असली गुरु दक्षिणा क्या है ??? .....
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सनातन धर्म की परम्परा है ..... गुरु दक्षिणा, जिसमें शिष्य गुरु का उपकार मानते हुए गुरु को स्वर्णमुद्रा, रौप्यमुद्रा (रुपया पैसा), अन्न-वस्त्र और पत्र-पुष्प अर्पित करता है|
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पर यह असली गुरु दक्षिणा नहीं है| ये तो सांसारिक वस्तुएं हैं जो यहीं रह जाती हैं| हालाँकि इस से शिष्य को अनेक लाभ मिलते हैं पर स्थायी लाभ कुछ नहीं मिलता|
अध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में वास्तविक गुरु-दक्षिणा कुछ और है जिसे वही समझ सकता है जिसका अध्यात्म में तनिक प्रवेश है|
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हमारी सूक्ष्म देह में हमारे मस्तक के शीर्ष पर जो सहस्त्रार है, जहाँ सहस्त्र पंखुड़ियों वाला कमल पुष्प है, वह हमारी गुरु-सत्ता है| वह गुरु का स्थान है|
उस सहस्त्र दल कमल पर निरंतर गुरु का ध्यान ही असली गुरु-दक्षिणा है|
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गुरु-चरणों में मस्तक एक बार झुक गया तो वह कभी उठना नहीं चाहिए| वह सदा झुका ही रहे| यही मस्तक यानि शीश का दान है| इससे हमारे तन, मन, धन और सर्वस्व पर गुरु का अधिकार हो जाता है| तब जो कुछ भी हम करेंगे उसमें गुरु हमारे साथ सदैव रहते हैं| यही है गुरु चरणों में सम्पूर्ण समर्पण|
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तब हमारे अच्छे-बुरे सब कर्म भी गुरु चरणों में अर्पित हो जाते हैं| हम पर कोई संचित कर्म अवशिष्ट नहीं रहता| तब गुरु ही हमारी आध्यात्मिक साधना के कर्ता हो जाते हैं|
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साधना का सार भी यही है की गुरु को कर्ता बनाओ| साधना, साध्य, और साधक; दृष्टा, दृश्य और दृष्टी सब कुछ हमारे गुरु महाराज ही हैं| हमारी उपस्थिति तो वैसे ही है जैसे एक यज्ञ में यजमान की उपस्थिति| हम को तो सिर्फ समभाव में अधिष्ठित होना है|
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अपने गुरु को सहत्रार में सहस्त्रदल कमल पर प्रतिष्ठित कर लो| वे ही हमारे कूटस्थ में आसीन होकर समस्त साधना और लोक कार्य करेगे| वे ही फिर हमें सच्चिदानंद से एकाकार कर देंगे|
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और भी स्पष्ट शब्दों में .....असली और अंतिम गुरु दक्षिणा होगी स्वयं गुरु के समान हो जाना यानी ब्रह्म हो जाना !
यही है सच्ची और असली गुरुदक्षिणा|
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दुर्लभ दर्शन साध का, दुर्लभ गुरु उपदेश ।
दुर्लभ करबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख ॥
मन ताजी चेतन चढै, ल्यौ की करै लगाम ।
शब्द गुरु का ताजणा, कोई पहुँचै साधु सुजान ॥
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् !
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सनातन धर्म की परम्परा है ..... गुरु दक्षिणा, जिसमें शिष्य गुरु का उपकार मानते हुए गुरु को स्वर्णमुद्रा, रौप्यमुद्रा (रुपया पैसा), अन्न-वस्त्र और पत्र-पुष्प अर्पित करता है|
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पर यह असली गुरु दक्षिणा नहीं है| ये तो सांसारिक वस्तुएं हैं जो यहीं रह जाती हैं| हालाँकि इस से शिष्य को अनेक लाभ मिलते हैं पर स्थायी लाभ कुछ नहीं मिलता|
अध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में वास्तविक गुरु-दक्षिणा कुछ और है जिसे वही समझ सकता है जिसका अध्यात्म में तनिक प्रवेश है|
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हमारी सूक्ष्म देह में हमारे मस्तक के शीर्ष पर जो सहस्त्रार है, जहाँ सहस्त्र पंखुड़ियों वाला कमल पुष्प है, वह हमारी गुरु-सत्ता है| वह गुरु का स्थान है|
उस सहस्त्र दल कमल पर निरंतर गुरु का ध्यान ही असली गुरु-दक्षिणा है|
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गुरु-चरणों में मस्तक एक बार झुक गया तो वह कभी उठना नहीं चाहिए| वह सदा झुका ही रहे| यही मस्तक यानि शीश का दान है| इससे हमारे तन, मन, धन और सर्वस्व पर गुरु का अधिकार हो जाता है| तब जो कुछ भी हम करेंगे उसमें गुरु हमारे साथ सदैव रहते हैं| यही है गुरु चरणों में सम्पूर्ण समर्पण|
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तब हमारे अच्छे-बुरे सब कर्म भी गुरु चरणों में अर्पित हो जाते हैं| हम पर कोई संचित कर्म अवशिष्ट नहीं रहता| तब गुरु ही हमारी आध्यात्मिक साधना के कर्ता हो जाते हैं|
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साधना का सार भी यही है की गुरु को कर्ता बनाओ| साधना, साध्य, और साधक; दृष्टा, दृश्य और दृष्टी सब कुछ हमारे गुरु महाराज ही हैं| हमारी उपस्थिति तो वैसे ही है जैसे एक यज्ञ में यजमान की उपस्थिति| हम को तो सिर्फ समभाव में अधिष्ठित होना है|
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अपने गुरु को सहत्रार में सहस्त्रदल कमल पर प्रतिष्ठित कर लो| वे ही हमारे कूटस्थ में आसीन होकर समस्त साधना और लोक कार्य करेगे| वे ही फिर हमें सच्चिदानंद से एकाकार कर देंगे|
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और भी स्पष्ट शब्दों में .....असली और अंतिम गुरु दक्षिणा होगी स्वयं गुरु के समान हो जाना यानी ब्रह्म हो जाना !
यही है सच्ची और असली गुरुदक्षिणा|
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दुर्लभ दर्शन साध का, दुर्लभ गुरु उपदेश ।
दुर्लभ करबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख ॥
मन ताजी चेतन चढै, ल्यौ की करै लगाम ।
शब्द गुरु का ताजणा, कोई पहुँचै साधु सुजान ॥
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् !