Thursday 15 November 2018

कुछ पुरानी स्मृतियाँ .....

कुछ पुरानी स्मृतियाँ .....

मैंने कभी भी अपनी स्वयं की फोटो और जहाँ जहाँ भी मैं गया, वहाँ के चित्र कभी संभाल कर नहीं रखे| कई एल्बम बनाए पर वे सभी इधर-उधर दब कर ही गुम हो गए| सभी चित्र मेरी स्मृति में तो हैं पर कभी भी उन को महत्त्व नहीं दिया| विश्व के कई देशों में जाने का अवसर मिला और कई बड़े महत्वपूर्ण स्थान देखे जैसे चीन की दीवार, कनाडा का नियाग्रा फॉल, ऑस्ट्रेलिया का ग्रेट बैरियर रीफ, मिश्र के पिरामिड, पनामा नहर, स्वेज़ नहर आदि आदि|

सबसे सुन्दर दृश्य जो मेरे दिमाग में अंकित हैं वे हैं कनाडा के नियाग्रा फॉल के और वहाँ पास में ही सैंट लॉरेंस नदी में नौकायन के समय के; व ऑस्ट्रेलिया में ग्रेट बैरियर रीफ के| अब तो पूरा विश्व मुझे परमात्मा का रूप ही दिखाई देता है| पूरी पृथ्वी इस दिमाग में है और चेतना में सारा ब्रह्मांड| हिमालय के भी कुछ आश्रमों में में साधना के उद्देश्य से गया हूँ| वहाँ के भौतिक सौन्दर्य पर कभी ध्यान नहीं दिया, चेतना में परमात्मा के सिवाय कुछ आया ही नहीं| 

अब लगता है कि यह पृथ्वी बहुत छोटी है| पूरे ब्रह्मांड में परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है| सारा ब्रह्मांड ही परमात्मा है| किसी भी वस्तु, व्यक्ति व स्थान का महत्त्व अब समाप्त हो रहा है| सब कुछ परमात्मा है, परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है ..... वासुदेवः सर्वम् इति | भगवान वासुदेव से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है|
अब धीरे धीरे हर बाहरी गतिविधि से विमुख होकर सत्संग व ध्यान साधना में ही अवशिष्ट जीवन बिता देने के अतिरिक्त अन्य कोई अभिलाषा नहीं है| आप सब निजात्माओं को नमन !
१५ नवम्बर २०१८

1 comment:

  1. मन में कुछ उथल पुथल सी चल रही है| स्वयं को व्यक्त करने के लिए कोई शब्द या हिंदी की कोई कविता इस समय याद नहीं आ रही है| उर्दू साहित्य की बहुत पुराने जमाने की दो बहुत पुरानी शानदार शायरी याद आ रही हैं, जिनमें पहली शायरी के लेखक दाग़ देहलवी हैं जो अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के पोते थे| दूसरी शायरी के लेखक मीर तकी मीर हैं जो सन १७२३ से १८१० तक थे| अतः ये दोनों शायरी बहुत पुरानी हैं, उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ.....
    (१)
    बुतान-ए-माहवश उजड़ी हुई मंजिल में रहते हैं
    कि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
    हज़ारों हसरतें वो हैं कि रोके से नहीं रुकतीं
    बहोत अरमान ऐसे हैं कि दिल के दिल में रहते हैं
    ख़ुदा रक्खे मुहब्बत के लिए आबाद दोनों घर
    मैं उन के दिल में रहता हूं वो मेरे दिल में रहते हैं
    ज़मीं पर पांव नख्वत से नहीं रखते परी-पैकर
    ये गोया इस मकां की दूसरी मंजिल में रहते हैं
    कोई नाम-ओ-निशां पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
    तखल्लुस 'दाग़' है और आशिक़ों के दिल में रहते हैं. (लेखक: दाग़ देहलवी)
    .
    (२)
    चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
    पात हरे हैं फूल खिले हैं कम कम बाद-ओ-बाराँ है
    रंग हवा से यूँ टपके है जैसे शराब चुवाते हैं
    आगे हो मय-ख़ाने के निकलो अहद-ए-बादा-गुसाराँ है
    इश्क़ के मैदाँ-दारों में भी मरने का है वस्फ़ बहुत
    या'नी मुसीबत ऐसी उठाना कार-ए-कार-गुज़ाराँ है
    दिल है दाग़ जिगर है टुकड़े आँसू सारे ख़ून हुए
    लोहू पानी एक करे ये इश्क़-ए-लाला-अज़ाराँ है
    कोहकन ओ मजनूँ की ख़ातिर दश्त-ओ-कोह में हम न गए
    इश्क़ में हम को 'मीर' निहायत पास-ए-इज़्ज़त-दाराँ है. (लेखक: मेरे तकी मीर)
    .
    इन्हें लिखकर कुछ संतुष्टि मिली है| धन्यवाद ! शुभ रात्रि !

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