Thursday 1 August 2019

नित्यमुक्त को जाने की आज्ञा कौन दे ?

नित्यमुक्त को जाने की आज्ञा कौन दे? परमशिव स्वेच्छा से अविद्या का आनंद लेने स्वतंत्र बंधनों में आये हैं. वे परतंत्र नहीं हैं.
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जब उन की कृपा से "इदम्" मिट जाता हैे, तब वे ही "अहम्" बन जाते हैं, और हमें अपने अच्युत अपरिछिन्न भाव की सिद्धि और अहम् व इदम् के भेद का ज्ञान होता है. हमारे बंधन स्वतंत्र हैं, परतंत्र नहीं. अंततः साधकत्व और मुमुक्षुत्व भी एक भ्रम ही है, क्योंकि स्वयं से पृथक कोई सत्ता है ही नहीं. कोई बद्धता भी नहीं है, क्योंकि हम तो हैं ही नहीं. जो भी है वे भगवान वासुदेव ही हैं. वे ही परमशिव है, वे ही पारब्रह्म हैं, वे ही जगन्माता हैं, वे ही सर्वस्व हैं.
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ||गीता ७:१९||

भवसागर पता नहीं कब का पार हो गया ! कुछ पता ही नहीं चला ----

भवसागर पता नहीं कब का पार हो गया ! कुछ पता ही नहीं चला.
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एक निर्जन, अनंत अन्धकार से घिरे प्रचंड चक्रवातों से ग्रस्त भयावह भवसागर को पार करने के लिए, जहाँ कोई तारा भी दृष्टिगत नहीं हो रहा था, वहाँ भगवान ने यह देह रुपी टूटी-फूटी असंख्य छिद्रों वाली नौका दी थी| सद्गुरु महाराज ने इसका कर्णधार बनने की बड़ी कृपा की और भगवान की अनुग्रह रूपी अनुकूलता मिली| सारे छिद्रों को भगवान ने भर दिया और जब ठीक से देखा तो पता चला कि भवसागर तो कभी का पार हो गया है, कुछ पता ही नहीं चला|
हे सच्चिदानंद हरिः, तुम कितने सुन्दर हो ! हे हरिः सुन्दर हे हरिः सुन्दर !

गुरुकृपा है या नहीं, इसकी क्या पहिचान है? गुरु, गुरुपूजा, गुरुदक्षिणा, गुरुस्थान और गुरुसेवा क्या है? .....

गुरुकृपा है या नहीं, इसकी क्या पहिचान है? गुरु, गुरुपूजा, गुरुदक्षिणा, गुरुस्थान और गुरुसेवा क्या है? .....
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यदि गुरु के उपदेश निज जीवन में चरितार्थ हो रहे हैं, यानी हम गुरु के उपदेशों का पालन अपने निजी जीवन में कर पा रहे हैं तो हम पर गुरु-कृपा है, अन्यथा नहीं| इसके अतिरिक्त अन्य कोई मापदंड नहीं है|
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मेरी दृष्टि में कूटस्थ ही गुरु है, कूटस्थ ही गुरुस्थान है, और कूटस्थ पर निरंतर ध्यान और समर्पण ही गुरुसेवा है| गुरु-रूप ब्रह्म सब नाम-रूप और गुणों से परे हैं, वे असीम हैं, उन्हें किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता| वे परमात्मा की अनंतता, पूर्णता और आनंद हैं| असली गुरुदक्षिणा है ..... कूटस्थ में पूर्ण समर्पण, जिसकी विधी भी स्वयं गुरु ही बताते हैं|
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यह मनुष्य देह तो लोकयात्रा के लिए परमात्मा से मिला हुआ एक वाहन रूपी उपहार है| हम यह वाहन नहीं हैं, गुरु भी यह वाहन नहीं हैं| पर लोकाचार के लिए लोकधर्म निभाना भी आवश्यक है| लोकधर्म निभाने के लिए गुरु यदि देह में हैं तो प्रतीक के रूप में उनकी देह को, यदि नहीं हैं तो उनकी परम्परा को, आवश्यक धन, अन्न-वस्त्र और पत्र-पुष्प आदि अर्पित करना हमारा दायित्व बनता है| गुरु देह में हैं तो यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उन्हें किसी प्रकार का कोई कष्ट तो नहीं है| तब उनकी देह की भी सेवा होनी चाहिए| गुरु के उपदेशों को चरितार्थ करना गुरुसेवा है| गुरु कभी स्वयं को भौतिक देह नहीं मानते| जो स्वयं को भौतिक देह मानते हैं वे गुरु नहीं हो सकते| उनकी चेतना कूटस्थ ब्रह्म के साथ एक होती है| उनके साथ हमारा सम्बन्ध शाश्वत है और वे शिष्य को भी स्वयं के साथ ब्रह्ममय करने के लिए प्रयासरत रहते हैं|
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हमारी सूक्ष्म देह में हमारे मष्तिष्क के शीर्ष पर जो सहस्त्रार है, जहाँ सहस्त्र पंखुड़ियों वाला कमल पुष्प है, वह गुरु के चरण कमल रूपी हमारी गुरु-सत्ता है| वह गुरु का स्थान है| सहस्त्रार में स्थिति ही गुरुचरणों में आश्रय है| उस सहस्त्र दल कमल पर हमें निरंतर परमशिव परात्पर परमेष्ठी गुरु का ध्यान करना चाहिए| यह सबसे बड़ी गुरुसेवा है| सहस्त्रार से परे की अनंतता में वे परमशिव हैं| वह अनंतता ही वास्तव में हमारा स्वरुप है| ध्यान करते करते हम स्वयं भी अनंत बन जाते हैं|
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गुरु-चरणों में मस्तक एक बार झुक गया तो वह कभी उठना नहीं चाहिए| वह सदा झुका ही रहे| यही शीश का दान है| इससे हमारे चैतन्य पर गुरु का अधिकार हो जाता है| तब जो कुछ भी हम करेंगे उसमें गुरु हमारे साथ सदैव रहेंगे| तब कर्ता और भोक्ता भी वे ही बन जाते हैं| यही है गुरु चरणों में सम्पूर्ण समर्पण| तब हमारे अच्छे-बुरे सब कर्म भी गुरु चरणों में अर्पित हो जाते हैं| हम पर कोई संचित कर्म अवशिष्ट नहीं रहता| तब गुरु ही हमारी आध्यात्मिक साधना के कर्ता और भोक्ता हो जाते हैं|
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साकार रूप में गुरु-पादुका या गुरु के चरण-कमलों की पूजा होती है, गुरु के देह की नहीं| गुरु रूप परब्रह्म को कर्ता बनाओ| साधना, साध्य और साधक; दृष्टा, दृश्य और दृष्टी; व उपासना, उपासक और उपास्य .... सब कुछ हमारे गुरु महाराज ही हैं| हमारी उपस्थिति तो वैसे ही है जैसे यज्ञ में यजमान की होती है| गुरुकृपा ही हमें समभाव में अधिष्ठित करती है| गुरुकृपा हि केवलं||
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जुलाई २०१९
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(यह लेख मेरे निजी अनुभवों और विचारों पर आधारित है. यदि किसी के विचार नहीं मिलते तो अन्यथा न लें. मैं सभी का पूर्ण सम्मान करता हूँ.)

धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है .....

धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है .....
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जो दृढ़ राखे धर्म को, तिंही राखे करतार| इण मंत्र रो जाप करे, वो मेवाड़ी सरदार|| 
उपरोक्त पंक्तियाँ अकबर के सेनापति अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने महाराणा प्रताप की प्रशंसा में लिखी थीं).
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण का आश्वासन है ....
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||
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हमने अपना धर्म छोड़ दिया है, इसलिए हमारा पतन हो रहा है और हम इतने अधिक कष्टों में हैं| हम धर्म की रक्षा करेंगे तभी धर्म हमारी रक्षा करेगा|
"धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ||"
धर्म ही रक्षा करेगा, और कोई नहीं |