हम स्वतन्त्र कैसे हों ?
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इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि परतंत्रता क्या है। हम दुःख-सुख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, अज्ञान, भय, कामनाओं, वासनाओं और अन्य अनेक तरह की सीमितताओं से बंधे हैं। ये सारी सीमितताएँ परतंत्रताएँ ही हैं। वास्तविक स्वतन्त्रता -- आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति, यानि परमात्मा के साथ एक होने में है। यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है।
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अपनी चेतना में हम ईश्वर के साथ एक हों। ईश्वर के जो गुण -- जैसे सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता,
सर्वशक्तिमता आदि हैं, वे हमारे भी गुण हों। इस के लिए भक्ति सहित निरंतर ब्रह्म-चिंतन करें। इस भौतिक शरीर की चेतना सबसे बड़ा बंधन है। हमारे में इतनी शक्ति हो कि हम अपनी इच्छा से इस भौतिक देह के अणुओं को भी ऊर्जा में परिवर्तित कर सकें। जब मनुष्य का शरीर छूटता है तब जिनके साथ हम जुड़े हुए हैं, उन घर-परिवार के लोगों को हमारे कारण बहुत अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। उन को भी उस कष्ट से मुक्ति मिले। कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं कि जीवित रहते हुये ही अपना पिंडदान और श्राद्ध स्वयं कर दें। हमारे कारण किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो।
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अपनी चेतना में नित्य मुक्त होने का अभ्यास करते रहें। हम नित्य मुक्त हैं। इन सारे बंधनों में हम अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही बंधे, और अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही मुक्त होंगे। मुझे तो आप सब में परमात्मा का ही आभास होता है, इसीलिए सबसे संपर्क रखता हूँ। मेरे लिए एकमात्र महत्व परमात्मा का है। अन्य सब महत्वहीन है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२४
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इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि परतंत्रता क्या है। हम दुःख-सुख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, अज्ञान, भय, कामनाओं, वासनाओं और अन्य अनेक तरह की सीमितताओं से बंधे हैं। ये सारी सीमितताएँ परतंत्रताएँ ही हैं। वास्तविक स्वतन्त्रता -- आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति, यानि परमात्मा के साथ एक होने में है। यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है।
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अपनी चेतना में हम ईश्वर के साथ एक हों। ईश्वर के जो गुण -- जैसे सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता,
सर्वशक्तिमता आदि हैं, वे हमारे भी गुण हों। इस के लिए भक्ति सहित निरंतर ब्रह्म-चिंतन करें। इस भौतिक शरीर की चेतना सबसे बड़ा बंधन है। हमारे में इतनी शक्ति हो कि हम अपनी इच्छा से इस भौतिक देह के अणुओं को भी ऊर्जा में परिवर्तित कर सकें। जब मनुष्य का शरीर छूटता है तब जिनके साथ हम जुड़े हुए हैं, उन घर-परिवार के लोगों को हमारे कारण बहुत अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। उन को भी उस कष्ट से मुक्ति मिले। कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं कि जीवित रहते हुये ही अपना पिंडदान और श्राद्ध स्वयं कर दें। हमारे कारण किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो।
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अपनी चेतना में नित्य मुक्त होने का अभ्यास करते रहें। हम नित्य मुक्त हैं। इन सारे बंधनों में हम अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही बंधे, और अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही मुक्त होंगे। मुझे तो आप सब में परमात्मा का ही आभास होता है, इसीलिए सबसे संपर्क रखता हूँ। मेरे लिए एकमात्र महत्व परमात्मा का है। अन्य सब महत्वहीन है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२४