Saturday, 20 November 2021

भगवान से परमप्रेम और उन की उपासना ही हमारा स्वधर्म है ---

 भगवान से परमप्रेम और उन की उपासना ही हमारा स्वधर्म है ---

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गीता में भगवान कहते हैं .....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:५५||"
अर्थात् अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है| अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भयको देनेवाला है||"
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जहाँ तक मुझे समझ में आया है ... भगवान की भक्ति (परमप्रेम) और उन की उपासना (समीप बैठना) ही हमारा स्वभाविक धर्म है, वैसे ही जैसे नदियों का धर्म महासागर में मिल जाना है| कोई भी नदी जब तक महासागर में नहीं मिलती तब तक चंचल और बेचैन रहती है| समुद्र में मिलते ही नदी समुद्र के साथ एक हो जाती है| उपासना विकास की प्रक्रिया है, जो शरणागति और समर्पण द्वारा मनुष्य को परमात्मा से एकाकार कर देती है| एक बार परमात्मा से परम प्रेम हो जाए फिर आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त हो जाता है| राग-द्वेष युक्त मनुष्य तो शास्त्र के अर्थ को भी उलटा मान लेता है, और परधर्म को भी धर्म होने के नाते अनुष्ठान करने योग्य मान बैठता है| परंतु उसका ऐसा मानना भूल है|
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सत्यनिष्ठा का अभाव, व लोभ और अहंकार, हमें स्वधर्म से दूर करते हैं| स्वधर्म में स्थिर होने के लिए भगवान की भक्ति और उन का यथासंभव खूब ध्यान करें|
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आप सब महान आत्माओं, महापुरुषों को सादर नमन ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२० नवंबर २०२०

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