यो मां पश्यति सर्वत्र ---
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भगवान कभी अप्रत्यक्ष नहीं हो सकते। सारी सृष्टि में भगवान सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं, और वे स्वयं ही यह सारी सृष्टि हैं। मेरी चेतना विगतकल्मष यानि निष्पाप हो। मेरे लिए उनकी निरंतर उपस्थिती का बोध ही एकमात्र निरतिशय उत्कृष्ट सुख है। उनसे अन्यत्र सुखों की खोज एक छलावा है। मेरा अस्थिर चञ्चल मन अन्यत्र विचरण करना छोड़, भगवान में ही लगा रहे। यही भगवान से प्रार्थना है।
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आज प्रातः नींद से उठा, तो सर्वत्र समान रूप से एक हल्का सा पीतांबरी प्रकाश फैला हुआ था। प्रणव की ध्वनि सर्वत्र समान रूप से गूंज रही थी, और सारी सृष्टि, सारा अस्तित्व ही प्रणव के मध्य में था। गीता में दिये हुए भगवान के ये वचन अंतश्चेतना में स्पष्ट दिखाई दे रहे थे --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥"
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भगवान का दिया हुआ उपरोक्त संदेश पाकर मैं धन्य हुआ। सारी सृष्टि की आत्मा भगवान वासुदेव मुझ जैसे अकिंचन को भी याद कर सकते हैं, इससे बड़ी कृपा और क्या हो सकती है? सर्वात्मभाव से उनकी एकता का बोध हुआ। जो वे हैं, उनकी चेतना में वही मैं हूँ। यही मेरी ध्यान-साधना है। धैर्य बहुत बड़ा गुण है। हम शनैः शनैः धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरति को प्राप्त हों, और भगवान का ध्यान करें।
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भगवान वासुदेव का ध्यान ---
समस्त कामनाओं का परित्याग कर, अपने मन को सर्वव्यापी आत्मा यानि भगवान वासुदेव में स्थित कर (सब कुछ आत्मा ही है, उस से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है) अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करें। यही भगवान के ध्यान की सर्वश्रेष्ठ विधि है। आगे की बातें भगवान स्वयं समझा देंगे। प्रयास तो हमें ही करना होगा। जिसको प्यास लगी हो, वही तो पानी पीएगा।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०७ अगस्त २०२१
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