Saturday, 7 August 2021

सदा समभाव में स्थित रहने का अभ्यास करें ---

परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, इसलिये सदा समभाव में स्थित रहने का अभ्यास करें। इन्द्रिय सुख और वासनाएँ मीठा विष हैं। कर्तापन का अभिमान पाप है। मैंने इतने दान-पुण्य किये, मैनें इतने परोपकार के कार्य किये, मैनें इतनी साधना की, इतने जप-तप किए, मैं इतना बड़ा भक्त हूँ, मैं इतना बड़ा साधक हूँ, मेरे जैसा धर्मात्मा कोई नहीं है -- ऐसे भाव पापकर्म हैं, क्योंकि इन से अहंकार बढता है। जिस से अहंकार की निवृति हो -- वही पुण्य है।

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श्रीमद्भगवद्गीता में जिस समत्व की बात कही गयी है, वह ही ज्ञान है। जिस ने समत्व को प्राप्त किया है, वह ही ज्ञानी है, और वह ही स्थितप्रज्ञ है। जो सुख-दुःख, हानि-लाभ, यश-अपयश, मान-अपमान आदि में समभाव रखता है, और राग-द्वेष व अहंकार से परे है, वह ही ज्ञानी कहलाने का अधिकारी है। बहुत सारी जानकारी प्राप्त करना, अनुभव और सीख -- ज्ञान नहीं है। जिसने ग्रन्थों को रट रखा है और बहुत कुछ अनुभव से या पुस्तकों से सीखा है वह भी ज्ञानी नहीं है। ज्ञानी वही है जो समत्व में स्थित है। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
८ अगस्त २०२१

भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में मेरे विचार ---

 भारत छोड़ो आंदोलन ---

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८ अगस्त १९४२ का दिन बहुत प्रसिद्ध है। इस दिन श्री मोहनदास-करमचंद गांधी द्वारा मुंबई के "अगस्त क्रान्ति मैदान" में "भारत छोड़ो आंदोलन" आरंभ किया गया था। उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध (१ सितंबर १९३९ - २ सितंबर १९४५) चल रहा था। यह एक बहुत विराट देशव्यापी आन्दोलन था जिसका लक्ष्य भारत से ब्रितानी साम्राज्य को समाप्त करना था।
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इस आन्दोलन को अंग्रेजों ने बड़ी निर्दयता और निर्ममता से पूरे देश में बहुत बुरी तरह कुचल दिया था, इस लिए यह सफल नहीं हुआ। गाँधी जी को फ़ौरन गिरफ़्तार कर लिया गया था। जयप्रकाश नारायण भूमिगत हो गए थे। फिर श्री लालबहादुर शास्त्री ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। "करो या मरो" का नारा गांधीजी ने दिया था जिसे लालबहादुर शास्त्री जी ने "मरो नहीं, मारो" बना दिया।
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कुछ राजनीतिक विचारकों के अनुसार इस आंदोलन की विफलता का कारण गलत समय पर गलत राजनीति से प्रेरित होना था। ९ अगस्त १९२५ को पं.रामप्रसाद 'बिस्मिल' के नेतृत्व में दस जुझारू कार्यकर्ताओं ने काकोरी काण्ड किया था जिसकी यादगार ताजा रखने के लिये पूरे देश में प्रतिवर्ष ९ अगस्त को "काकोरी काण्ड स्मृति-दिवस" मनाने की परम्परा भगत सिंह ने आरम्भ कर दी थी जिसमें बहुत बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे। गांधीजी चाहते थे कि जनता उसे भूल जाए। इसलिए उन्होंने इस आन्दोलन का समय आठ और नौ अगस्त को रखा।
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विद्यालयों में तो हमें यही पढ़ाया गया था कि हमें स्वतन्त्रता इसी आन्दोलन के कारण मिली। लेकिन यह झूठ था। बड़े होकर ही हमें पता चला कि स्वतन्त्रता निम्न दो कारणों से मिली --
(१) द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक अंग्रेजी सेना की कमर टूट गयी थी और वह भारत पर अपना नियंत्रण रखने में असमर्थ थी। भारतीय सैनिकों ने अँगरेज़ अफसरों के आदेश मानने और उन्हें सलामी देना बंद कर दिया था। नौसेना ने विद्रोह कर दिया था और अँगरेज़ अधिकारियों को मुंबई के कोलाबा में बंदी बना लिया। इससे अँगरेज़ बहुत अधिक डर गए थे, और उन्होंने भारत छोड़ने का निर्णय ले लिया।
(२) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना की और अपनी स्वतंत्र सेना बनाकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए युद्ध आरम्भ कर दिया। वे इतने अधिक लोकप्रिय हो चुके थे कि उन्हें भारत के प्रधानमंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता था। अँगरेज़ भयभीत थे। उन्होंने भारत का अधिक से अधिक नुकसान किया, भारत को अधिक से अधिक लूटा, विभाजन किया और अपने मानसपुत्र को सता हस्तांतरित कर के भारत से चले गए|
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धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो !! भारत सदा विजयी रहे !! हर हर महादेव !!
ॐ तत्सत् !!
८ अगस्त २०२१

आत्मा से अन्य कुछ भी नहीं है ---

 आत्मा से अन्य कुछ भी नहीं है ---

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यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय "ईशावास्योपनिषद्" के मंत्र ६ और ७ कहते हैं ---
"यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥"
(यः तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति च सर्वभूतेषु आत्मानम्। ततः न विजुगुप्सते॥)
"यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥"
(यस्मिन् विजानतः आत्मा एव सर्वाणि भूतानि अभूत्। तत्र एकत्वम् अनुपश्यतः कः मोहः कः शोकः॥)
हिन्दी में भावार्थ --
जो सभी भूतों प्राणियों को आत्मा में ही देखता है, और सभी भूतों या सत्ताओं में आत्मा को; वह फिर सर्वत्र एक ही आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन के पश्चात्, किसी से घृणा नहीं करता।
पूर्ण ज्ञान, विज्ञान से सम्पन्न होने के कारण जिस मनुष्य के अन्दर यह परमोच्च चेतना जाग गयी है कि स्वयम्भू आत्मसत्ता ही स्वयं सभी भूत, सभी सत्ताएं या सम्भूतियां बना है, उस मनुष्य में फिर मोह कैसे होगा, शोक कहां से होगा जो सर्वत्र एकता का अनुभव करता है।

यो मां पश्यति सर्वत्र ---

आज प्रातः उठते ही श्रीमद्भगवद्गीता के दो चरम श्लोक स्मृति में सामने आये -- अध्याय ६ का ३०वाँ श्लोक, और अध्याय १८ का ६६वाँ श्लोक। सारी चेतना "मां"(माम्) शब्द पर अटक गई। किसी अज्ञात शक्ति ने कहा कि इस शब्द में जीवन और मृत्यु का रहस्य छिपा है, जिसके अनुसंधान से सारे संशय मिट जायेंगे। आँखें प्रसन्नता व हर्ष के आंसुओं से भर गई और एक भाव-समाधि लग गई। गुरुकृपा कहो या हरिःकृपा से एक बहुत बड़ा रहस्य अनावृत हुआ, और आगे के लिए मार्ग-दर्शन मिला। यह शब्द (माम् या मां) भगवान का श्रीमुख भी है (जिस पर कल चर्चा की जा चुकी है) और आत्म-तत्व भी। यह वास्तव में एक बहुत बड़ा रहस्य है जो गुरुकृपा से ही समझ में आ सकता है।

"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।६:३०॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ गुरु !! जय गुरु !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
७ अगस्त २०२१

भगवान वासुदेव - आत्मा से अभिन्न - हमारे ही आत्म-स्वरूप हैं ---

 भगवान वासुदेव - आत्मा से अभिन्न - हमारे ही आत्म-स्वरूप हैं ---

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गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - "जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सब को मुझ में देखता है, उस के लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझ से वियुक्त नहीं होता॥"
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उपरोक्त श्लोक में "मां" शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। आत्मा से अभिन्न भगवान वासुदेव हमारे ही आत्म-स्वरूप हैं। जो आत्म-स्वरूप वासुदेव हैं, वे ही समान रूप से सर्वत्र व्याप्त है। जो आत्म-स्वरूप वासुदेव को समस्त जड़-चेतन में देखता है, (तस्य अहम् न प्रणश्यामि) उसके लिये वासुदेव कभी नष्ट नहीं होते। ऐसा जो ज्ञानी है, वह भी वासुदेव भगवान की दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता।
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"अँखियन में झाँईं पड़ी, पंथ निहार निहार।
जिह्वा पे छाले पड़े, राम पुकार पुकार॥"
इस तरह के छंद असंगत है। हम सोचते हैं कि पता नहीं भगवान के दर्शन कब होंगे? लेकिन भगवान के दर्शन तो हमें निरंतर हर समय हो रहे हैं, लेकिन हम उन्हें पहिचानते नहीं। तभी हम दर्शन के लिए प्रार्थना करते हैं। भगवान निरंतर हर समय हमें दर्शन दे रहे हैं, किन्तु अज्ञान के कारण हम उन्हें नहीं जान रहे। संसार में सर्वत्र जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है, वह भगवान का ही छाया और प्रकाश के रूप में एक खेल है। सब में वे ही है। हमारी पृथकता का बोध भी मिथ्या है। हमारे माध्यम से भी भगवान ही स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं।
भगवान कहते हैं --
"सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६:३१॥"
अर्थात् - जो पुरुष एकत्वभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझ में स्थित रहता है।।
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यहाँ "एकत्व मा स्थितः" का अर्थ यही समझ में आता है कि -- एकत्व भाव से मुझ वासुदेव में स्थित। मैं कोई अन्य हूँ -- ऐसा समझना "एकत्वमास्थितः" नहीं है। अपने आप को अपने व्यापक वासुदेव रूप में सब प्राणियों के भीतर देखना चाहिए। अपने व्यापक आत्मरूप में प्रतिष्ठित रहें। ऐसे भक्त ज्ञानी योगी के मोक्ष को कोई नहीं रोक सकता।
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भगवान इस से पहले और इस से आगे क्या कहते हैं, इसके लिए गीता के छठे अध्याय का स्वाध्याय करना होगा। जो मुझे समझ में आया, और जिसे लिखने की प्रेरणा मुझे मिली वही लिख रहा हूँ।
ॐ तत्सत्॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
कृपा शंकर
६ अगस्त २०२१

हृदय कभी झूठ नहीं बोलता, अपने मन की न सुनें ---

निज जीवन में अब किसी भी तरह की कोई अभिलाषा, व किसी से भी किसी भी तरह की कोई आशा या अपेक्षा नहीं रही है। जीवन का अब कोई उद्देश्य नहीं है। प्रकृति - अपने नियमों के अनुसार सृष्टि का संचालन कर रही है, और करती रहेगी। उन नियमों को न जानना हमारी अज्ञानता है। एकमात्र अस्तित्व परमात्मा का है, जिन को यह जीवन समर्पित है। अवशिष्ट जीवन में उन की ही पूर्ण अभिव्यक्ति हो, उनकी ही इच्छा पूर्ण हो, और उन की स्मृति में ही यह जीवन व्यतीत हो जाये।

यह श्रावण का पवित्र माह है जो भगवान शिव की आराधना के लिए सर्वश्रेष्ठ है। आजकल पूरे विश्व का वातावरण बहुत अधिक प्रदूषित हो रहा है। माया का आवरण इस समय बहुत अधिक गहरा है।
एक बात अपनी पूरी सत्यनिष्ठा से अपने हृदय से पूछें कि राष्ट्र और समष्टि के हित में हम अपना सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं? अपना हृदय जो उत्तर दे उसी का अनुसरण करें। हृदय कभी झूठ नहीं बोलता। अपने मन की न सुनें।
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ अगस्त २०२१

राम जी अगर दीपक हैं तो मैं उनका प्रकाश हूँ ---

राम जी अगर दीपक हैं तो मैं उनका प्रकाश हूँ। वे पुष्प हैं तो मैं उनकी सुगंध हूँ। वे राम हैं तो मैं उनका सेवक हूँ। पूरी समष्टि ही राममय है। हे राम, तुम राम हो तो मैं तुम्हारा दास हूँ। तुम अगाध समुद्र हो तो मैं तुम्हारा मेघ हूँ। तुम चन्दन के वृक्ष हो तो मैं तुम्हारी महक हूँ। दिन-रात मुझे अपनी सेवा में रखो, और मेरे मन में किसी चीज की कामना ही उत्पन्न न हो। मेरी एकमात्र गति तुम हो, तुम्हारे सिवाय अन्य कोई विचार इस चित्त में प्रवेश ही न कर पाये। मेरी रक्षा करो। त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम् !!

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र:। स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र:। सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु| नान्यं जाने नैव जाने न जाने॥

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे। रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम:॥

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌। रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर॥
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सब कहते हैं ... "राम से बड़ा राम का नाम", पर श्रीरामचरितमानस में भुशुंडिजी कहते हैं --
"मोरे मन प्रभु अस विश्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा॥"

कुछ अनुभूतियाँ इतनी व्यक्तिगत हैं कि लिखी नहीं जा सकतीं| राम का चिंतन होते ही Laptop का key Board और Screen सब लुप्त हो जाते हैं| टंकण करने वाली अंगुलिया भी नहीं दिखाई देतीं| फिर कुछ भी लिखना संभव नहीं रहता| चेतना में राम के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं रहता|

८ अगस्त २०२०