते हुए माफी मांगी तब जाकर वे धड शांत हुए|
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राजस्थान की संस्कृति और भक्ति इस मेले में जीवंत हो उठती है| लाखों श्रद्धालुओं का भक्तिभाव देखना हो यह मेला अवश्य देखना चाहिए| जय श्रीश्याम !
१३ मार्च २०१६

(Amended/Re-posted). आज और कल खाटू श्याम जी (जिला सीकर, राजस्थान) का मेला है। लाखों श्रद्धालू तो पहुँच गए हैं, लाखों और आ रहे हैं। जिधर देखो उधर ही हर मार्ग पर ध्वज लिए श्रद्धालु खाटू नगर की ओर बढ़ रहे हैं। आस्था का ज्वार उमड़ रहा है। आसपास के अन्य श्रद्धा केन्द्रों -- शाकम्भरी माता, जीण माता, सालासर बालाजी, और राणी सती जी मंदिर, आदि पर भी भीड़ बढने लगी है| श्रद्धालुओं की आस्था को नमन !
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क्षेत्र कि सारी धर्मशालाएं और अतिथि भवन भर चुके हैं। रात्रि-जागरण और भजन-कीर्तन खूब हो रहे हैं। यह मेला भक्ति-भाव को ही नहीं, बल्कि इस क्षेत्र के विभिन्न लोकनृत्यों, संगीत तथा कलाओं को भी प्रदर्शित करता हे। भगवान श्रीकृष्ण और उनके परम भक्त बर्बरीक को समर्पित खाटूश्यामजी का मंदिर - सीकर से ६५ कि.मी. दूर खाटू गाँव में स्थित है। इसका इतिहास महाभारत कालीन है।
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इतिहासकार पंडित झाबरमल्ल शर्मा के अनुसार सन् १६७९ में औरंगजेब की सेना ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया था। इस मंदिर की रक्षा के लिए उस समय अनेक राजपूतों ने अपना प्राणोत्सर्ग किया था।
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उसके बाद एक बार फिर मुग़ल बादशाह फर्रूखशीयर ने अपनी मुग़ल सेना को लेकर मंदिर को ध्वस्त किया था, जिसका वर्णन कुछ वर्षों पूर्व 'राजस्थान पत्रिका' नामक समाचार पत्र में 'नगर परिक्रमा' शीर्षक के अंतर्गत छपे स्तम्भ के अनेक लेखों में विस्तृत रूप से छपा था। इस युद्ध में राजपूत सेनाओं के साथ ब्राह्मणों ने भी शस्त्र उठाये और युद्ध किया था। मंदिर के महंत मंगलदास और उनके सेवक सुन्दरदास भंडारी के सिर कट गए, पर उनके धड मुग़ल सेनाओं से लड़ते रहे; जिनका विकराल रूप देखकर मुग़ल सेना भाग खडी हुई। फर्रूखशीयर ने उन धडों से स्वयं को गाफिल बताते हुए माफी मांगी तब जाकर वे धड़ शांत हुए। उस जमाने में एक कहावत पड़ी थी -- "शीश कटा खाटू लड़े महंत मंगलदास।"
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राजस्थान की संस्कृति और भक्ति इस मेले में जीवंत हो उठती है। लाखों श्रद्धालुओं का भक्तिभाव देखना हो यह मेला अवश्य देखना चाहिए। जय श्रीश्याम!
कृपा शंकर
१४ मार्च २०२२