परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, इसलिये सदा समभाव में स्थित रहने का अभ्यास करें। इन्द्रिय सुख और वासनाएँ मीठा विष हैं। कर्तापन का अभिमान पाप है। मैंने इतने दान-पुण्य किये, मैनें इतने परोपकार के कार्य किये, मैनें इतनी साधना की, इतने जप-तप किए, मैं इतना बड़ा भक्त हूँ, मैं इतना बड़ा साधक हूँ, मेरे जैसा धर्मात्मा कोई नहीं है -- ऐसे भाव पापकर्म हैं, क्योंकि इन से अहंकार बढता है। जिस से अहंकार की निवृति हो -- वही पुण्य है।
Saturday, 7 August 2021
सदा समभाव में स्थित रहने का अभ्यास करें ---
भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में मेरे विचार ---
भारत छोड़ो आंदोलन ---
आत्मा से अन्य कुछ भी नहीं है ---
आत्मा से अन्य कुछ भी नहीं है ---
यो मां पश्यति सर्वत्र ---
आज प्रातः उठते ही श्रीमद्भगवद्गीता के दो चरम श्लोक स्मृति में सामने आये -- अध्याय ६ का ३०वाँ श्लोक, और अध्याय १८ का ६६वाँ श्लोक। सारी चेतना "मां"(माम्) शब्द पर अटक गई। किसी अज्ञात शक्ति ने कहा कि इस शब्द में जीवन और मृत्यु का रहस्य छिपा है, जिसके अनुसंधान से सारे संशय मिट जायेंगे। आँखें प्रसन्नता व हर्ष के आंसुओं से भर गई और एक भाव-समाधि लग गई। गुरुकृपा कहो या हरिःकृपा से एक बहुत बड़ा रहस्य अनावृत हुआ, और आगे के लिए मार्ग-दर्शन मिला। यह शब्द (माम् या मां) भगवान का श्रीमुख भी है (जिस पर कल चर्चा की जा चुकी है) और आत्म-तत्व भी। यह वास्तव में एक बहुत बड़ा रहस्य है जो गुरुकृपा से ही समझ में आ सकता है।
भगवान वासुदेव - आत्मा से अभिन्न - हमारे ही आत्म-स्वरूप हैं ---
भगवान वासुदेव - आत्मा से अभिन्न - हमारे ही आत्म-स्वरूप हैं ---
हृदय कभी झूठ नहीं बोलता, अपने मन की न सुनें ---
निज जीवन में अब किसी भी तरह की कोई अभिलाषा, व किसी से भी किसी भी तरह की कोई आशा या अपेक्षा नहीं रही है। जीवन का अब कोई उद्देश्य नहीं है। प्रकृति - अपने नियमों के अनुसार सृष्टि का संचालन कर रही है, और करती रहेगी। उन नियमों को न जानना हमारी अज्ञानता है। एकमात्र अस्तित्व परमात्मा का है, जिन को यह जीवन समर्पित है। अवशिष्ट जीवन में उन की ही पूर्ण अभिव्यक्ति हो, उनकी ही इच्छा पूर्ण हो, और उन की स्मृति में ही यह जीवन व्यतीत हो जाये।
राम जी अगर दीपक हैं तो मैं उनका प्रकाश हूँ ---
राम जी अगर दीपक हैं तो मैं उनका प्रकाश हूँ। वे पुष्प हैं तो मैं उनकी सुगंध हूँ। वे राम हैं तो मैं उनका सेवक हूँ। पूरी समष्टि ही राममय है। हे राम, तुम राम हो तो मैं तुम्हारा दास हूँ। तुम अगाध समुद्र हो तो मैं तुम्हारा मेघ हूँ। तुम चन्दन के वृक्ष हो तो मैं तुम्हारी महक हूँ। दिन-रात मुझे अपनी सेवा में रखो, और मेरे मन में किसी चीज की कामना ही उत्पन्न न हो। मेरी एकमात्र गति तुम हो, तुम्हारे सिवाय अन्य कोई विचार इस चित्त में प्रवेश ही न कर पाये। मेरी रक्षा करो। त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम् !!
माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र:। स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र:। सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु| नान्यं जाने नैव जाने न जाने॥
रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे। रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम:॥
कुछ अनुभूतियाँ इतनी व्यक्तिगत हैं कि लिखी नहीं जा सकतीं| राम का चिंतन होते ही Laptop का key Board और Screen सब लुप्त हो जाते हैं| टंकण करने वाली अंगुलिया भी नहीं दिखाई देतीं| फिर कुछ भी लिखना संभव नहीं रहता| चेतना में राम के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं रहता|
८ अगस्त २०२०