अनन्य-योग व अव्यभिचारिणी-भक्ति ---
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सिर्फ भगवान की ही सुनो, अन्य किसी की भी नहीं। सद्गुरु के रूप में भी भगवान ही आते हैं। वे उसी मंत्र की, और उसी देव की साधना आपको बताएँगे जो आपके लिए परम कल्याणकारी हो। दीक्षा से पूर्व वे आपके अन्तर्मन में झांक कर देखते हैं। कई बार आपके अनेक पूर्वजन्मों में भी जाकर देखते हैं। उसी के अनुसार वे सही और अनुकूल समय में सही दीक्षा देते हैं, और साधना करवाते हैं। एक ही साधना सभी के अनुकूल नहीं हो सकती। जिस साधक को जो साधना अनुकूल होती है, वही बताई जाती है। सिद्ध गुरु शक्तिपात कर के दीक्षा देते हैं।
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मैं भक्ति, समर्पण और वेदान्त की बातें करता हूँ क्योंकि ये मेरे स्वभाव के अनुकूल हैं। जिनमें थोड़ी सी भी वेदान्त-वासना नहीं होगी, उनको मैं कभी भी, और कुछ भी नहीं समझा सकूँगा। गीता में दो बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं, जो यदि समझ में और व्यवहार में आ जायें तो भक्त का तुरंत उसी समय कल्याण हो जावे, यानि भगवान की प्राप्ति में फिर विलंब नहीं होता।
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गीता में भगवान ने "अनन्य" शब्द का कई बार, और "अव्यभिचारिणी भक्ति" शब्द का एक बार उल्लेख किया है। भगवान कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि॥१३:१०॥"
अर्थात् - “मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना (यह ज्ञान है)।”
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अनन्य-भक्ति और अव्यभिचारिणी-भक्ति अगर भगवान में हो जाय, तो भगवत्प्राप्ति बिलकुल भी कठिन नहीं है। जिसको भगवत्प्राप्ति के सिवाय और कोई सार वस्तु नहीं दिखती, ऐसा जिसका विवेक जाग गया है, उसके लिए भगवत्प्राप्ति सुगम हो जाती है। वास्तव में, भगवत्प्राप्ति ही सार है। भगवान को यदि प्राप्त करना है तो उन्हें अपना १००% प्रेम देना होगा। ९९.९९% भी नहीं चलेगा। उन के सिवाय अन्य कुछ भी हमें अच्छा न लगे। यदि अवचेतन मन में भी भगवान के सिवाय, अन्य कुछ भी प्रिय है तो वे नहीं आते। यही मन की निर्मलता है, जिसके बारे में रामचरितमानस में भगवान कहते हैं --
"निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥"
भगवान के सिवाय अन्य कुछ भी हमें यदि काम्य है तो यह भक्ति में व्यभिचार है। भगवान की प्राप्ति हमें अव्यभिचारिणी भक्ति से ही होती है। हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें। सारा जगत ब्रह्ममय हो जाये। ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो। गीता में भगवान कहते हैं --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात् - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं --
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥२;७१॥"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् -- जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर, स्पृहा-रहित, ममभाव-रहित, और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति प्राप्त करता है॥
हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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जब भगवान की परम कृपा से हमारी घनीभूत प्राण-चेतना कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर जाती है, तब लगता है कि अज्ञान क्षेत्र से निकल कर ज्ञान क्षेत्र में हम आ गए हैं। सहस्त्रार से भी परे ब्रह्मरंध्र का भेदन करने पर अन्य उच्चतर लोकों की, और उनसे भी परे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं। फिर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय -- एक ही हो जाते हैं। उस स्थिति में ही हम कह सकते हैं -- "शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि"।
फिर कोई अन्य नहीं रह जाता और हम स्वयं ही अनन्य हो जाते हैं। यही अनन्य-योग या अनन्य-भक्ति कहलाती है।
किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध महात्मा के मार्ग-दर्शन और सान्निध्य में साधना करें। निश्चित रूप से इसी जीवन में हम भगवान को प्राप्त कर सकेंगे।
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भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब महान आत्माओं को मैं नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ स्वस्ति॥
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२१