सत्संग, गुरु-सेवा व गुरु-शिष्य कौन .....
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गुरु की प्रशंसा में हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं, पर गुरु हैं कौन?
कौन गुरु की पात्रता रखता है?
कैसे गुरु को पहिचानें और गुरु की आवश्यकता क्या है?
शिष्य की पात्रता क्या है? आदि आदि|
इन सब पर विचार करना आवश्यक है क्योंकि गुरुवाद के नाम पर आजकल गोरखधंधा भी खूब चल रहा है| दिखावटी गुरु बनकर चेले मूँड कर उनका शोषण करना आजकल खूब सामान्य व्यवसाय हो चला है|
वैसे ही फर्जी चेला बनना भी एक व्यवसाय हो गया है|
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'शिष्यत्व' एक पात्रता है| जब वह पात्रता होती है तब सद्गुरु स्वयं चले आते हैं| सद्गुरु को कहीं ढूँढना नहीं पड़ता| सबसे महत्वपूर्ण है शिष्यत्व की पात्रता|
वह पात्रता है ..... परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम और उसे पाने की तड़प, और एक अदम्य अभीप्सा| जब वह अभीप्सा होती है तब प्रभु एक सद्गुरु के रूप में निश्चित तौर से आते हैं|
वे शिष्य के ह्रदय में यह बोध भी करा देते हैं की मैं आ गया हूँ| एक निष्ठावान शिष्य कभी धोखा नहीं खाता|
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जब आप प्रभु को ठगना चाहते हैं तो प्रभु भी एक ठग गुरु बन कर आते हैं, और आपका सब कुछ हर कर ले जाते हैं|
प्रभु किसी महापुरुष या महात्मा (जो आत्मा महत् तत्व से जुडी हो) के रूप में आते हैं और साधक मुमुक्षु को दिव्य पथ पर अग्रसर कर देते हैं| यही दीक्षा है|
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गुरु शिष्य का मंगल और कल्याण ही चाहते हैं|
" मीङ्गतौ " धातु से " मङ्गल " शब्द बनता है , जिसका अर्थ होता है "आगे बढ़ना"| आगे तो शिष्य को ही बढना पड़ता है| जब आगे बढने की कामना और प्रयास ही नहीं होता तब शिष्य भी अपनी पात्रता खो देता है और गुरु का वरदहस्त उस पर और नहीं रहता|
"कल्याण" शब्द का भी यही अर्थ है संस्कृत में "कल्य" का अर्थ होता है "प्रातःकाल" | इसलिए कल्याण का तात्पर्य यह है कि जीवन में " नवप्रभात " आये|
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गुरु तो एक निश्चित भावभूमि पर अग्रसर कर शिष्य को छोड़ देता है, फिर आगे की यात्रा तो शिष्य को स्वयं ही करनी पडती है| वहाँ प्रभु 'कूटस्थ' रूप में हमारे गुरु होते हैं| 'कूटस्थ' का अर्थ है -- जो सर्वत्र है पर कहीं भी नहीं प्रतीत होता है, छिपा हुआ है|
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योग साधक ---- ध्यान में भ्रूमध्य और उससे ऊपर दिखाई देने वाली सर्वव्यापक ज्योति और ध्यान में ही सुनाई देने वाली अनहद नाद रूपी प्रणव ध्वनी पर ध्यान करते हैं, और जब उनकी चेतना विस्तृत होकर सर्वव्यापकता को निरंतर अनुभूत करती है उसे कूटस्थ चैतन्य कहते हैं| उस सर्वव्यापकता को कूटस्थ ब्रह्म मानते हैं| कूटस्थ ही वास्तविक गुरु है जो दिव्य ज्योति और प्रणव रूप में निरंतर प्रेरणा और मार्गदर्शन देता रहता है| मेरे विचार से और मेरी अल्प व सीमित बुद्धि से गुरु वही बन सकता है जिसे ईश्वर द्वारा गुरु बनने की प्रेरणा प्राप्त हो, जो निरंतर ब्राह्मी स्थिति कूटस्थ चैतन्य में हो|
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गुरु सेवा का अर्थ है ----- ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु के द्वारा बताए हुए मार्ग पर सतत चलना| आपकी साधना में कोई कमी रह जाती है तब गुरु उस कमी का शोधन कर उसे दूर कर देते हैं|
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गुरु आध्यात्मिक मार्गदर्शक होता है वह किसी के निजी जीवन में दखल नहीं देता| जिस के संग में हमारे मन की चंचलता समाप्त हो, मन शांत हो, और जिसके संग से परमात्मा की चेतना निरंतर जागृत रहे वही गुरु पद का अधिकारी हो सकता है| गुरु जिस देह रूपी वाहन से अपनी लोक यात्रा कर रहे हों उसका ध्यान रखना भी गुरु सेवा का एक भाग है पर मुख्य बात है कि उनके संग से आपकी परमात्मा में स्थिति हो रही है या नहीं|
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यदि गुरु की सेवा भी परमार्थ के ज्ञान में, अपने अद्वैत - अखण्ड की अनुभूति में बाधक होती हो तो उनको भी छोड़ देना चाहिए --- न गुरुः और न शिष्यः।
जब परमार्थ में स्थिति हो जाये तब गुरु - शिष्य का शारीरिक सम्बन्ध भी नहीं रहना चाहिये। यह बहुत विलक्षण बात है| गुरु साधनरूप हैं साध्य नहीं| उनकी हाड-मांस की देह गुरु नहीं हो सकती|
गुरु तो उनकी चेतना है|
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"कूटस्थ" शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है| यह भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त बड़ा सुन्दर और गहन अर्थों वाला शब्द है|
सुनार सोने को आकृति देने के लिए जिस पर रख कर छोटी हथौड़ी से पीटता है उसे भी 'कूट' कहते हैं, और इस प्रक्रिया को 'कूटना' कहते हैं|
'कूट' का अर्थ छिपा हुआ भी है| जो सर्वत्र व्याप्त है और कहीं दिखाई नहीं देता उसे 'कूटस्थ' कहते हैं| भगवान 'कूटस्थ' हैं अतः गुरु भी 'कूटस्थ' है|
योगियों के लिए भ्रूमध्य में अवधान 'कूटस्थ' है|
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निरंतर ज्योतिर्मयब्रह्म के आज्ञाचक्र और सहस्त्रार में दर्शन, और नादब्रह्म का निरंतर श्रवण --- 'कूटस्थ चैतन्य' है|
ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन एक पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के रूप में होते हैं, वह पंचमुखी महादेव हैं| उस श्वेत नक्षत्र के चारों ओर का नीला आवरण 'कृष्णचैतन्य' है| उस नीले आवरण के चारों ओर की स्वर्णिम आभा 'ओंकार' यानि प्रणव है जिससे समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है| \
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उस श्वेत नक्षत्र का भेदन कर योगी परमात्मा से एकाकार हो जाता है| तब वह कह सकता है ------ 'शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि'| यही परमात्मा की प्राप्ति है|
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कूटस्थ ही हमारा घर है, कूटस्थ ही हमारा आश्रम है और कूटस्थ ही हमारा अस्तित्व है|
दरिया साहेब का एक बड़ा सुन्दर पद्य है ---
"जाति हमारी ब्रह्म है, माता पिता हैं राम| गृह हमारा शुन्य में, अनहद में विश्राम||"
कौन तो गुरु है और कौन शिष्य ? सब कुछ तो परमात्मा है जो हम स्वयं हैं|
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गुरु बनना महापुरुषों का काम है, साधकों का नहीं| किसी साधक का गुरु बनना उसके पतन का हेतु है|
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आज के युग की स्थिति बड़ी विचित्र है| चेले सोचते हैं की कब गुरु मरे और उसकी सम्पत्ति हाथ लगे| कई बार तो चेले ही गुरु को मरवा देते हैं| गुरु के मरने पर कई बार तो चेलों में खूनी संघर्ष भी हो जाता है| व्यवहारिक रूप से इस तरह की अनेक घटनाओं को सुना व देखा है| अतः इन पचड़ों में न पड़कर भगवान की निरंतर भक्ति में लगे रहना ही अच्छा है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१३ मार्च 2014
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गुरु की प्रशंसा में हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं, पर गुरु हैं कौन?
कौन गुरु की पात्रता रखता है?
कैसे गुरु को पहिचानें और गुरु की आवश्यकता क्या है?
शिष्य की पात्रता क्या है? आदि आदि|
इन सब पर विचार करना आवश्यक है क्योंकि गुरुवाद के नाम पर आजकल गोरखधंधा भी खूब चल रहा है| दिखावटी गुरु बनकर चेले मूँड कर उनका शोषण करना आजकल खूब सामान्य व्यवसाय हो चला है|
वैसे ही फर्जी चेला बनना भी एक व्यवसाय हो गया है|
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'शिष्यत्व' एक पात्रता है| जब वह पात्रता होती है तब सद्गुरु स्वयं चले आते हैं| सद्गुरु को कहीं ढूँढना नहीं पड़ता| सबसे महत्वपूर्ण है शिष्यत्व की पात्रता|
वह पात्रता है ..... परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम और उसे पाने की तड़प, और एक अदम्य अभीप्सा| जब वह अभीप्सा होती है तब प्रभु एक सद्गुरु के रूप में निश्चित तौर से आते हैं|
वे शिष्य के ह्रदय में यह बोध भी करा देते हैं की मैं आ गया हूँ| एक निष्ठावान शिष्य कभी धोखा नहीं खाता|
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जब आप प्रभु को ठगना चाहते हैं तो प्रभु भी एक ठग गुरु बन कर आते हैं, और आपका सब कुछ हर कर ले जाते हैं|
प्रभु किसी महापुरुष या महात्मा (जो आत्मा महत् तत्व से जुडी हो) के रूप में आते हैं और साधक मुमुक्षु को दिव्य पथ पर अग्रसर कर देते हैं| यही दीक्षा है|
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गुरु शिष्य का मंगल और कल्याण ही चाहते हैं|
" मीङ्गतौ " धातु से " मङ्गल " शब्द बनता है , जिसका अर्थ होता है "आगे बढ़ना"| आगे तो शिष्य को ही बढना पड़ता है| जब आगे बढने की कामना और प्रयास ही नहीं होता तब शिष्य भी अपनी पात्रता खो देता है और गुरु का वरदहस्त उस पर और नहीं रहता|
"कल्याण" शब्द का भी यही अर्थ है संस्कृत में "कल्य" का अर्थ होता है "प्रातःकाल" | इसलिए कल्याण का तात्पर्य यह है कि जीवन में " नवप्रभात " आये|
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गुरु तो एक निश्चित भावभूमि पर अग्रसर कर शिष्य को छोड़ देता है, फिर आगे की यात्रा तो शिष्य को स्वयं ही करनी पडती है| वहाँ प्रभु 'कूटस्थ' रूप में हमारे गुरु होते हैं| 'कूटस्थ' का अर्थ है -- जो सर्वत्र है पर कहीं भी नहीं प्रतीत होता है, छिपा हुआ है|
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योग साधक ---- ध्यान में भ्रूमध्य और उससे ऊपर दिखाई देने वाली सर्वव्यापक ज्योति और ध्यान में ही सुनाई देने वाली अनहद नाद रूपी प्रणव ध्वनी पर ध्यान करते हैं, और जब उनकी चेतना विस्तृत होकर सर्वव्यापकता को निरंतर अनुभूत करती है उसे कूटस्थ चैतन्य कहते हैं| उस सर्वव्यापकता को कूटस्थ ब्रह्म मानते हैं| कूटस्थ ही वास्तविक गुरु है जो दिव्य ज्योति और प्रणव रूप में निरंतर प्रेरणा और मार्गदर्शन देता रहता है| मेरे विचार से और मेरी अल्प व सीमित बुद्धि से गुरु वही बन सकता है जिसे ईश्वर द्वारा गुरु बनने की प्रेरणा प्राप्त हो, जो निरंतर ब्राह्मी स्थिति कूटस्थ चैतन्य में हो|
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गुरु सेवा का अर्थ है ----- ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु के द्वारा बताए हुए मार्ग पर सतत चलना| आपकी साधना में कोई कमी रह जाती है तब गुरु उस कमी का शोधन कर उसे दूर कर देते हैं|
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गुरु आध्यात्मिक मार्गदर्शक होता है वह किसी के निजी जीवन में दखल नहीं देता| जिस के संग में हमारे मन की चंचलता समाप्त हो, मन शांत हो, और जिसके संग से परमात्मा की चेतना निरंतर जागृत रहे वही गुरु पद का अधिकारी हो सकता है| गुरु जिस देह रूपी वाहन से अपनी लोक यात्रा कर रहे हों उसका ध्यान रखना भी गुरु सेवा का एक भाग है पर मुख्य बात है कि उनके संग से आपकी परमात्मा में स्थिति हो रही है या नहीं|
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यदि गुरु की सेवा भी परमार्थ के ज्ञान में, अपने अद्वैत - अखण्ड की अनुभूति में बाधक होती हो तो उनको भी छोड़ देना चाहिए --- न गुरुः और न शिष्यः।
जब परमार्थ में स्थिति हो जाये तब गुरु - शिष्य का शारीरिक सम्बन्ध भी नहीं रहना चाहिये। यह बहुत विलक्षण बात है| गुरु साधनरूप हैं साध्य नहीं| उनकी हाड-मांस की देह गुरु नहीं हो सकती|
गुरु तो उनकी चेतना है|
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"कूटस्थ" शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है| यह भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त बड़ा सुन्दर और गहन अर्थों वाला शब्द है|
सुनार सोने को आकृति देने के लिए जिस पर रख कर छोटी हथौड़ी से पीटता है उसे भी 'कूट' कहते हैं, और इस प्रक्रिया को 'कूटना' कहते हैं|
'कूट' का अर्थ छिपा हुआ भी है| जो सर्वत्र व्याप्त है और कहीं दिखाई नहीं देता उसे 'कूटस्थ' कहते हैं| भगवान 'कूटस्थ' हैं अतः गुरु भी 'कूटस्थ' है|
योगियों के लिए भ्रूमध्य में अवधान 'कूटस्थ' है|
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निरंतर ज्योतिर्मयब्रह्म के आज्ञाचक्र और सहस्त्रार में दर्शन, और नादब्रह्म का निरंतर श्रवण --- 'कूटस्थ चैतन्य' है|
ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन एक पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के रूप में होते हैं, वह पंचमुखी महादेव हैं| उस श्वेत नक्षत्र के चारों ओर का नीला आवरण 'कृष्णचैतन्य' है| उस नीले आवरण के चारों ओर की स्वर्णिम आभा 'ओंकार' यानि प्रणव है जिससे समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है| \
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उस श्वेत नक्षत्र का भेदन कर योगी परमात्मा से एकाकार हो जाता है| तब वह कह सकता है ------ 'शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि'| यही परमात्मा की प्राप्ति है|
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कूटस्थ ही हमारा घर है, कूटस्थ ही हमारा आश्रम है और कूटस्थ ही हमारा अस्तित्व है|
दरिया साहेब का एक बड़ा सुन्दर पद्य है ---
"जाति हमारी ब्रह्म है, माता पिता हैं राम| गृह हमारा शुन्य में, अनहद में विश्राम||"
कौन तो गुरु है और कौन शिष्य ? सब कुछ तो परमात्मा है जो हम स्वयं हैं|
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गुरु बनना महापुरुषों का काम है, साधकों का नहीं| किसी साधक का गुरु बनना उसके पतन का हेतु है|
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आज के युग की स्थिति बड़ी विचित्र है| चेले सोचते हैं की कब गुरु मरे और उसकी सम्पत्ति हाथ लगे| कई बार तो चेले ही गुरु को मरवा देते हैं| गुरु के मरने पर कई बार तो चेलों में खूनी संघर्ष भी हो जाता है| व्यवहारिक रूप से इस तरह की अनेक घटनाओं को सुना व देखा है| अतः इन पचड़ों में न पड़कर भगवान की निरंतर भक्ति में लगे रहना ही अच्छा है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१३ मार्च 2014