"धर्म और परमात्मा" ..... (भाग : २)
(स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के "धर्म और परमात्मा" विषय पर दिए प्रवचन क्रमांक ३ व ४ में से संकलित) ......
मनुष्य के लिए परमात्मा की खोज एक स्वाभाविक खोज है| लहर को शान्ति ही तब मिलेगी जब वह एक बार पुनः सागर में विलीन हो जाएगी| हर लहर उठती है केवल सागर में विलीन होने के लिए, यही उसका लक्ष्य है, यही उसका स्वभाव है और यही उसका धर्म भी है| सारी छटपटाहट अपने पूर्णत्व को पहचान लेने के निमित्त है| अंश वास्तव में अंश नहीं है, खण्ड वास्तव में खण्ड नहीं है, क्योंकि पूर्णता को खण्डित किया ही नहीं जा सकता; लेकिन अगर अज्ञान है तो वह दूर हो करके ही रहेगा| क्यों हुआ अज्ञान, कहाँ से आई खण्ड की प्रतीति, क्यों हुआ पूर्ण पर अपूर्ण अध्यासित, यह वह कैसे जान सकता है, जो स्वयं अपूर्ण है? अपूर्ण एक न एक दिन पूर्ण से मिलेगा तो अवश्य; पर कोई भी अंश, कोई भी खण्ड या कोई भी अपूर्ण यह कभी नहीं जान सकेगा कि पूर्ण क्या है, क्योंकि पूर्ण तो अनन्त अनन्त है| पूर्ण तो ऐसा विराट् है जिसका कहीं कोई छोर है ही नहीं, और है भी या नहीं, इसे जानने का कोई उपाय भी उसके पास नहीं है| जो पूर्ण है, अनन्त है, विराट् है, जो खण्ड या अंश के द्वारा, अपूर्ण के द्वारा जाना ही नहीं जा सकता है, उसे ही भारतीय दर्शन परम ब्रह्म कहकर सम्बोधित करता है, वही है परमात्मा, वही है विराट् महाशून्य जिसमें सर्व विलीन है| चेतना के इस रूप को जानने का मार्ग केवल "धर्म" से ही प्राप्त होता है|
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नारायण ! मनुष्य का यह भ्रम है कि यह उसके ऊपर निर्भर नहीं है कि परमात्मा को वह जान सके| जो भी जड़ या चेतन है उसे अपना विकास करना होगा और हर स्थिति में अन्ततः वह परमात्मा को ही प्राप्त करेगा| परमात्मा को जान लेना, मूर्च्छा से जाग्रत होना हर व्यक्ति की नियति है| जो भी जड़ या चेतन है, जो भी अंश या खण्ड है, जो कुछ भी है, जो कुछ भी नहीं है, जो कुछ हुआ या हो सकता है, उस सभी को अन्ततः ब्रह्म की चेतना में प्रवेश करना ही होगा|
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नारायण ! जो कहते हैं कि वे "नास्तिक" हैं और परमात्मा को नहीं मानते वे भ्रम में ही हैं, वे अभी भी अर्धमूच्छित हैं| अन्ततः ऊर्ध्वारोहण करते हुए परमात्मा को जानना, न जानना; ब्रह्म की सत्ता में, उस दिव्य चेतना में प्रवेश करना, न करना किसी भी "आस्तिक" या "नास्तिक" के हाथ में नहीं है| नास्तिक कुछ भी कहे, पर अन्ततः वह अपने उद्गम को अवश्य प्राप्त करेगा, वह पूर्णत्व को अवश्य प्राप्त करेगा| नास्तिक इतना ही तो कहता है कि "मूर्ति ब्रह्म नहीं है"| कोई ऐसा परमात्मा नहीं है जो सातवें आसमान के ऊपर रहता हो, या जो मूर्ति से प्रकट होता हो -- उसका यही तो विचार है| नास्तिक यही तो सोचता है कि इस दृश्य जगत् का कोई भी रचैयिता नहीं है, सुख-दुःख देवाधीन नहीं है, बल्कि मानव निर्मित है| उसके कोई भी तर्क यह सिद्ध नहीं करते कि परम सत्य की सत्ता नहीं है, न इन तर्कों से यह सिद्ध होता है कि जगत् में सर्वव्यापी ईश्वत्व ऊर्जा नहीं है, न यह सिद्ध होता है कि जो ऊर्जा है वह अनियन्त्रित, अनुशासनहीन व अराजक है| विज्ञान की आधुनिकतम खोज अब यह सिद्ध कर चुकी है कि हमारे "सौरमण्डल" में ही नहीं बल्कि सकल ब्रह्माण्ड में एक विद्युत ऊर्जा सतत प्रवाहित हो रही है| यह विद्युत् ऊर्जा ही सकल ब्रह्माण्ड का मूल तत्त्व है, अतः जो भी जड़ या चेतना पृथ्वी पर या कहीं पर भी है वह इस ऊर्जा का ही रूप है| पाषाण जो सर्वाधिक जड़ है वह भी जिन परमाणुओं से बना है यदि उन्हें विखण्डित किया जाए तो अन्त में हमें केवल विद्युत् ऊर्जा ही प्राप्त होगी| पाषाण, जिसे जड़ माना जाता है वह भी ऊर्जा का ही एक अत्यधिक सघन रूप है| सारे ब्रह्माण्ड में जो विद्युत् ऊर्जा परिव्याप्त है, वह कहाँ से आई, इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है|
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विज्ञान जिसे विद्युत् ऊर्जा कहकर सम्बोधित करता है, "वेदान्त" उसे चिद्सत्ता कहकर सम्बोधित करता है| सारा ब्रह्माण्ड विद्युत् ऊर्जा के अनन्त अनन्त सागर में डूबा हुआ है और समस्त आकाशगंगा में निहारिकाएँ, नक्षत्र, तारामण्डल, सौरमण्डल, पृथ्वी व जड़ या चेतन ही नहीं, बल्कि सारा विचार और शब्द तक के रूप में जो भी व्यक्त या अव्यक्त है, यह सबका सब मूलतः सतत प्रवाहित अखण्ड विद्युत् ऊर्जा ही है| समष्टि में व्याप्त इस अनन्त विद्युत् ऊर्जा को आध्यात्मिक भाषा में "परम ब्रह्म" कहा जाता है| नास्तिक इसे क्या नाम देता है, यह वह जाने| नाम से कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता| यह समष्टि का सारा का सारा जोड़ ही परमात्मा है| नास्तिक को स्वयं के अपने अहम् के कारण जो भी भेद प्रतीत होता है और देश, काल और परिस्थिति से प्रभावित व संचालित होता है वह भेद सत्य नहीं है; पर फिर भी वह सत्य प्रतीत होता है| यथार्थ यह है कि लहर सागर का ही एक अंश है, पर मूल तत्त्व, स्थायी व शाश्वत तत्त्व सागर है, लहर नहीं| तात्त्विक दृष्टि से सागर और लहर में कोई अन्तर नहीं है|
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इस सत्य को भारत के ऋषियों और मनीषियों ने समझा और उपनिषदों के रूप में ये अमूल्य विचार और चिन्तन आज भी उपलब्ध है; पर दुर्भाग्य से इनपर सही चर्चा व इनकी व्याख्या नहीं हो पा रही है| धर्म को उसके शुद्ध और प्रबुद्ध रूप में स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे अन्धविश्वास, अवतारवाद, पुरोहितवाद और पुजारीवाद, पोपवाद तथा पैगम्बरवाद से बचाया जाए|
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धर्म का लक्ष्य है स्वयं के अन्तस् को शुद्ध करना| दिव्यता की ओर चेतना को मोड़ने की कला का नाम है धर्म| धर्म से परम सत्ता अर्थात् परमात्मा की सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, अखण्डता का ज्ञान होता है व व्यक्ति की चेतना मूर्च्छा से मुक्त होकर सतत जागरूकता की पूर्ण सजगता में प्रवेश करती है| जो व्यक्ति अपनी चेतना को जितना अधिक जाग्रत कर लेता है वह उतना ही अधिक चैतन्य अर्थात् परम सत्ता में प्रवेश पा लेता है| चेतना के जागरण का अर्थ है अहङ्कार से प्रकाश की ओर बढ़ना| अहङ्कार की दासता से स्वयं को मुक्त करना ही चेतना के जागरण की प्रथम अवस्था है| धर्म ही व्यक्ति को अहम् से मुक्ति का उपाय बताता है और "दिव्यारोहण" में सहायक बनाता है|
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नारायण ! धर्म एक क्रान्ति है , एक अन्तर्बोध है , अन्तर्यात्रा का उपाय है और स्वयं को जानने की विधि है| स्वयं को जाने बिना जो जगत् को जानने की चेष्टा करता है, वह भटकता है, अशान्त रहता है, उद्वेलित रहता है| व्यक्ति हर युग में अशान्त रहा और आज भी अशान्त है तथा इसका मूल कारण है कि वह अन्तर्मुखी नहीं होना चाहता| जो अन्तर्यात्रा पर नहीं जा सकता वह कभी धार्मिक नहीं हो सकता| परम आनन्द बाहर की तपश्चर्या से नहीं मिलता| स्वयं को कष्ट देने से, स्वयं को जलाने और गलाने से, स्वयं को मारने से व सुखाने से "दिव्य आनन्द" की अनुभूति नहीं होती| दिव्य आरोहण के पथ पर चलने के लिए स्वयं को पहचानना अनिवार्य है और जो स्वयं को सताते हैं, सुखाते हैं, वे स्वयं के वास्तविक स्वरूप को पहचान नहीं सकते|
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धार्मिकता एक अन्तर्बोध है| धार्मिकता का सम्बन्ध है अन्तस् की जागरूकता से| अन्तस् की सतत जागरूकता और चैतन्य के प्रति सजगता ही वास्तविक धार्मिकता है| यह सचेतन बोध ही व्यक्ति की वास्तविक ऊर्जा और शक्ति है| धर्म अर्थात् धार्मिकता हमें सचेतन बोध की ओर ले जाती है, अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाती है| सचेतन बोध का अर्थ होता है ... सतत प्रवाहित चैतन्य के प्रति हमारी सजगता, सर्वव्यापी, चिद्सत्ता के प्रति हमारी पूर्ण जागरूकता, हमारा यह बोध कि एक सत्ता, एक ही ईशत्व सर्वत्र व्याप्त है, जड़-चेतन जो कुछ भी है, वह कहीं से कुछ भी पृथक् नहीं, वह भेदहीन अखण्ड है| जो भेद के रूप में भासित है, जो अध्यासित है वह हमारा अज्ञान है| धर्म इसी अज्ञान का विनाश करता है और इस अर्थ में वह प्रलयंकारी "शिव" है. "महाकाल" है, वह "मृत्यु" है; पर मृत्यु का यह रूप सृजन की सत्ता को नए आयाम देने के निमित्त है| मृत्यु ही तो सृजन की प्रथम सीढ़ी है| मृत्यु न हो तो कोई भी नव सृजन सम्भव ही नहीं है| सृजन ही मृत्यु का धर्म है| जो इस धार्मिकता का बोध प्राप्त कर लेता है, वह स्वयं के अज्ञान पर, स्वयं के अशान्ति पर विजय पा लेता है, और उसे मिल जाता है वह द्वार जहाँ से वह शाश्वत आनन्द में प्रवेश कर सकता है| अगर कोई ईश्वर है या परमात्मा है तो वह "परम आनन्द" में ही है|
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कटु यथार्थ यह है कि स्वयं से पृथक् भगवान् या परमेश्वर अथवा ईश्वर की कल्पना, महज एक कल्पना है, एक ऐसा अन्धविश्वास जो हज़ारों वर्षों से चला आ रहा है| एक बार भी यदि हम अपने से पृथक किसी भी भगवान् , किसी भी ईश्वर या परमात्मा का निर्णय कर लेते हैं, तो इससे हम परम चैतन्य को, परम भगवत्ता को, परम ईशत्व को सीमित करने की चेष्टा करते हैं| जो पूर्ण है, असीमित है, जो अनन्त अनन्त है वह सीमित कैसे होगा ? भगवान् न कोई व्यक्ति है, न कोई ऐसा विशेष पारलौकिक अस्तित्व जो समष्टि से, सृष्टि से, जड़-चेतन से पृथक् हो| "धर्म" का नाम लेकर उसकी आड़ में हज़ारों वर्षों से न जाने कितने "भगवान्", न जाने कितने "ईश्वर", न जाने कितने "परमात्मा" गढ़े गए और उनके कारण हज़ारों हज़ार युद्ध हुए, न जाने कितना रक्तपात हुआ, न जाने कितना अन्याय और शोषण हुआ| यदि युद्ध , रक्तपात , अन्याय और शोषण से मुक्ति पानी है तो स्वयं से पृथक्, किसी भी अस्तित्व में विराजमान परमात्मा , भगवान् या ईश्वर से मुक्ति पानी होगी|
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नारायण ! आवश्यता इस बात की नहीं है कि कोई नया भगवान्, नया ईश्वर या नया परमात्मा गढ़ा जाए; आवश्यकता इस बात की भी नहीं है कि पुराने जितने भी भगवान् हैं, ईश्वर हैं, परमात्मा हैं, उनमें से किसी एक को चुनकर उसे समस्त मानवता से मान्यता दिलवा दी जाए| यदि वास्तव में आज कोई आवश्यकता है तो केवल इस बात की कि मानव अन्तर्मुखी बने, अपने में प्रवेश करके इस सत्य को जाने कि एक ही चैतन्य सर्वव्यापी है| यह चैतन्य सार्वकालिक है, अनन्त अनन्त है, सार्वदेशिक है|
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यह चैतन्य पूर्ण और अखण्ड है -- "जो मैं हूँ वही जगत् है"| आवश्यकता इस बात की है कि ऐसा आत्मबोध जाग्रत हो कि उस बोध से सर्वव्यापी भगवत्ता को, सर्वत्र व्याप्त ईश्त्व को, परम आत्मतत्त्व को हम देख सकें| न केवल उसे देखें, वरन् देखकर उसमें डूब जाएँ, उसमें रंग जाएँ, और पूर्णतः रूपान्तरित हो जाएँ| इस मानवता और मानव को अपने से पृथक् कोई भगवान् नहीं चाहिए, उसे केवल सतत, अखण्ड, पूर्ण भगवत्ता का अन्तर्बोध चाहिए| वास्तविक धर्म इसी विधि और व्यवस्था की ओर संकेत करता है| संकेत मिलने और समझने के उपरान्त हर व्यक्ति को भगवत्ता प्राप्त करने के लिए अपना मार्ग स्वयं चुनना होगा, अपना दीपक स्वयं प्रज्वलित करना होगा, अपना प्रकाशक व अपना "गुरु" स्वयं बनना होगा|
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बात , जिसे अच्छी तरह से समझ लिया जाना चाहिए कि धर्म का सम्बन्ध ..... पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, जप-तप से ही नहीं है| इनके बिना भी व्यक्ति धार्मिकता व भगवत्ता को उपलब्ध हो सकता है| पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन को वास्तव में धर्म नहीं कहा जा सकता, ये समस्त कर्म मात्र कर्मकाण्ड हैं, जिनसे हमारे मन में धर्म को जानने व उसका अनुभव करने की जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है| भजन-पूजा से हम उस द्वार तक पहुँच सकते हैं, जिसके बाद धर्म का क्षेत्र प्रारम्भ होता है, पर इस द्वार पर पहुँचने के बाद हमें एक बड़ी गहरी छलांग लगाने के लिए तैयार होना पड़ेगा| यह छलांग लगाते समय हमें प्रतीत होगा कि चारों और अनिश्चितता है, क्योंकि जहाँ हम छलांग लगाने जा रहे हैं , वह हमें ज्ञात नहीं है, बल्कि यह कहा जाए कि हमें अज्ञात में छलांग लगानी है| धर्म इस अज्ञात में छलांग लगाने की विधि की ओर संकत तो करता है, पर छलांग लगाने के लिए किस कला का प्रयोग करें, यह छलांग लगानेवाले पर अर्थात् जिज्ञासु पर ही छोड़ देता है| बिना छलांग लगाए आत्मज्ञान उपलब्ध नहीं होता और बिना आत्मज्ञान के परमात्मा उपलब्ध नहीं है| एक और बात समझ ली जानी चाहिए कि छलांग लगाने का उद्देश्य केवल आत्मज्ञान व परमात्मा को प्राप्त करना ही नहीं है, बल्कि उद्देश्य की इस श्रृंखला में प्रथम उद्देश्य होगा स्वयं को मिटाना, अहम् का पूर्णरूप से विसर्जन, द्वैत का अन्त, "मैं" की मृत्यु| जब तक "मैं" की सत्ता नहीं मिटती और द्वैत की सत्ता संकेत में भी बाकी रहती है तब तक परमशिव परमात्मा प्रकट ही नहीं होता| यहाँ परमात्मा का प्रकट होना इस वैचारिक स्थिति की कोई बहुत सही अभिव्यक्ति नहीं है| परमात्मा तो सर्वत्र है, वह कहीं न तो गया है, न छिपा है, न खोया है, पर जबतक द्वैत प्रधान चेतना का भाव सर्वोपरि है तबतक उसे जाना नहीं जा सकता| जब "मैं" की सत्ता मिट जाती है, द्वैत भाव समाप्त हो जाता है और केवल परमात्मा की सत्ता शेष बचती है, तभी परमात्मा उपलब्ध हो जाता है| परमात्मा के दर्शन, उसकी उपलब्धि, उसका प्रकाट्य, उसका अवतरण, यह सब वास्तव में कुछ भी नहीं होता| ऐसा कुछ इसलिए नहीं होता क्योंकि वह सर्वत्र व शाश्वत है| लेकिन सत्य बोध, सचेतन बोध होगा ही तब, जब व्यक्ति अपने मन और अन्तस् के स्तर पर पूर्णरूप से जाग्रत, सचेतन व रूपान्तरित हो जाए| लहर समुद्र को जान नहीं सकती, लहर समुद्र में लीन होकर ही समुद्र बन जाती है| लहर की पृथक् सत्ता का बोध समाप्त होते ही समुद्र की जो वास्तविकता है उसका अस्तित्व संज्ञान में आता है| धर्म वह विद्या है जिससे अहम् बोध अर्थात् द्वैत बोध के पार जाने का मार्ग मिलता है| द्वैत बोध के पार ही सर्वत्र एक अनन्त अनन्त चैतन्य है, केवल चिद्सत्ता है, एक परम-आत्मा का अस्तित्व है| वही अस्तित्व सत्य है, वही ज्ञान है, वही शाश्वत है, वही अमृत है और वही अभिनव धर्म है| इति शम्
नारायण स्मृतिः
पूज्य स्वामी जी को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम ! ॐ नमो नारायण ! ॐ ॐ ॐ !!