Saturday 30 June 2018

गुरु पूजा के बारे में मेरे विचार .....

गुरु पूजा के बारे में मेरे विचार .....
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मेरे विचार पूर्ण रूप से गहन ध्यान साधना में हुई मेरी निजी अनुभूतियों पर आधारित हैं, किसी की नक़ल नहीं है| साधनाकाल के आरम्भ में गुरु और मैं दोनों ही पृथक पृथक थे| पर जैसे जैसे ध्यान साधना का अभ्यास बढ़ता गया मैनें पाया कि गुरु कोई देह नहीं हैं, तत्त्व रूप में वे नाम और रूप से परे मेरे साथ एक हैं| वास्तव में मैं तो हूँ ही नहीं, वे ही वे हैं| भौतिक देह तो उनका एक वाहन मात्र रहा है जिस पर उन्होंने अपनी लोकयात्रा पूरी की| वे वह वाहन नहीं, एक शाश्वत दिव्य चेतना हैं| मैनें अज्ञानतावश अपनी कल्पना में उन्हें देह की सीमितता में बाँध रखा था, पर वास्तव वे अति विराट और सर्वव्यापक हैं|
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ध्यान में अनुभूत होने वाले कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म भी वे ही हैं, ध्यान में सुनाई देने वाली कूटस्थ अक्षर प्रणव की ध्वनी भी वे ही हैं| अब तो उपासक भी वे ही हैं, उपासना और उपास्य भी वे ही हैं| उन्हें देह की सीमितता में मैं नहीं बाँध सकता| वे परमात्मा की अनंतता और पूर्णता हैं| उनसे पृथकता की कल्पना ही बहुत अधिक पीड़ादायक है|
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वर्तमान में सहस्त्रार ही मेरे लिए श्रीगुरु के चरण कमल हैं| सहस्त्रार में ध्यान ही गुरु की पूजा है, सहस्त्रार में ध्यान ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| वे परमप्रेममय और परमानन्दमय हैं|
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सहस्त्रार से परे अनंताकाश के रूप में वे ही परमशिव हैं| वह अनंताकाश ही मेरा उपास्य देव परमशिव है| मुझे सुख, शांति, सुरक्षा और आनंद उस अनंताकाश में ही मिलता है| उस अनंताकाश में ही एक नीले रंग का प्रकाश है जो मेरे लिए एक रहस्य है| उससे भी परे एक अति विराट श्वेत ज्योति है जो और भी बड़ा रहस्य है| उस विराट श्वेत ज्योति से भी परे भी एक श्वेत नक्षत्र है जो सारे रहस्यों का भी रहस्य है| जब भी कभी पूर्ण गुरुकृपा होगी वे सारे रहस्य भी अनावृत हो जायेंगे| अभी तो मुझे कुछ भी नहीं पता| गुरु महाराज ने उस अनंत महाकाश में अपने परमप्रेम रूप के ध्यान में ही लगा रखा है| उस से परे की झलक मिल जाती है कभी कभी, पर उसका ज्ञान तो गुरु की पूर्ण कृपा पर ही निर्भर है जो कभी न कभी तो हो ही जायेगी, अतः उसकी कोई कामना भी नहीं रही है, जैसी उनकी इच्छा|
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मेरे लिए गुरु की सेवा का अर्थ है .... भक्ति द्वारा अपने अंतःकरण यानि मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का उनके श्री चरणों में पूर्ण समर्पण व आत्मतत्व में स्थिति की निरंतर साधना| यही गुरु की वास्तविक सेवा है| "गु" का अर्थ है अज्ञान रुपी अन्धकार, और "रू" का अर्थ है मिटाने वाला| गुरु हमारे अज्ञान रुपी अन्धकार को मिटा देते हैं| "गु" का अर्थ है गुणातीत होना, और "रू" का अर्थ है रूपातीत होना| गुरु सभी गुणों (सत, रज व तम), रूपों व माया से परे है| "गु" माया का भासक है, "रू" परब्रह्म है जो माया को मिटा देते हैं|
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उन गुरुरूप परब्रह्म को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ जून २०१८

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