यह समष्टि ही परमात्मा है, उस से जुड़ना ही साध्य है .....
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यह समष्टि यानि सम्पूर्ण अस्तित्व ही परमात्मा है, यही नारायण है, यही परमशिव है, यही सब कुछ है| हम उस महासागर के जल की एक बूँद हैं| जब तक हम उस महासागर से पृथक हैं तब तक नाशवान हैं, पर उस महासागर से जुड़कर स्वयं भी महासागर हैं| उस अनंतता से जुड़ना ही साध्य है, यही साधना है|
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भगवान् उसी साधक को प्राप्त होते हैं जिसे वे स्वयं स्वीकार कर लेते हैं| वे उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ उन को ही स्वीकार करता है यानि उन को ही प्राप्त करना चाहता है, कुछ अन्य नहीं| महत्व उनको पाने की अभीप्सा का है, अन्य किसी चीज का नहीं| आध्यात्मिक साधनाएँ यदि उनको पाने की अभीप्सा बढ़ाती हैं तभी सार्थक हैं, अन्यथा निरर्थक हैं|
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भगवान कहते हैं .....
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||
अर्थात् जो भक्त जिस प्रकार से जिस प्रयोजन से जिस फलप्राप्ति की इच्छा से मुझे भजते हैं उनको मैं उसी प्रकार से भजता हूँ, अर्थात् उनकी कामना के अनुसार ही फल देकर मैं उनपर अनुग्रह करता हूँ|
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असली भक्त को तो मोक्ष की इच्छा भी नहीं हो सकती, वह प्रभु को ही पाना चाहता है, अतः प्रभु भी उसे ही पाना चाहते हैं| एक ही साधक को एक साथ "मुमुक्षुत्व" और "फलार्थित्व" नहीं हो सकते| जो फलार्थी हैं उन्हें फल मिलता है, और जो मुमुक्षु हैं उन्हें मोक्ष मिलता है| इस प्रकार जो जिस तरह से भगवान को भजते हैं उनको भगवान भी उसी तरह से भजते हैं| भगवान में कोई राग-द्वेष नहीं होता, जो उनको जैसा चाहते हैैं, वैसा ही अनुग्रह वे भक्त पर करते हैं| भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं|
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जैसे एक स्त्री और एक पुरुष सिर्फ एक दूसरे को ही पति-पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं, तभी वे एक-दूसरे के होते हैं, वैसे ही जो सिर्फ भगवान को ही वरता है, भगवान भी उसे ही वरते हैं| सिर्फ कामना करने मात्र से ही भगवान किसी को नहीं मिलते|
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भगवान कहते हैं .....
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||२:४४||
अर्थात् जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृढ़ संकल्पित बुद्धि नहीं होती है||
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भगवान आगे और भी कहते हैं .....
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||२:४५||
अनन्याश्िचन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||
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सबका सार यही है कि कोई भी किसी भी तरह की कामना नहीं होनी चाहिए, सिर्फ परमात्मा को उपलब्ध होने की ही गहनतम अभीप्सा हो, तभी भगवान प्राप्त होते हैं|
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हम अपने अनंताकाश में कालातीत ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार कर सकें, यही भगवान से प्रार्थना है| यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः || जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है, वहीं जय है| धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो|
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"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम||१८:७८||
(जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं पर श्री विजय विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है||) हर हर महादेव !
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हे प्रभु, एक बार हमारी ओर निहारिये तो अवश्य | आपकी कृपादृष्टि के अतिरिक्त हमें अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ नवम्बर २०१८
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यह समष्टि यानि सम्पूर्ण अस्तित्व ही परमात्मा है, यही नारायण है, यही परमशिव है, यही सब कुछ है| हम उस महासागर के जल की एक बूँद हैं| जब तक हम उस महासागर से पृथक हैं तब तक नाशवान हैं, पर उस महासागर से जुड़कर स्वयं भी महासागर हैं| उस अनंतता से जुड़ना ही साध्य है, यही साधना है|
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भगवान् उसी साधक को प्राप्त होते हैं जिसे वे स्वयं स्वीकार कर लेते हैं| वे उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ उन को ही स्वीकार करता है यानि उन को ही प्राप्त करना चाहता है, कुछ अन्य नहीं| महत्व उनको पाने की अभीप्सा का है, अन्य किसी चीज का नहीं| आध्यात्मिक साधनाएँ यदि उनको पाने की अभीप्सा बढ़ाती हैं तभी सार्थक हैं, अन्यथा निरर्थक हैं|
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भगवान कहते हैं .....
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||
अर्थात् जो भक्त जिस प्रकार से जिस प्रयोजन से जिस फलप्राप्ति की इच्छा से मुझे भजते हैं उनको मैं उसी प्रकार से भजता हूँ, अर्थात् उनकी कामना के अनुसार ही फल देकर मैं उनपर अनुग्रह करता हूँ|
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असली भक्त को तो मोक्ष की इच्छा भी नहीं हो सकती, वह प्रभु को ही पाना चाहता है, अतः प्रभु भी उसे ही पाना चाहते हैं| एक ही साधक को एक साथ "मुमुक्षुत्व" और "फलार्थित्व" नहीं हो सकते| जो फलार्थी हैं उन्हें फल मिलता है, और जो मुमुक्षु हैं उन्हें मोक्ष मिलता है| इस प्रकार जो जिस तरह से भगवान को भजते हैं उनको भगवान भी उसी तरह से भजते हैं| भगवान में कोई राग-द्वेष नहीं होता, जो उनको जैसा चाहते हैैं, वैसा ही अनुग्रह वे भक्त पर करते हैं| भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं|
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जैसे एक स्त्री और एक पुरुष सिर्फ एक दूसरे को ही पति-पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं, तभी वे एक-दूसरे के होते हैं, वैसे ही जो सिर्फ भगवान को ही वरता है, भगवान भी उसे ही वरते हैं| सिर्फ कामना करने मात्र से ही भगवान किसी को नहीं मिलते|
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भगवान कहते हैं .....
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||२:४४||
अर्थात् जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृढ़ संकल्पित बुद्धि नहीं होती है||
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भगवान आगे और भी कहते हैं .....
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||२:४५||
अनन्याश्िचन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||
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सबका सार यही है कि कोई भी किसी भी तरह की कामना नहीं होनी चाहिए, सिर्फ परमात्मा को उपलब्ध होने की ही गहनतम अभीप्सा हो, तभी भगवान प्राप्त होते हैं|
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हम अपने अनंताकाश में कालातीत ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार कर सकें, यही भगवान से प्रार्थना है| यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः || जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है, वहीं जय है| धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो|
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"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम||१८:७८||
(जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं पर श्री विजय विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है||) हर हर महादेव !
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हे प्रभु, एक बार हमारी ओर निहारिये तो अवश्य | आपकी कृपादृष्टि के अतिरिक्त हमें अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ नवम्बर २०१८