Saturday 30 June 2018

माया के विक्षेप से कैसे बचें ? ...

माया के विक्षेप से कैसे बचें ? .....
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माया की दो शक्तियाँ हैं .... आवरण और विक्षेप| आवरण तो अज्ञान का पर्दा है जो सत्य को ढके रखता है| विक्षेप कहते हैं उस शक्ति को जो भगवान की ओर से ध्यान हटाकर संसार की ओर बलात् प्रवृत करती है| इस से मुक्त होना बड़ा कठिन है| दुर्गा सप्तशती में लिखा है ...

"ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा| बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति||
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बड़े बड़े ज्ञानियों को भी यह महामाया बलात् मोह में पटक देती है फिर मेरे जैसा सांसारिक प्राणी तो किस खेत की मूली है? परब्रह्म परमात्मा की परम कृपा से ही हम माया से पार पा सकते हैं, निज बल से नहीं| इसके लिए पराभक्ति, सतत निरंतर अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता है| गीता में भगवान कहते हैं .....


शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌||६:२५||
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌| ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌||६:२६||

अर्थात् शनैः शनैः अभ्यास करता हुआ उपरति यानी वैराग्य/उदासीनता को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे|| यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस जिस विषय के लिए संसार में विचरता है, उस उस विषय से हटाकर इसे बार बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे|
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भगवान को पूर्ण रूप से हृदय में बैठाकर, प्रयास पूर्वक अन्य सब ओर से ध्यान हटाने का अभ्यास करें| किसी भी अन्य विचार को मन में आने ही न दें| पूर्ण रूप से मानसिक मौन का अभ्यास करें| स्वयं को ही देवता बनाना होगा, ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ ‘देवता होकर देवताका पूजन करे|’ परमात्मा को छोडकर अन्य सब प्रकार के चिंतन को रोकने का अभ्यास करना होगा| बाहरी उपायों में बाहरी व भीतरी पवित्रता का ध्यान रखना होगा, विशेषकर के भोजन सम्बन्धी|
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जिस मार्ग पर मैं चल रहा हूँ वह कठोपनिषद के अनुसार "क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयोवदन्ति" वाला मार्ग है| अब जब इस तीक्ष्ण छुरे की धार वाले मार्ग का चयन कर ही लिया है तो पीछे नहीं हटना है| अनुद्विग्नमना, विगतस्पृह, वीतराग, और स्थितप्रज्ञ मुनि की तरह निर्भय होकर चलते ही रहना है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जून २०१८
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(यह लेख मैनें अपने स्वयं के कल्याण के लिए लिखा है, किसी अन्य के लिए नहीं. यह उपदेश मेरे स्वयं के लिए है क्योंकि मैं स्वरचित माया के विक्षेप से पीड़ित हूँ जिसके समक्ष मेरी सारी अभीप्सा विफल हो रही है. अतः हरिकृपा का प्रार्थी हूँ. ॐ ॐ ॐ)

भारतवर्ष को संस्कृत भाषा और ब्राह्मणों की संस्था ने जीवित रखा .....

भारतवर्ष को संस्कृत भाषा और ब्राह्मणों की संस्था ने जीवित रखा .....
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भारतवर्ष को शक्ति मिलती थी ..... संस्कृत भाषा से और ब्राह्मणों की संस्था से| ये नष्ट हो जायेंगी तो भारत ही नष्ट हो जाएगा, संस्कृत भाषा और ब्राह्मणों की संस्था .... दोनों ही नष्ट हो रही हैं तो भारत भी नष्ट हो रहा है| वर्त्तमान धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पद्धति, विदेशी प्रभाव और मार्क्सवादी समाजवाद भारत को नष्ट कर रहा है| यह मेरी ही नहीं, सभी निष्ठावान व समझदार भारतीयों की पीड़ा है|
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भारत के वर्तमान समाज को देखते हैं तो निराशा ही निराशा मिलती है| भारत में आजकल का सबसे बड़ा व्यवसाय तो है भ्रष्ट राजनीति, दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है मनचाहा स्थानान्तरण व नियुक्तियाँ करवाने का धंधा, फिर घूसखोरी, कर चोरी, बिजली व पानी की चोरी, और ठगी| समाज में हम जिनको आदर्श कह सकें ऐसे व्यक्ति नगण्य हैं| उनके अतिरिक्त कुछ भी आदर्श नहीं है समाज में| ऐसी सभ्यता नष्ट भी हो जाए तो मुझे कोई अफसोस नहीं होगा|
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मैं स्वयं को भाग्यशाली मानता हूँ कि मेरा संपर्क ऐसे अनेक व्यक्तियों से हैं जिनका जीवन धर्ममय और आध्यात्मिक हैं| परमात्मा से प्रेम और आस्था व विश्वास ने ही सदा मेरी रक्षा की है| यह आस्था और विश्वास ही सदा रक्षा करेंगे| मेरा यह मानना है कि परमात्मा के सहारे से ही प्रकृति के बंधनों से छुटकारा पा सकते हैं| गीता में भगवान कहते हैं .....
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति| भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया||१८:६१||
जब सबको चलाने वाला परमात्मा ही है तो रक्षा भी वो ही करेगा|
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भारतवर्ष व सनातन धर्म की भगवान रक्षा करें, इस प्रार्थना के अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकते| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जून २०१८

गुरु पूजा के बारे में मेरे विचार .....

गुरु पूजा के बारे में मेरे विचार .....
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मेरे विचार पूर्ण रूप से गहन ध्यान साधना में हुई मेरी निजी अनुभूतियों पर आधारित हैं, किसी की नक़ल नहीं है| साधनाकाल के आरम्भ में गुरु और मैं दोनों ही पृथक पृथक थे| पर जैसे जैसे ध्यान साधना का अभ्यास बढ़ता गया मैनें पाया कि गुरु कोई देह नहीं हैं, तत्त्व रूप में वे नाम और रूप से परे मेरे साथ एक हैं| वास्तव में मैं तो हूँ ही नहीं, वे ही वे हैं| भौतिक देह तो उनका एक वाहन मात्र रहा है जिस पर उन्होंने अपनी लोकयात्रा पूरी की| वे वह वाहन नहीं, एक शाश्वत दिव्य चेतना हैं| मैनें अज्ञानतावश अपनी कल्पना में उन्हें देह की सीमितता में बाँध रखा था, पर वास्तव वे अति विराट और सर्वव्यापक हैं|
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ध्यान में अनुभूत होने वाले कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म भी वे ही हैं, ध्यान में सुनाई देने वाली कूटस्थ अक्षर प्रणव की ध्वनी भी वे ही हैं| अब तो उपासक भी वे ही हैं, उपासना और उपास्य भी वे ही हैं| उन्हें देह की सीमितता में मैं नहीं बाँध सकता| वे परमात्मा की अनंतता और पूर्णता हैं| उनसे पृथकता की कल्पना ही बहुत अधिक पीड़ादायक है|
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वर्तमान में सहस्त्रार ही मेरे लिए श्रीगुरु के चरण कमल हैं| सहस्त्रार में ध्यान ही गुरु की पूजा है, सहस्त्रार में ध्यान ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| वे परमप्रेममय और परमानन्दमय हैं|
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सहस्त्रार से परे अनंताकाश के रूप में वे ही परमशिव हैं| वह अनंताकाश ही मेरा उपास्य देव परमशिव है| मुझे सुख, शांति, सुरक्षा और आनंद उस अनंताकाश में ही मिलता है| उस अनंताकाश में ही एक नीले रंग का प्रकाश है जो मेरे लिए एक रहस्य है| उससे भी परे एक अति विराट श्वेत ज्योति है जो और भी बड़ा रहस्य है| उस विराट श्वेत ज्योति से भी परे भी एक श्वेत नक्षत्र है जो सारे रहस्यों का भी रहस्य है| जब भी कभी पूर्ण गुरुकृपा होगी वे सारे रहस्य भी अनावृत हो जायेंगे| अभी तो मुझे कुछ भी नहीं पता| गुरु महाराज ने उस अनंत महाकाश में अपने परमप्रेम रूप के ध्यान में ही लगा रखा है| उस से परे की झलक मिल जाती है कभी कभी, पर उसका ज्ञान तो गुरु की पूर्ण कृपा पर ही निर्भर है जो कभी न कभी तो हो ही जायेगी, अतः उसकी कोई कामना भी नहीं रही है, जैसी उनकी इच्छा|
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मेरे लिए गुरु की सेवा का अर्थ है .... भक्ति द्वारा अपने अंतःकरण यानि मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का उनके श्री चरणों में पूर्ण समर्पण व आत्मतत्व में स्थिति की निरंतर साधना| यही गुरु की वास्तविक सेवा है| "गु" का अर्थ है अज्ञान रुपी अन्धकार, और "रू" का अर्थ है मिटाने वाला| गुरु हमारे अज्ञान रुपी अन्धकार को मिटा देते हैं| "गु" का अर्थ है गुणातीत होना, और "रू" का अर्थ है रूपातीत होना| गुरु सभी गुणों (सत, रज व तम), रूपों व माया से परे है| "गु" माया का भासक है, "रू" परब्रह्म है जो माया को मिटा देते हैं|
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उन गुरुरूप परब्रह्म को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ जून २०१८

सनातन धर्म भगवान के संकल्प से ही जीवित है .....

सनातन धर्म भगवान के संकल्प से ही जीवित है .....
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सनातन वैदिक हिन्दू धर्म भगवान की परम कृपा से ही जीवित है, और भगवान की परम कृपा से ही जीवित रहेगा| स्वयं भगवान ही इसकी रक्षा करेंगे| वर्त्तमान में मुझे तो किसी भी व्यक्ति या संगठन में भरोसा नहीं है| यदि इसे नष्ट ही होना होता तो अब से बारह-तेरह सौ वर्ष पूर्व ही नष्ट हो जाता| परिस्थितियाँ कई शताब्दियों से प्रतिकूलतम ही हैं| पर समय समय पर महान युगपुरुष आत्माओं ने अवतरित होकर इसमें नए प्राण फूंककर इसे जीवित रखा है|
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यदि इस धर्म में दस लोग भी ऐसे हैं जो भगवान से जुड़े हुए हैं तो यह धर्म कभी नष्ट नहीं हो सकता| धर्म की रक्षा, धर्म के पालन से ही होती है, अन्यथा नहीं| भगवान ने ही इसकी रक्षा की है और वे ही करेंगे| इसके शत्रु चर्च, जिहाद और मार्क्सवाद हैं|
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चर्च के पीछे अंतर्राष्ट्रीय मीडिया, वेटिकन और भारत की बिकी हुई मीडिया की शक्ति है| इनका घोषित उद्देश्य है सारे हिन्दुओं को ईसाई बनाकर हिंदुत्व को नष्ट करना| इस दिशा में ये पिछले छहः सौ वर्षों से प्रयत्नशील हैं| भारत में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी चर्च के हाथ में है| भारत का संविधान और शिक्षा व्यवस्था दोनों ही हिन्दू द्रोही हैं| ऐसे ही जिहादी संगठन हैं जिनका उद्देश्य भी हिन्दुओं का मतांतरण या उनकी ह्त्या करना है| ऐसे ही नास्तिक मार्क्सवादी हैं|
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भारत में सनातन हिन्दू धर्म बचा हुआ है तो सिर्फ परमात्मा की कृपा से ही| भगवान इसे कभी नष्ट नहीं होने देंगे| मुझे तो उन्हीं पर आस्था है, किसी अन्य पर नहीं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जून २०१८

अब तक के अनुभूत किये हुए सारे उपदेशों का व जीवन का सार .....

इस जीवन में मेरे अब तक के अनुभूत किये हुए सारे उपदेशों का व जीवन का सार जो मेरी अत्यल्प सीमित बुद्धि से मुझे अब तक समझ में आया है, वह निम्न है .....
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"समभाव में स्थिति का निरंतर प्रयास ही सारी साधनाओं का सार है| अहंकारवृत्ति नहीं, बल्कि परमात्मा ही हमारा स्वरुप है| परमात्मा की परोक्षता और स्वयं की परिछिन्नता को मिटाने का एक ही उपाय है ... परमात्मा का ध्यान| परम प्रेम और ध्यान से पराभक्ति और परमात्मा की कृपा प्राप्त होती है| गुरु रूप परब्रह्म निरंतर मेरे कूटस्थ में स्थायी रूप से बिराजमान हैं| वे ही एकमात्र कर्ता, भोक्ता व मेरा अस्तित्व हैं|"
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मेरे लिए यही अब तक के अनुभूत किये हुए सारे उपदेशों का सार है| इसके अतिरिक्त और कुछ भी सुनने या जानने की मेरी अब कोई इच्छा नहीं है|
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जब मैं इस तथाकथित मेरी देह को देखता हूँ तब स्पष्ट रूप से यह बोध होता है कि यह मूल रूप से एक ऊर्जा-खंड है, जो पहले अणुओं का एक समूह बनी, फिर पदार्थ बनी| फिर इसके साथ अन्य सूक्ष्मतर तत्वों से निर्मित मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार रूपी अंतःकरण जुड़ा| इस ऊर्जा-खंड के अणु निरंतर परिवर्तनशील हैं| इस ऊर्जा-खंड ने कैसे जन्म लिया और धीरे धीरे यह कैसे विकसित हुआ इसके पीछे परमात्मा का एक संकल्प और विचार है| ये सब अणु और सब तत्व भी एक दिन विखंडित हो जायेंगे| पर मेरा अस्तित्व फिर भी बना रहेगा, क्योंकि परमात्मा ही मेरा अस्तित्व है| यह शरीर और पृथकता का बोध तो परमात्मा के मन का एक विचार मात्र है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
२७ जून २०१८

इन्द्रिय सुखों की व अहंकार की कामना पूर्ती का हर प्रयास एक धोखा है.....

इन्द्रिय सुखों की व अहंकार की कामना पूर्ती का हर प्रयास एक धोखा है| हमारा मन सदा इन्द्रीय सुखों व अहंकार की कामना पूर्ती का प्रयास करता है, इससे तृष्णा ही बढती है| स्वादिष्ट भोजन करते करते हमारा सारा जीवन बीत गया पर स्वादिष्ट भोजन की भूख अभी तक मिटी ही नहीं है| मनुष्य का शरीर बूढा और अशक्त हो जाता है, पर वासनाओं का अंत कभी नहीं होता| इस दुश्चक्र से मुक्ति का एक ही उपाय है, और वह है कामनाओं से मुक्ति| एक ऐसी भी कामना भी है जिसमें अन्य सब कामनाओं का अंत हो जाता है, वह है भगवान के लिए अभीप्सा और परमप्रेम|
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मुक्ति के विषय पर कठोपनिषद में खूब लिखा है| उसका गहन स्वाध्याय सभी को खूब करना चाहिए| श्रुति भगवती स्पष्ट आदेश देती है जीव को सारी कामनाओं से मुक्त होने की| वेदों का वाक्य ही प्रमाण है, अतः इस विषय पर आगे कुछ भी लिखना मेरे लिए अनुचित होगा| उपनिषदों व गीता का स्वाध्याय स्वयं करें वैसे ही जैसे भूख लगने पर भोजन स्वयं करते हैं| दूसरों के भोजन से हमारी भूख नहीं मिटती|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जून २०१८