Saturday 12 May 2018

"धर्म और परमात्मा" (१)..... स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी प्रवचनों में से संकलित (भाग १)

"धर्म और परमात्मा" ..... (भाग : १)
(स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के "धर्म और परमात्मा" विषय पर दिए प्रवचनों क्रमांक १ व २ में से संकलित) .....
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धर्म का परमात्मा से क्या सम्बन्ध है? क्या परमात्मा केवल धर्मात्मा को मिलेगा? कौन है धर्मात्मा? क्या धर्म का अभाव परमात्मा तक पहुँचने के सभी मार्ग अवरुद्ध कर देगा? क्या अध्यात्म ही धर्म है और धर्म ही अध्यात्म? क्या मानव की तरह परमात्मा का भी कोई धर्म है? यदि मानव परमात्मा की सत्ता को नकार दे तो क्या उसे इस पृथ्वी पर रहने का अधिकार नहीं? कौन करेगा यह व्याख्या कि क्या है धर्म और क्या है परमात्मा? और यदि किसी ने यह व्याख्या कर भी दी तो उसकी ही व्याख्या सत्य है, इसका क्या प्रमाण?
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भारतीय दर्शन की मान्यता यह है कि धर्म का स्वरूप अनन्त है तथा परमात्मा भी अद्वैत और अनन्त है| अनन्त की कभी भी अन्तिम और पूर्ण व्याख्या नहीं हो सकती| अनन्त को कभी भी विधायक रूप में अर्थात् सकारात्मक रूप में जाना ही नहीं जा सकता| अपनी असीमता के कारण सब जानने के उपरान्त भी अनन्त का वास्तविक रूप अज्ञेय ही रह जाएगा| अज्ञेय का यह रहस्य समझे बिना न तो धर्म को जाना जा सकता और न परमात्मा को| धर्म और परमात्मा अपनी सम्पूर्णता में भी अज्ञात नहीं है, पर अज्ञेय अवश्य है| अज्ञात का अर्थ होता है जिसके बारे में कुछ भी मालूम न हो और अज्ञेय का अर्थ है ज्ञात तो है, अनुभव व अनुभूति भी हो गई है, पर अभी भी बहुत कुछ जानना शेष है और सदैव ही बहुत कुछ जानना शेष रहेगा| भारतीय ऋषि सत्य की इस स्थिति को "नेति-नेति" कहकर व्यक्त करते हैं|
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नारायण! जब धर्म और परमात्मा के अनन्त स्वरूप हैं, तो उनके विभिन्न स्वरूपों के प्रति मानव मन की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होगी और इसी प्रतिक्रिया से उसकी प्रतिबद्धता का निर्माण भी होगा| प्रतिबद्धता का अर्थ होता है एक विशेष व्याख्या और विचार के प्रति समर्पण| यदि यह समर्पण आधा-अधूरा है तो प्रतिबद्धता भी आधी-अधूरी होगी और यदि समर्पण सम्पूर्ण है तो प्रतिबद्धता भी सम्पूर्ण होगी| कोई इन्सान जब अपने आपको "धर्म" और "परमात्मा" का विशेष ज्ञाता मानता है, और जब वह अपने विचार, अपनी आस्था और अपनी व्याख्या तथा मत को समाज पर थोपना चाहता है तो उससे ही "सम्प्रदाय" का जन्म होता है| यह स्थिति सामान्य व्यक्ति को तथा उन्हें जो उसके अनुगामी हैं, दुराग्रही तक बना देती है| हठवादिता और अन्धविश्वास का जन्म भी इसी मानसिकता के कारण होता रहा है|
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यह अतिप्रतिबद्धता ही समाज को रूढ़िवादी बनाती है और रूढ़ता तथा अतिवाद से सम्मोहित मन नए विचार, तर्क अथवा समाधान के लिए अपने दरवाजे बन्द कर लेता है| इस मनोवैज्ञानिक समस्या का उपचार और समाधान तो है, पर इन्सान को स्वतन्त्र और पूर्वाधारित चिन्तन से मुक्ति दिलाए बिना यह सम्भव नहीं| दूसरे के विचारों, अनुभवों, अनुभूतियों को अपनी स्वयं की अनुभूति या अनुभव मानकर जब इन्सान इस क्षेत्र में उतरता है तब शारीरिक रूप से चेतन होते हुए भी मानसिक व बौद्धिक रूप से अचेतन की अवस्था में ही रहता है| यह अचेतनता ही उसकी बौद्धिक मूर्च्छा है और बौद्धिक रूप से मूर्छित व्यक्ति अन्ततः न तो सत्य का अनुभव कर सकता है, न धर्म का और न परमेश्वर का|
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नारायण ! धर्म अपनी सूक्ष्मता में कभी भी सामुहिक स्वरूप धारण नहीं कर सकता| धर्म वैयक्तिक स्वरूप में ही धारण किया जा सकता है, सामुहिकता में प्रवेश करते ही धर्म अपना मौलिक स्वभाव खोकर केवल "कर्मकाण्ड" बनकर रह जाता है| इस स्थिति में रूपांतरित "धर्म" अपना वास्तविक सौन्दर्य खोकर मानवता को विभाजित करता है, उसे साम्प्रदायिक बनाता है तथा आध्यात्मिक चेतना के जागरण में सहायक न होकर व्यक्ति को संकीर्ण और अनुदार बना देता है|
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नारायण! सत्य को समझने की जो अभीप्सा और प्यास है, वह भी धर्म का एक रूप है| धर्म से प्रसूत यह अभिप्सा ही व्यक्ति को परमात्मा के निकट ले जाती है| परमात्मा को अर्थात् जो परम है, अनन्त है, उसे जानने की यह प्यास, यह अभिप्सा ही मानव के अन्तस् के विकास का मूल कारण है| प्यास की यह तीव्रता ही उसकी सफलता का रहस्य है| पर यहाँ तीव्रता का होना नितान्त वैयक्तिक है| ऐसा कोई उपाय नहीं है कि दो व्यक्तियों को समान तीव्रता की प्यास लगे| यहाँ यह समझ लेने की बात है कि हर व्यक्ति की प्यास की तीव्रता भी पृथक्-पृथक् होती है और तृप्ति की सीमा भी| हर व्यक्ति का एक अपना प्राणिक, मानसिक व बौद्धिक स्तर होता है| प्राणिक, मानसिक व बौद्धिक स्तर की इस भिन्नता से ही हर इन्सान के व्यक्तित्व का निर्माण होता है| इसी से उसके संस्कार बनते हैं और उसका स्वभाव व आचरण भी उसकी अपने निज की प्राणिक , मानसिक व बौद्धिक ऊर्जा पर निर्भर करता है|
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नारायण! जब दो व्यक्तियों के स्वभाव एक नहीं हैं, संस्कार एक नहीं हैं, उनकी मानसिक व बौद्धिक ऊर्जा समान नहीं है तो उनका धर्म भी पृथक्-पृथक् होना चाहिए| "धर्म" अर्थात् आध्यात्मिक प्रगति के लिए किस व्यक्ति को किस मार्ग पर चलना है, यह निर्णय अन्ततः हर व्यक्ति को स्वयं करना होगा, तभी उसे सही पथ मिलेगा| इसीलिए भारतीय दर्शन की यह मान्यता है कि धर्म वैयक्तिक कर्म और वैयक्तिक चेतना है| जो "मेरा धर्म" है वह "तुम्हारा धर्म" नहीं हो सकता; पर पश्चिम में "धर्म" का चिन्तन इस रूप में विकसित नहीं होने दिया गया| पश्चिम की मान्यता है कि "धर्म" यदि है तो वह व्यक्ति आश्रित नहीं है, बल्कि वर्ग आश्रित है, समूह आश्रित है| पश्चिम में धर्म का सम्बन्ध बाह्य चेतना से है| वहाँ धर्म का मार्ग कोई एक विशेष महापुरुष ही बताता है और इसी बताए हुए मार्ग पर चलने के लिए व्यक्ति को हर तरह से प्रेरित और सम्मोहित किया जाता है| पश्चिमी चिन्तन की यह प्रवृत्ति ही साम्प्रदायिकता के लिए सर्वाधिक उर्वरक भूमि सिद्ध हुई है| वैसे साम्प्रदायिकता का जन्म कहीं भी हो सकता है| उस स्थिति में भी साम्प्रदायिकता का जन्म हो सकता है जब ऐसे व्यक्तियों का समूह बनने लगे जो "धर्म" को केवल "वैयक्तिक चेतना, "वैयक्तिक प्रवृत्ति" के रूप में जानते हों; लेकिन यह सत्य होते हुए भी सत्य नहीं है, क्योंकि जो भी व्यक्ति अपना समूह बनाते हैं, उन्हे स्वयं के चिन्तन पर पूरा विश्वास नहीं होता| समूह बनता ही तब है जब व्यक्ति भय से, अज्ञान से पीड़ित होता है| ऐसे व्यक्ति बात तो समष्टि, सात्त्विकता और धर्म की करते हैं, पर उनका अन्तस् पूर्ण प्रकाशित नहीं होता|
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वही व्यक्ति पूर्ण आस्थावान् होता है, जिसकी कथनी और करनी में अन्तर न हो| जब प्रत्येक व्यक्ति का अपना विशेष "निज धर्म" होगा, तो वह परम सत्य को जानने के मार्ग पर अपने "निज धर्म" के द्वारा विश्वासपूर्वक चल रहा होगा| इस स्थिति में वह दूसरे के "निज धर्म" में कहीं हस्तक्षेप करने की सोचेगा भी नहीं|
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जिसके मन में मूर्च्छा से जागने की अभीप्सा पूर्ण रूप से जागृत हो गई हो और जो परम सत्य को जानने की प्यास से अत्यधिक व्याकुल हो चुका हो वह फिर अपनी प्यास बुझाने के लक्ष्य पर केन्द्रित हो जाता है| अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के अतिरिक्त उसे कुछ दिखाई या सुनाई ही नहीं देता| यही तो है तीव्रतम और परम प्यास की वास्तविक मनोदशा| इस मनोदशा से, इस व्याकुल चेतना से उपजा "धर्म" केवल सात्त्विक होगा| वही होगा "कर्म प्रधान धर्म"| उसे ही कहा जाएगा ... "सत्यसिक्त कर्तव्य", एक ऐसा कर्तव्य जो कर्तव्य की भावना से नहीं किया जाता, बल्कि जो स्वभाववश आत्मप्रेरित होकर किया जाता है|
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वास्तविक आध्यात्मिक कर्म किया नहीं जाता, वह अनायास हर क्षण स्वतः हुआ करता है| जैसे सूर्य प्रकाश देने का कर्म नहीं करता, वह बस प्रकाश देता है; क्योंकि प्रकाश देना उसका स्वभाव है| जैसे प्रकाश देना सूर्य की सत्ता की पहचान है, उसी प्रकार जो वास्तव में "दिव्य मानव" है वह ही पूर्ण मानव, और आत्मा की अभिव्यक्ति है| यह परम-आत्मा, यह पूर्ण मानव न तो साम्प्रदायिक हो सकता है, न दुराग्रही, न संकीर्ण, न रूढ़िवादी|
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नारायण! हर मानव कहीं न कहीं से अपनी अपूर्णता का आभास पाता है और फिर उस अपूर्णता को दूर करने के लिए व्याकुल होता है, उसके लिए कर्म करता है, आगे बढ़ता है और अपने अभाव को दूर करने के लिए कभी पूरी की पूरी और कभी आधी अधूरी प्राणिक ऊर्जा झोंक देता है| अभाव और अपूर्णता को दूर करने के लिए जो जितनी ऊर्जा झोंकता है, उतनी ही उसकी उपलब्धि होती है| पूर्ण ऊर्जा झोंकने के साथ किया गया कोई भी संकल्प अधूरा रह ही नहीं सकता, पर पूर्ण ऊर्जा झोंकने के लिए विरले ही तैयार हो पाते हैं| पूर्ण ऊर्जा झोंकने का अर्थ होता है अपने को हर स्तर पर मिटा देना, स्वयं ही संकल्प का रूप धारण कर लेना| ऐसा व्यक्ति अपनी निज की अहम् प्रधान सत्ता को महत्त्व न देकर केवल एक मूर्तिमान् संकल्प के रूप में जागता है, सोता है, चलता-फिरता है और उसके समस्त कर्म केवल संकल्प से सृजित और उद्घाटित तथा प्रसूत होते है|
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नारायण ! मानव की यह अपूर्णता किसी भी स्तर पर या उसके सभी स्तरों पर होती है| सामान्य व्यक्ति सभी स्तरों पर ..... शारीरिक, प्राणिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक स्तरो पर अपूर्ण रहता है, जो उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है ; पर चूँकी वह जाग्रत् चेतना में न होकर मूच्छित या अर्धमूर्च्छित चेतना में रहता है, अतः पूर्ण होते हुए भी वह अपने को अपूर्ण मानता ही अपूर्णता दूर करने के लिए वह प्रयास करता है| भारतीय दर्शन का श्रेष्ठतम चिन्तन यह है कि पूर्णसत्ता ही सर्वव्यापी है, पूर्ण से पूर्ण निकालो, पूर्ण बचेगा; पूर्ण में पूर्ण जोड़ो, वह पूर्ण ही रहेगा| पूर्ण तो सदैव अविभाजित ही रहेगा| लहर और सागर में कहीं कोई भेद नहीं है, सागर ही लहर है और लहर ही सागर है । अपूर्णता केवल प्रतीत होती है । वास्तव में अपूर्णता हो ही नहीं सकती । अपूर्णता प्रतीत इसलिए होती है , क्योंकि लहर ने अपने आपको सागर से पृथक् मानना प्रारम्भ कर दिया है । लहर का यह अज्ञान ही उसके दुःख का , उसके उद्वेलन का , उसकी पीड़ा का , उसके संघर्ष का तथा उसकी उत्तेजना का कारण है । जिस दिन लहर अपने मूल स्वरूप को जान लेगी , सारे भेद , सारी अपूर्णता , सारा अभाव समाप्त हो जाएगा , पर यह प्रतीति , यह अनुभूति सहज होते हुए भी सहज में नहीं मिलती । इस अनुभूति की प्राप्ति हेतु ही मानव हर प्रकार की चेष्टाएँ जाने - अनजाने , स्वभावश या अन्ततः विवश होकर करता है । जब तक मानव का अज्ञान समाप्त नहीं होगा , वह व्याकुल ही रहेगा , छटपटाता ही रहेगा । अपूर्णता दूर करने तथा अज्ञान हटाने व पूर्णता प्राप्त करने के निमित्त किए गए सभी कर्म , सभी चेष्टाएँ " धर्म " के रूप में जानी जाती हैं ।
नारायण ! धर्म का रहस्य इसलिए और भी जटिल हो जाता है , क्योंकि व्यक्ति स्वयं की चेतना के विभिन्न स्तर को नहीं जानता ; जबकि चेतना के हर स्तर पर जो अपूर्णता है उस अपूर्णता को दूर करने के लिए कर्म कभी स्वभावतः और कभी प्रयासवश होते ही रहते हैं । जटिलता तब और बढ़ जाती है जब चेतना के एक स्तर पर जो कर्म होने चाहिए वे कर्म हम चेतना के अन्य स्तरों पर भी जाने - अनजाने , अज्ञानवश या स्वभाववश करते हैं । यह भी इसलिए होता है , क्योंकि हमारी स्वयं की खोज , अर्थात् अन्तस् की खोज बहुत ही अल्प है , आधी - अधूरी है , अतः " धर्म " की चेष्टा ही यह है कि व्यक्ति सबसे पहले स्वयं को जाने , वह सर्वप्रथम अपने अन्तस् में झाँके , वह चेतना के उस स्तर को समझे , जिसके निमित्त या जहाँ से वह कर्म करना चाहता है । अन्तस् में निष्ठापूर्वक झाँकने के उपरान्त ही धीरे - धीरे उसकी चेतना अन्धकारमुक्त होगी और उसकी मूर्च्छा टूटेगी । जिस व्यक्ति की मूच्छा टूट जाती है वह फिर निज के लिए , अहम् के निमित्त , स्वार्थ हेतु या परमार्थ हेतु भी कर्म नहीं करता । ऐसे व्यक्ति से कर्म तो होते ही हैं , पर फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह कर्म कर रहा है । ऐसा ही व्यक्ति धीरे - धीरे सचेतन होकर , जाग्रत् होकर , देह की सत्ता से -- द्वैत की सत्ता से पृथक् हो जाता है और विराट् में लीन हो जाता है । पर - आत्मा , परम चैतन्य की स्थिति जो है, कुछ वही इस विराट् की चेतना में लीन हो जाने से बनी स्थिति है । यहाँ जो कुछ है , या नहीं है -- जैसा भी है उसे न तो शब्दों से बाँधा जा सकता है , न अनुभव से, न अनुभूति से । यही है परमात्मा , यही है चिद्सत्ता , यही है भगवत्ता । यही है पूर्ण , यही है ब्रह्म , यही है परम आनन्द । सावशेष .....
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स्वामीजी को साष्टांग दंडवत प्रणाम ! ॐ नमो नारायण !

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