Saturday, 25 January 2025

अब किसी भी तरह की आध्यात्मिक साधना/उपासना/ जप/तप आदि करना मेरे लिए संभव नहीं है --

 अब किसी भी तरह की आध्यात्मिक साधना/उपासना/ जप/तप आदि करना मेरे लिए संभव नहीं है। भगवान से भी कुछ नहीं चाहिए, नर्क में रखें या स्वर्ग में; मेरी इसमें कोई रुची नहीं है। कोई मोक्ष भी नहीं चाहिए। जो करना है वह वे करें, उनकी इच्छा। मुझे कोई भय या कामना नहीं है।

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लेकिन भगवान का भी मन नहीं लगता मेरे बिना। इसीलिए हर क्षण जबर्दस्ती मुझे याद करते हैं। मैं धर्म-अधर्म -- सबसे परे हूँ। मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। यह भगवान का ही लक्ष्य है कि वे मुझमें स्वयं को व्यक्त करें। मेरी कोई समस्या नहीं है। सारी समस्याएँ भी वे हैं, और समाधान भी वे ही हैं। मुझे इतनी जोर से पकड़ रखा है कि मैं सब बँधनों से मुक्त हो गया हूँ। जय हो भगवन। आपकी जय हो।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२३

परमात्मा से पृथकता का बोध हमारे पतन का कारण है ---

 परमात्मा से पृथकता का बोध हमारे पतन का कारण है ---

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कुछ होने का अहंकार हमें परमात्मा से दूर ले जाता है। वास्तव में जो कुछ भी है वह परमात्मा है। हम उनको समर्पित हों, हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। भगवान ने गीता में यही बताया है --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात - तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
Dedicate thyself to Me, worship Me, sacrifice all for Me, prostrate thyself before Me, and to Me thou shalt surely come. Truly do I pledge thee; thou art My own beloved.
Give up then thy earthly duties, surrender thyself to Me only. Do not be anxious; I will absolve thee from all thy sin.
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मिर्जा गालिब के इस शेर में सारा रहस्य छिपा है --
"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता॥
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भगवान से प्रेम नहीं है तो कितने भी शास्त्र पढ़ लो, कितनी भी तपस्या कर लो; कुछ नहीं मिलने वाला है। हमारी कोई औकात नहीं है कि हम कोई भक्ति कर लें। हमारे माध्यम से भगवान स्वयं ही अपनी भक्ति करते हैं। जो कुछ भी हो रहा है, वह भगवान कर रहे हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२३

विचित्र शिशु भगवान और मैं ---

 विचित्र शिशु भगवान और मैं


(इस आलेख में मुमुक्षुओं हेतु कुछ बड़ी काम यानि तत्व की दुर्लभ बातें हैं, जिन्हें समझना मेरा सौभाग्य है। जिन्हें भगवान से प्रेम है, वे इस आलेख को अवश्य पढ़ें)
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भगवान चाहे सर्वव्यापी हों, लेकिन मेरे लिए तो वे एक छोटे से शिशु की तरह हैं। उन्हें शिशु की तरह ही मनाना पड़ता है। उन का बाल-स्वभाव और बाल-हठ है। वे चाहते हैं कि मैं उन्हें अपना शत-प्रतिशत प्रेम दूँ, और इधर-उधर कहीं भी नहीं देखूँ। उन्हें मेरा ९९.९९% प्रेम भी पसंद नहीं है, उन्हें तो १००% + ही चाहिए। जब भी मेरा ध्यान इधर-उधर किसी भी अन्य विषय में चला जाता है, तो वे रूठ जाते हैं। फिर अन्य सब ओर से हटाकर उन में ही मन को लगाना पड़ता है, तभी वे प्रसन्न होते हैं। बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी हैं। उन्होने मुझे बहुत दुःखी और परेशान किया है, लेकिन वह भी मेरा आनंद था। वे कहते हैं कि उन्हें "अनन्य-भक्ति" से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह अनन्य-भक्ति, वेदान्त की पराकाष्ठा है। अब और उनसे पृथक नहीं रह सकता, अतः मैं भी एक शिशु की तरह उनके साथ एक हो गया हूँ।
मेरे में कोई बुद्धि नहीं है। इसीलिए ये बुद्धिहीन की सी बातें कर रहा हूँ।
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भगवान ने मुझे बहुत छोटा सा हृदय दिया, जिसमें रखने के लिए दुनियाँ भर के दुख-दर्द भी दे दिये। उन्हें रखना मेरे वश की बात नहीं थी। अतः उनका हृदय उन्हीं को बापस लौटा दिया है। इससे वे भी प्रसन्न है और मैं भी। मेरे पास कुछ है भी नहीं, और कुछ चाहिए भी नहीं। दुनियाँ भर के बंधन और पाश मेरे ऊपर डाल दिये, जैसे -- भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, दुःख-सुख, जरा-मृत्यु आदि आदि। इन पाशों ने मुझे पशु बना दिया है। कोई बात नहीं, अभी उनका समय चल रहा है। मेरा भी समय आ रहा है। भगवान भी कब तक बचेंगे? होना तो उन्हें भी मेरे साथ एक ही है।
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गीता में उन्होंने स्वयं को पाने का मार्ग बताकर कितनी बड़ी बात कह दी है --
"पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥८:२२||"
अर्थात् हे पार्थ ! जिस (परमात्मा) के अन्तर्गत समस्त भूत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण (जगत्) व्याप्त है, वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है।
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पुरुषार्थ क्या है? --
भगवान हम सब के इस शरीर रूपी पुर में शयन करते हैं, और सर्वत्र परिपूर्ण हैं, इसलिए भगवान का नाम पुरुष है। उन पुरुष से ही यह सारा संसार व्याप्त है, और उनके अतिरिक्त अन्य कुछ है भी नहीं, वे भगवान, अनन्य भक्ति से ही प्राप्य हैं।
"उन्हें प्राप्त करना ही पुरुषार्थ है।" यश-वैभव प्राप्त करना, और धन-संपत्ति एकत्र करना पुरुषार्थ नहीं है।
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उपासक का यह भाव रहता है कि मेरे से अन्य कोई है ही नहीं, मैं भगवान के साथ एक और सर्वत्र व्याप्त हूँ। इस आत्म-विषयक ज्ञान को ही भगवान श्रीकृष्ण ने 'अनन्य भक्ति' कहा है। भगवान से जब प्रेम ही हो गया है, तब उनके अतिरिक्त अन्य कुछ भी चिंतन, उन की दृष्टि में व्यभिचार है। सब कुछ भुलाकर हम भगवान की ही अनन्य भक्ति करें, जिसे गीता में भगवान ने "अव्यभिचारिणी-भक्ति" बताया है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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आज भगवान ने कुछ अधिक ही लिखवा दिया है। हे परमप्रेमी भगवन् , अब कुछ ऐसा करो कि सब कुछ भूल कर दिन-रात तुम्हारा ही भजन-चिंतन-ध्यान करता रहूँ, और तुम्हारे में विलीन होकर तुम्हारे साथ एक होकर, तुम्हारा प्रेम सब के हृदयों में जगा सकूँ। अन्य किसी अभिलाषा का जन्म ही न हो।
"अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ब्रह्मणे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२४ . पुनश्च: -- अब कुछ दिन मौज-मस्ती करेंगे। जब मौज-मस्ती से मन भर जाएगा तब बापस आ जाएँगे।
शब्दार्थ :---
मौज-मस्ती = भगवान का चिंतन, मनन, स्मरण, निदिध्यासन और ध्यान॥
व्यभिचार = भगवान से अन्यत्र कोई भी कामना या इच्छा॥
दुराचार = जो भगवान से दूर करे॥
सदाचार = जो सदा भगवान में मन को लगाए रखे॥
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मैं अगर फेसबुक पर कुछ दिन सक्रिय न रह सकूँ तो कोई बात नहीं, कुछ दिनों बाद बापस लौट आऊँगा। जय सियाराम !!