भगवान वासुदेव - आत्मा से अभिन्न - हमारे ही आत्म-स्वरूप हैं ---
.
गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - "जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सब को मुझ में देखता है, उस के लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझ से वियुक्त नहीं होता॥"
.
उपरोक्त श्लोक में "मां" शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। आत्मा से अभिन्न भगवान वासुदेव हमारे ही आत्म-स्वरूप हैं। जो आत्म-स्वरूप वासुदेव हैं, वे ही समान रूप से सर्वत्र व्याप्त है। जो आत्म-स्वरूप वासुदेव को समस्त जड़-चेतन में देखता है, (तस्य अहम् न प्रणश्यामि) उसके लिये वासुदेव कभी नष्ट नहीं होते। ऐसा जो ज्ञानी है, वह भी वासुदेव भगवान की दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता।
.
"अँखियन में झाँईं पड़ी, पंथ निहार निहार।
जिह्वा पे छाले पड़े, राम पुकार पुकार॥"
इस तरह के छंद असंगत है। हम सोचते हैं कि पता नहीं भगवान के दर्शन कब होंगे? लेकिन भगवान के दर्शन तो हमें निरंतर हर समय हो रहे हैं, लेकिन हम उन्हें पहिचानते नहीं। तभी हम दर्शन के लिए प्रार्थना करते हैं। भगवान निरंतर हर समय हमें दर्शन दे रहे हैं, किन्तु अज्ञान के कारण हम उन्हें नहीं जान रहे। संसार में सर्वत्र जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है, वह भगवान का ही छाया और प्रकाश के रूप में एक खेल है। सब में वे ही है। हमारी पृथकता का बोध भी मिथ्या है। हमारे माध्यम से भी भगवान ही स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं।
भगवान कहते हैं --
"सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६:३१॥"
अर्थात् - जो पुरुष एकत्वभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझ में स्थित रहता है।।
.
यहाँ "एकत्व मा स्थितः" का अर्थ यही समझ में आता है कि -- एकत्व भाव से मुझ वासुदेव में स्थित। मैं कोई अन्य हूँ -- ऐसा समझना "एकत्वमास्थितः" नहीं है। अपने आप को अपने व्यापक वासुदेव रूप में सब प्राणियों के भीतर देखना चाहिए। अपने व्यापक आत्मरूप में प्रतिष्ठित रहें। ऐसे भक्त ज्ञानी योगी के मोक्ष को कोई नहीं रोक सकता।
.
भगवान इस से पहले और इस से आगे क्या कहते हैं, इसके लिए गीता के छठे अध्याय का स्वाध्याय करना होगा। जो मुझे समझ में आया, और जिसे लिखने की प्रेरणा मुझे मिली वही लिख रहा हूँ।
ॐ तत्सत्॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
कृपा शंकर
६ अगस्त २०२१
No comments:
Post a Comment