Friday 19 November 2021

आत्माराम हो जाना ही भगवत्-प्राप्ति है ---

 आत्माराम हो जाना ही भगवत्-प्राप्ति है ---

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भगवान ही एकमात्र सत्य हैं। वे ही हमारी आत्मा हैं। जो अपनी आत्मा में निरंतर रमण करते हैं, यानि जो सदा सर्वत्र भगवान को ही देखते हैं, उनके लिए "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता। उन्हें सर्वत्र और स्वयं में भी भगवान ही दिखाई देते हैं। शरणागत होकर पूर्ण प्रेम (भक्ति) से भगवान को समर्पित होने का निरंतर प्रयास ही साधना है। भगवत्-प्राप्ति हो गई तो सब कुछ प्राप्त हो गया। भगवान के अतिरिक्त हमें कुछ भी अन्य नहीं चाहिए। हमारा समर्पण सिर्फ भगवान के प्रति हो, किसी भी तरह की अन्य कोई कामना आये तो उसे विष के सामान त्याग देना चाहिए। भगवान की इच्छा ही हमारी इच्छा है, और उनकी कामना ही हमारी कामना है। साधना में कोई भी कठिनाई आये तो उसके निराकरण के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। भगवान का चिंतन और ध्यान इतना गहन हो कि भगवान ही हमारी चिंता करें, हमारी चिंता सिर्फ भगवान की ही हो। साधना इतनी गहन हो कि साध्य, साधन और साधक एक हो जाएँ। कहीं भी कोई भेद ना रहे।
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"यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।" यह "नारद भक्ति सूत्र" के प्रथम अध्याय का छठा सूत्र है, जो एक भक्त की तीन अवस्थाओं के बारे में बताता है। उस परम प्रेम रूपी परमात्मा को जानकर यानि पाकर भक्त प्रेमी पहिले तो मत्त हो जाता है, फिर स्तब्ध हो जाता है और अंत में आत्माराम हो जाता है, यानि आत्मा में रमण करने लगता है।
शाण्डिल्य सूत्रों के अनुसार आत्म-तत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग ही भक्ति है। भक्त का आत्माराम हो जाना निश्चित है। यह आत्माराम हो जाना ही भगवत्-प्राप्ति है।
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मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२१

अनन्य-योग व अव्यभिचारिणी-भक्ति ---

 अनन्य-योग व अव्यभिचारिणी-भक्ति ---

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सिर्फ भगवान की ही सुनो, अन्य किसी की भी नहीं। सद्गुरु के रूप में भी भगवान ही आते हैं। वे उसी मंत्र की, और उसी देव की साधना आपको बताएँगे जो आपके लिए परम कल्याणकारी हो। दीक्षा से पूर्व वे आपके अन्तर्मन में झांक कर देखते हैं। कई बार आपके अनेक पूर्वजन्मों में भी जाकर देखते हैं। उसी के अनुसार वे सही और अनुकूल समय में सही दीक्षा देते हैं, और साधना करवाते हैं। एक ही साधना सभी के अनुकूल नहीं हो सकती। जिस साधक को जो साधना अनुकूल होती है, वही बताई जाती है। सिद्ध गुरु शक्तिपात कर के दीक्षा देते हैं।
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मैं भक्ति, समर्पण और वेदान्त की बातें करता हूँ क्योंकि ये मेरे स्वभाव के अनुकूल हैं। जिनमें थोड़ी सी भी वेदान्त-वासना नहीं होगी, उनको मैं कभी भी, और कुछ भी नहीं समझा सकूँगा। गीता में दो बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं, जो यदि समझ में और व्यवहार में आ जायें तो भक्त का तुरंत उसी समय कल्याण हो जावे, यानि भगवान की प्राप्ति में फिर विलंब नहीं होता।
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गीता में भगवान ने "अनन्य" शब्द का कई बार, और "अव्यभिचारिणी भक्ति" शब्द का एक बार उल्लेख किया है। भगवान कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि॥१३:१०॥"
अर्थात् - “मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना (यह ज्ञान है)।”
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अनन्य-भक्ति और अव्यभिचारिणी-भक्ति अगर भगवान में हो जाय, तो भगवत्प्राप्ति बिलकुल भी कठिन नहीं है। जिसको भगवत्प्राप्ति के सिवाय और कोई सार वस्तु नहीं दिखती, ऐसा जिसका विवेक जाग गया है, उसके लिए भगवत्प्राप्ति सुगम हो जाती है। वास्तव में, भगवत्प्राप्ति ही सार है। भगवान को यदि प्राप्त करना है तो उन्हें अपना १००% प्रेम देना होगा। ९९.९९% भी नहीं चलेगा। उन के सिवाय अन्य कुछ भी हमें अच्छा न लगे। यदि अवचेतन मन में भी भगवान के सिवाय, अन्य कुछ भी प्रिय है तो वे नहीं आते। यही मन की निर्मलता है, जिसके बारे में रामचरितमानस में भगवान कहते हैं --
"निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥"
भगवान के सिवाय अन्य कुछ भी हमें यदि काम्य है तो यह भक्ति में व्यभिचार है। भगवान की प्राप्ति हमें अव्यभिचारिणी भक्ति से ही होती है। हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें। सारा जगत ब्रह्ममय हो जाये। ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो। गीता में भगवान कहते हैं --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात् - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं --
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥२;७१॥"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् -- जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर, स्पृहा-रहित, ममभाव-रहित, और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति प्राप्त करता है॥
हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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जब भगवान की परम कृपा से हमारी घनीभूत प्राण-चेतना कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर जाती है, तब लगता है कि अज्ञान क्षेत्र से निकल कर ज्ञान क्षेत्र में हम आ गए हैं। सहस्त्रार से भी परे ब्रह्मरंध्र का भेदन करने पर अन्य उच्चतर लोकों की, और उनसे भी परे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं। फिर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय -- एक ही हो जाते हैं। उस स्थिति में ही हम कह सकते हैं -- "शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि"।
फिर कोई अन्य नहीं रह जाता और हम स्वयं ही अनन्य हो जाते हैं। यही अनन्य-योग या अनन्य-भक्ति कहलाती है।
किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध महात्मा के मार्ग-दर्शन और सान्निध्य में साधना करें। निश्चित रूप से इसी जीवन में हम भगवान को प्राप्त कर सकेंगे।
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भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब महान आत्माओं को मैं नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ स्वस्ति॥
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२१

सत्संग --- अति संक्षेप में ज्ञान और अज्ञान क्या है? ---

 सत्संग --- अति संक्षेप में ज्ञान और अज्ञान क्या है?

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नाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्तिमागतः।
न कल्पते न जाति न शृणोति न पश्यति॥१८- २७॥(अष्टावक्र गीता)
अर्थात् - जो धीर पुरुष अनेक विचारों से थककर अपने स्वरूप में विश्राम पा चुका है, वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है, और न देखता ही है॥
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"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥१३:८॥"
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥१३:९॥"
"असक्तरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१३:१०॥"
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिर्व्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य की सेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मसंयम॥ इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन॥ आसक्तिरहित होना; पुत्र, स्त्री, घर आदिमें एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें चित्तका नित्य सम रहना॥ अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥ अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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सार रूप में समत्व ही ज्ञान है, और विषमता अज्ञान है।