गुरुकृपा है या नहीं, इसकी क्या पहिचान है? गुरु, गुरुपूजा, गुरुदक्षिणा, गुरुस्थान और गुरुसेवा क्या है? .....
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यदि गुरु के उपदेश निज जीवन में चरितार्थ हो रहे हैं, यानी हम गुरु के उपदेशों का पालन अपने निजी जीवन में कर पा रहे हैं तो हम पर गुरु-कृपा है, अन्यथा नहीं| इसके अतिरिक्त अन्य कोई मापदंड नहीं है|
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मेरी दृष्टि में कूटस्थ ही गुरु है, कूटस्थ ही गुरुस्थान है, और कूटस्थ पर निरंतर ध्यान और समर्पण ही गुरुसेवा है| गुरु-रूप ब्रह्म सब नाम-रूप और गुणों से परे हैं, वे असीम हैं, उन्हें किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता| वे परमात्मा की अनंतता, पूर्णता और आनंद हैं| असली गुरुदक्षिणा है ..... कूटस्थ में पूर्ण समर्पण, जिसकी विधी भी स्वयं गुरु ही बताते हैं|
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यह मनुष्य देह तो लोकयात्रा के लिए परमात्मा से मिला हुआ एक वाहन रूपी उपहार है| हम यह वाहन नहीं हैं, गुरु भी यह वाहन नहीं हैं| पर लोकाचार के लिए लोकधर्म निभाना भी आवश्यक है| लोकधर्म निभाने के लिए गुरु यदि देह में हैं तो प्रतीक के रूप में उनकी देह को, यदि नहीं हैं तो उनकी परम्परा को, आवश्यक धन, अन्न-वस्त्र और पत्र-पुष्प आदि अर्पित करना हमारा दायित्व बनता है| गुरु देह में हैं तो यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उन्हें किसी प्रकार का कोई कष्ट तो नहीं है| तब उनकी देह की भी सेवा होनी चाहिए| गुरु के उपदेशों को चरितार्थ करना गुरुसेवा है| गुरु कभी स्वयं को भौतिक देह नहीं मानते| जो स्वयं को भौतिक देह मानते हैं वे गुरु नहीं हो सकते| उनकी चेतना कूटस्थ ब्रह्म के साथ एक होती है| उनके साथ हमारा सम्बन्ध शाश्वत है और वे शिष्य को भी स्वयं के साथ ब्रह्ममय करने के लिए प्रयासरत रहते हैं|
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हमारी सूक्ष्म देह में हमारे मष्तिष्क के शीर्ष पर जो सहस्त्रार है, जहाँ सहस्त्र पंखुड़ियों वाला कमल पुष्प है, वह गुरु के चरण कमल रूपी हमारी गुरु-सत्ता है| वह गुरु का स्थान है| सहस्त्रार में स्थिति ही गुरुचरणों में आश्रय है| उस सहस्त्र दल कमल पर हमें निरंतर परमशिव परात्पर परमेष्ठी गुरु का ध्यान करना चाहिए| यह सबसे बड़ी गुरुसेवा है| सहस्त्रार से परे की अनंतता में वे परमशिव हैं| वह अनंतता ही वास्तव में हमारा स्वरुप है| ध्यान करते करते हम स्वयं भी अनंत बन जाते हैं|
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गुरु-चरणों में मस्तक एक बार झुक गया तो वह कभी उठना नहीं चाहिए| वह सदा झुका ही रहे| यही शीश का दान है| इससे हमारे चैतन्य पर गुरु का अधिकार हो जाता है| तब जो कुछ भी हम करेंगे उसमें गुरु हमारे साथ सदैव रहेंगे| तब कर्ता और भोक्ता भी वे ही बन जाते हैं| यही है गुरु चरणों में सम्पूर्ण समर्पण| तब हमारे अच्छे-बुरे सब कर्म भी गुरु चरणों में अर्पित हो जाते हैं| हम पर कोई संचित कर्म अवशिष्ट नहीं रहता| तब गुरु ही हमारी आध्यात्मिक साधना के कर्ता और भोक्ता हो जाते हैं|
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साकार रूप में गुरु-पादुका या गुरु के चरण-कमलों की पूजा होती है, गुरु के देह की नहीं| गुरु रूप परब्रह्म को कर्ता बनाओ| साधना, साध्य और साधक; दृष्टा, दृश्य और दृष्टी; व उपासना, उपासक और उपास्य .... सब कुछ हमारे गुरु महाराज ही हैं| हमारी उपस्थिति तो वैसे ही है जैसे यज्ञ में यजमान की होती है| गुरुकृपा ही हमें समभाव में अधिष्ठित करती है| गुरुकृपा हि केवलं||
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जुलाई २०१९
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(यह लेख मेरे निजी अनुभवों और विचारों पर आधारित है. यदि किसी के विचार नहीं मिलते तो अन्यथा न लें. मैं सभी का पूर्ण सम्मान करता हूँ.)