Saturday 20 November 2021

हम क्या बनें ? ...

 हम क्या बनें ? ...

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यह प्रश्न पूरी सत्यनिष्ठा व श्रद्धा और विश्वास से स्वयं से पूछें, हमारा हृदय अपने आप ही उत्तर दे देगा| हम स्वयं वह बनें जो हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं| हम दूसरों को वही दे सकते हैं, जो हमारे पास है| जो हमारे पास नहीं है, वह हम दूसरों को नहीं दे सकते| हमारी चेतना में 'राम' हों, तभी हम दूसरों को राम नाम जपने को कह सकते हैं| हम समष्टि को तब तक प्रेम नहीं दे सकते जब तक हम स्वयं प्रेममय नहीं हो जाते| जब तक हम स्वयं अशांत हैं, समाज में शांति नहीं ला सकते| सबसे बड़ी भेंट अपनी स्वयं की ही दे सकते हैं| सत्य-सनातन-धर्म की चेतना हम समाज में तभी जागृत कर सकते हैं, जब वह स्वयं अपने में हो| हम स्वयं क्या हैं, यही सबसे बड़ी भेंट है जो हम किसी को दे सकते हैं| हम धर्म का आचरण करेंगे तभी धर्म भी हमारी रक्षा करेगा| तब धर्म ही नहीं, स्वयं भगवान भी हमारी रक्षा करेंगे| "जो दृढ़ राखे धर्म को, तिही राखे करतार|"
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हम क्या बनें? इस विषय पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय के ४५वें श्लोक में पाँच आदेश/उपदेश एक साथ दिये हैं| वे हमें ... "निस्त्रैगुण्य", "निर्द्वन्द्व", "नित्यसत्त्वस्थ", "निर्योगक्षेम", व "आत्मवान्" बनने का आदेश देते हैं| ये सभी एक -दूसरे के पूरक हैं|
कैसे बनें ? इस पर विचार स्वयं करें| बनना तो पडेगा ही क्योंकि यह भगवान का आदेश है ...
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्" ||२.४५||
अर्थात् हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो||
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भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर अपने भाष्य में कहते हैं कि जो विवेक-बुद्धि से रहित हैं, उन कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं| परंतु हे अर्जुन, तू असंसारी हो निष्कामी हो; तथा निर्द्वन्द्व हो| सुख-दुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी (युग्म) पदार्थ हैं, उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो, और नित्य सत्त्वस्थ अर्थात् सदा सत्त्वगुण के आश्रित व निर्योगक्षेम हो| अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है, और प्राप्त वस्तुके रक्षण का नाम क्षेम है, योगक्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेमको न चाहनेवाला, तथा आत्मवान् हो, अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुएके लिये यह उपदेश है|
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इसको समझना और व्यवहार रूप में उपलब्ध करना असम्भव तो नहीं पर कठिन अवश्य है | इसको समझने के लिए अर्जुन जैसे शिष्य बनें, जिन के गुरु स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं, या देवर्षि नारद जैसे शिष्य बनें जिनके गुरु स्वयं भगवान सनत्कुमार हैं| तभी हम समस्त समष्टि का कल्याण कर सकते हैं| हमारे में पात्रता हो, बस यही आवश्यक है, फिर सब काम हो जाएगा|
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भगवान यह भी कहते हैं ...
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
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प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठें| शौचादि से निवृत होकर एक ऊनी आसन पर
कमर सीधी रखते हुए, पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह कर के शांति से बैठ जाएँ| अपनी गुरु-परंपरानुसार साधना करें, जिसमें हम दीक्षित हैं| यदि हमने कोई दीक्षा नहीं ली है तो भगवान श्रीकृष्ण या हनुमान जी को गुरु मानकर नाम-स्मरण या उनके बीजमंत्र का जप करें| निश्चित रूप से कल्याण होगा|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ नवम्बर २०२०

भगवान से परमप्रेम और उन की उपासना ही हमारा स्वधर्म है ---

 भगवान से परमप्रेम और उन की उपासना ही हमारा स्वधर्म है ---

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गीता में भगवान कहते हैं .....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:५५||"
अर्थात् अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है| अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भयको देनेवाला है||"
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जहाँ तक मुझे समझ में आया है ... भगवान की भक्ति (परमप्रेम) और उन की उपासना (समीप बैठना) ही हमारा स्वभाविक धर्म है, वैसे ही जैसे नदियों का धर्म महासागर में मिल जाना है| कोई भी नदी जब तक महासागर में नहीं मिलती तब तक चंचल और बेचैन रहती है| समुद्र में मिलते ही नदी समुद्र के साथ एक हो जाती है| उपासना विकास की प्रक्रिया है, जो शरणागति और समर्पण द्वारा मनुष्य को परमात्मा से एकाकार कर देती है| एक बार परमात्मा से परम प्रेम हो जाए फिर आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त हो जाता है| राग-द्वेष युक्त मनुष्य तो शास्त्र के अर्थ को भी उलटा मान लेता है, और परधर्म को भी धर्म होने के नाते अनुष्ठान करने योग्य मान बैठता है| परंतु उसका ऐसा मानना भूल है|
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सत्यनिष्ठा का अभाव, व लोभ और अहंकार, हमें स्वधर्म से दूर करते हैं| स्वधर्म में स्थिर होने के लिए भगवान की भक्ति और उन का यथासंभव खूब ध्यान करें|
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आप सब महान आत्माओं, महापुरुषों को सादर नमन ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२० नवंबर २०२०