आत्माराम हो जाना ही भगवत्-प्राप्ति है ---
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भगवान ही एकमात्र सत्य हैं। वे ही हमारी आत्मा हैं। जो अपनी आत्मा में निरंतर रमण करते हैं, यानि जो सदा सर्वत्र भगवान को ही देखते हैं, उनके लिए "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता। उन्हें सर्वत्र और स्वयं में भी भगवान ही दिखाई देते हैं। शरणागत होकर पूर्ण प्रेम (भक्ति) से भगवान को समर्पित होने का निरंतर प्रयास ही साधना है। भगवत्-प्राप्ति हो गई तो सब कुछ प्राप्त हो गया। भगवान के अतिरिक्त हमें कुछ भी अन्य नहीं चाहिए। हमारा समर्पण सिर्फ भगवान के प्रति हो, किसी भी तरह की अन्य कोई कामना आये तो उसे विष के सामान त्याग देना चाहिए। भगवान की इच्छा ही हमारी इच्छा है, और उनकी कामना ही हमारी कामना है। साधना में कोई भी कठिनाई आये तो उसके निराकरण के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। भगवान का चिंतन और ध्यान इतना गहन हो कि भगवान ही हमारी चिंता करें, हमारी चिंता सिर्फ भगवान की ही हो। साधना इतनी गहन हो कि साध्य, साधन और साधक एक हो जाएँ। कहीं भी कोई भेद ना रहे।
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"यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।" यह "नारद भक्ति सूत्र" के प्रथम अध्याय का छठा सूत्र है, जो एक भक्त की तीन अवस्थाओं के बारे में बताता है। उस परम प्रेम रूपी परमात्मा को जानकर यानि पाकर भक्त प्रेमी पहिले तो मत्त हो जाता है, फिर स्तब्ध हो जाता है और अंत में आत्माराम हो जाता है, यानि आत्मा में रमण करने लगता है।
शाण्डिल्य सूत्रों के अनुसार आत्म-तत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग ही भक्ति है। भक्त का आत्माराम हो जाना निश्चित है। यह आत्माराम हो जाना ही भगवत्-प्राप्ति है।
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मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२१
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