(संकलन : स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से)
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तनाव से निवृति .....
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यदि ध्यान के अभ्यास से अहंकार और वासना क्षीण न हो तो वह मात्र एक
मनोरंजक व्यायाम है| विचार और व्यवहार में परिवर्त्तन होना ध्यान की
सिद्धता की सच्ची कसौटी है| मनुष्य ध्यान के द्वारा मन और बुद्धि से परे
ऊर्ध्वचेतना में आरोहण करते हुए दिव्य चेतना में निमग्न होकर, शून्यता से
परे पूर्णता की अवस्था में सुरदुर्लभ परमानन्दानुभूति कर सकता है| ध्यान
ऊर्जा, प्रकाश, दिव्यता और आनन्द-प्राप्ति का सर्वोच्य साधन है|
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मनुष्य के मन की शक्तियां असंख्य दिशाओं में बिखरी रहती हैं| उन्हें समेटने
के लिए ध्यान का अभ्यास अमोघ उपाय है| योगीजन प्रायः खेचरी मुद्रा में
(अर्थात् जिह्वा को विपरीत तालु में लगाकर) भृकुटी पर दृष्टी एकाग्र करते
हैं| भृकुटी का ध्यान मनुष्य के तीसरे नेत्र (अन्तर्चक्षु) को खोलकर
अकल्पनीय मानसिक दृष्टि से भृकुटि में प्रकाश पर ध्यान को स्थिर किया जा
सकता है|
साधक को नीरव, शान्त तथा एकान्त स्थल में सुविधाजनक मुद्रा
में बैठकर धीरे-धीरे कोई छोटा-सा मंत्र (ॐ, सोऽहं, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ
नमः शिवाय, नमः शिवाय कोई भी वैदिक मन्त्र) जपते हुए ध्यान का अभ्यास करना
चाहिए|
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ध्यान मस्तिष्क को ऊर्जा एवं प्रकाश देकर समस्त शारीरिक
क्रियाओं (रक्त-प्रवाह, श्वास, हृदय-स्पन्दन, चयापचय इत्यादि को तथा
मानसिक गति को पूर्णतः नियन्त्रित करने एवं सहज बनाने में सहायक होता है
तथा शरीर एवं मस्तिष्क को गहरी विश्रान्ति प्रदान कर देता है। ध्यान का
अभ्यास मनुष्य को न केवल समस्त मानसिक रोगों एवं दुर्व्यसनों की रुचि से
मुक्त करके पूर्णतः सन्तुलित एवं स्वस्थ कर सकता है, बल्कि उसे दिव्य जीवन
की ओर भी उन्मुख कर देता है ध्यान तनाव और अनिद्रा को दूर करने का अमोघ
उपाय है। ध्यान के समय़ श्वास सीधा और गहरा होकर आयुवृद्धि करता है। योगी
ध्यान द्वारा अचिनत्य, कल्पनीय परमब्रह्म का साक्षात्कार कर लेते हैं।
ध्यान का उद्देश्य भौतिक जगत् से ऊपर उठकर दिव्य चेतना में निमग्न होना है।
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नारायण ! प्रकृति ने मानवदेह के मध्य बिन्दु के रूप में नाभि को संस्थित
किया है। मनुष्य की प्राण शक्ति ऊर्जा के रूप में चिन्तन के अनुसार
ऊर्ध्वामुकी होकर मस्तिष्क की ओर अथवा अधोमुखी होकर नाभि से नीचे की ओर
प्रवाहित होती है। साधक चिन्तन एवं ध्यान द्वारा चेतना के प्रवाह अथवा
प्राणों की ऊर्जा के प्रवाह को ऊर्ध्वामुखी करके भोग से योग की ओर अथवा
अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ता है। यही ब्रह्मचर्य एंव आनन्द प्राप्ति का
सोपान है।ध्यान के अभ्यास में, विशेषतः कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में,
सिद्ध गुरु से दिशा-निर्देशन प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक होता है।
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तर्कवादी मनुष्य कदापि सूक्ष्म तत्व का ग्रहण नहीं कर सकता।
पाण्डित्य-प्रदर्शन और वाक्-पटुता सूक्ष्म अनुभूति के आदान-प्रदान में बाधक
होते हैं। साधक को श्रद्धा और विश्वास से परिपूरित होकर सदगुरु की शरण
ग्रहण करनी चाहिए। सदगुरु गूढ़ तत्वों को सरल प्रकार से हृदयंगम करा देते
हैं। ध्याननिमग्न मनुष्य न केवल स्वयं गहन शान्ति का अनुभव करता है, बल्कि
अन्य समीपस्थ मनुष्यों में भी शान्ति, सद्भवाना एवं सात्त्विकता का संचार
कर देता है।
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श्रीमद् भगवद्गीता में कुण्डलिनी योग की चर्चा नहीं
है, यद्यपि तन्त्र विद्या में ध्यान के संदर्भ में उसका विशेष महत्व कहा
गया है। साधक विभिन्न स्तरों को पार करते हुए क्रम-विकास के पथ पर अग्रसर
होता है। मानव-देह में मेरुदण्ड के अधोभाग में स्थित मूलाधार चक्र में
अनन्त शक्ति (सूक्ष्म नाड़ी तन्तुरुप) कुण्डली लगाये हुए सर्प की आकृति में
स्थित है। मल मूत्र विसर्जन के स्थानों के समीप स्थित इस केन्द्र को
शक्तिपीठ अथवा योनिपीठ भी कहते हैं। षट्कमलों अथवा षट्चक्रों का भेदन करना
षट्चक्र सोपान पर चढ़ना कुण्डलिनी तत्व को जगाने (कुण्डलिनी-जागरण) की विधि
है। मेरुदण्ड में तीन प्रमुख नाडियाँ हैं-सुषुम्ना (बोधिनी अथवा
प्राणतोषिणी सरस्वती), इडा (गंगा) और पिंगला (यमुना) जो सत्, रज और तम की
भी सूचक हैं।
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योगी त्रिवेणी से मानसिक स्नान करते हैं। मेरुदण्ड
जीवन का परिचालक, पोषक एवं धारक होता है। दिव्य सहस्रदल कमल
(ब्रह्मरन्ध्र) में चन्द्रमा विराजमान है, जिसका चिन्तन योगी करते हैं।
सुषुम्ना के सहारे षट्चक्र इस प्रकार हैं-*मूलाधार चक्र (तत्व पृथ्वी, वर्ण
पीत, देवता गणेश, सम्बद्ध वाहन हाथी। इसके कमल में चार दल हैं।
"यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः।
उभयोरन्तरं नास्ति गुरोरपि शिवस्य च॥"
जो गुरु है, वह शिव कहा गया है, जो शिव है वह गुरु माना गया है। गुरु और शिव दोनों में अन्तर नहीं है।
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षट् चक्रों एवं सप्तम सहस्रार चक्र को सप्तलोक ( भूः भुवः स्वः तपः जनः
महः सत्यम् ) भी कहा गया है। मूलाधार चक्र भूलोक तथा सहस्रार चक्र
ब्रह्मलोक है। कुछ हठयोगी नाभिचक्र में मूलाधार का स्थान तथा आज्ञाचक्र में
सहस्रार का स्थान मानते हैं।
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स्वाधिष्ठान चक्र (तत्व जल, वर्ण श्वेत, देवता ब्रह्मा, सम्बद्ध वाहन मगरमच्छ, इसके कमल में छह सिन्दूरी पँखुड़ियाँ हैं। )
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मणिपुर चक्र (तत्व अग्नि, वर्ण हेम, देवता विष्णु, सम्बद्ध वाहन मेष। इसके कमल में दस पँखुडियाँ हैं। )
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अनाहत चक्र (तत्व आकाश, वर्ण श्वेत अथवा सुहेम, वाहन गज। इसमें सिलेटी बैंगनी रंग की सोलह पँखुडियाँ हैं। )
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आज्ञा चक्र (इसके श्वेत कमल में केवल दो पँखुडियाँ हैं, इसका देवता महेश्वर है। ) आज्ञा चक्र में दिव्य ज्योति की अनुभूति होती है।
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नारायण ! कुण्डलिनी शक्ति जागृत होने पर असंख्य विद्युत-तरंगों के केन्द्र
तथा एक हजार पंखुड़ियों के कमलवाले सहस्रार, चक्र को प्राप्त हो जाती है।
चित्शक्ति जो सर्पिलरुप में, कुण्डलिनी रूप में, मूलाधार चक्र में
(सुषुम्ना के विविर में) प्रसुप्त होकर स्थित है, जागृत होने पर चक्रभेदन
करती हुई मस्तिष्क के मध्य में स्थित सहस्राकार चक्र तक पहुँचकर ब्रह्मलीन
हो जाती है। सहस्रार चक्र का आज्ञा चक्र के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। मेरुदण्ड
शिव के पिनाक का प्रतीक है। पिनाक का एक भाग, जो मूलाधार चक्र में रहता
है, चित्रकूट कहलाता है तथा सारा देह अयोध्यापुरी कहलाता है। मूलाधार के
पद्म के मध्य स्थित योनि में कुण्डलिनी स्थित है। सहस्रार चक्र अथवा
ब्रह्मरन्ध्र ही ब्रह्मलोक है, जहाँ महाशिवलिंग विराजमान है अथवा यह चित्
स्वरुप महाशिव का कैलासरुप वास-स्थान है।
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मूलाधार चक्र के भेदन
से मिट्टी-तत्व पर विजय प्राप्त होती है तथा ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण प्रारम्भ
हो जाता है। योगी क्रमशः पाँचों तत्वों पर विजय पाकर ऊर्ध्वरेता हो जाता
है तथा गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। कुण्डलिनी शक्ति के विविध
चक्रों को पार करते समय योगी को विभिन्न ध्वनियों का श्रवण होता है। योगी
में आन्तरिक ऊर्जा का विकास एवं आरोहण होता है तथा वह अपने भीतर ऊर्ध्वगमन
करते हुए एक विशेष स्तर पर आकर गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो जाता है अर्थात्
जड़ता से मुक्त हो जाता है और उसके जीवन में सत्यं शिवं सुन्दरम् का समावेश
हो जाता है। भौतिक आकर्षण से विमुक्त होकर वह सहज प्रेम और करुणा से
परिपूर्ण हो जाता है। योगी को अनेक सूक्ष्म शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
अष्ट सिद्धि उसे हस्तगत हो जाती है, किंतु योगी का लक्ष्य दिव्यसुधापान
है।
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ब्रह्मरन्ध्र का संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ होता है।
सुषुम्ना मूलाधार से सहस्रार तक अखण्डरूप से स्थित रहती है तथा उमा की
प्रतीक कही जाती है। मूलाधार चक्र के भेदन से ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण प्रारंभ
हो जाता है। जब वाग्देवी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सुषुम्ना के द्वारा
मूलाधार के सहस्रार तक प्रवाहित हो जाती है, मूलाधार को सहस्रार से जोड़
देती है, वह उमा-शिव-मिलन भी कहलाता है तथा साधक को महाभाव की मधुर
मूर्च्छा, दिव्यावेश, असह्य आनन्द, सौन्दर्य-दर्शन इत्यादि का अनुभव होता
है तथा ऊर्ध्वागामी चेतना का परम चेतना के साथ ऐक्य होने पर परमानन्द
प्राप्ति हो जाती है। इस ध्यान-प्रक्रिया में मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध,
जालन्धर बन्ध, महाबन्ध तथा खेचरी मुद्रा सहायक होते हैं।
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ॐकार
का नाद नाभिकमल से उत्थित होकर अनाहत चक्र को झंकृत करता हुआ कण्ठस्थित
विशुद्ध चक्र में स्फुट होता है तथा योगियों को स्फोट एवं नाद का दिव्य
अनुभव होता है। ॐकार का वासस्थान आज्ञा चक्र होने के कारण भृकुटी पर ध्यान
केंद्रित किया जाता है तथा भृकुटी पर चन्दन का तिलक किया जाता है। वास्तव
में समस्त मस्तक ऊर्जा का संवेदनशील स्थल होता है।
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नारायण !
ध्यान की साधना से मनुष्य ऐसी मानसिक अवस्था को प्राप्त हो जाता है, जब उसे
घोर दुःख भी विचलित नहीं कर सकते। साधक विद्युत के वेग से सदृश प्रसारित
होनेवाली दिव्य शक्ति का अनुभव समस्त देह, मन और मस्तिष्क में करता है तथा
वह सभी अङ्मों में उसकी व्याप्ति देखता है। संसिद्ध योगी सम्पूर्ण
प्राणियों में भगवान् का दर्शन करता है तथा समदर्शी होता है। यदि मृत्यु
होने तक साधना अपूर्ण रह जाती है, साधक आगामी जन्मों में पुराने संस्कारों
के बल से पुनः साधना की उच्चभूमि की प्राप्ति का प्रयत्न करता है तथा अन्त
में परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। मनुष्य का मन परमात्मा के अतिरिक्त
अन्यत्र कहीं पूर्ण विश्रान्ति नहीं पा सकता। श्रद्धापूर्वक भगवद्भजन
करनेवाला सर्वश्रेष्ठ होता है।
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कर्मयोगी के लिए परिवार सम्पूर्ण
साधना का श्रेष्ठ केन्द्र-स्थल होता है। यद्यपि आद्यात्मिक प्रगति में
तीर्थों का विशेष महत्व है, कर्मयोगी के लिए सत्य, क्षमा, इन्द्रयि-संयम
प्राणियों के प्रति दयाभाव तथा सरल व्यवहार भी तीर्थ होते हैं। कर्मयोगी इन
गुणों का अभ्यास परिवार में कर सकता है। परिवार के सदस्य उत्तम भावना,
विचार, वचन और व्यवहार द्वारा परिवार को स्वर्ग बना सकते हैं। अपार भौतिक
सम्पदा, वैभव और ऐश्वर्य में सुख देने की क्षमता नहीं होती। कर्मयोगी को
सद्गुणों की अपेक्षा भौतिक सम्पदा को तुच्छ मानकर सद्गुणों के विकास एवं
अभ्यास पर बल देना चाहिए। संघटित परिवार प्रत्येक सदस्य की संकटवेला में
पूर्ण सहायता का श्रेष्ठ आश्वासन (बीमा) होता है, किंतु अविवेकीजन की
क्षुद्रता, संकीर्णता तथा असहनशीलता के कारण परिवार टूट जाते हैं।
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नारायण ! घृणा को घृणा से, कटुता को कटुता से, क्रोध को क्रोध से, दुष्टता
को दुष्टता से, हिंसा को हिंसा से, क्षुद्रता को क्षुद्रता से, असत्य को
असत्य से तथा अन्धकार को अन्धकार से कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है,
किंतु घृणा को प्रेम से, कटुता को मधुरता से, क्रोध को क्षमा से, दुष्टता
को साधुता से, हिंसा को अहिंसा से, क्षुद्रता को उदारता से, असत्य को सत्य
से तथा अन्धकार को प्रकाश से ही जीता जा सकता है। मनुष्य की व्यक्तिगत
सुखभोग की कामना महान् पुरुषार्थ को भी तुच्छ स्वार्थ बना देती है तथा
यज्ञ-भावना (उदार-वृत्ति) पुरुषार्थ को परमार्थ बना देती है। सत्य प्रेम और
सेवा मन के विष को धोकर उसे निर्मल बना देते हैं, संयम, सादगी और संतोष
मनुष्य को सुख एवं शान्ति देते हैं तथा आध्यात्मिक भाव (ज्ञान, ध्यान एवं
भक्ति) उसे आनन्द एवं दिव्यता प्रदान कर सकते हैं। सत्य, क्षमा,
इन्द्रिय-संयम, दयाभाव तथा सरल व्यवहार का अभ्यास परिवार को सुगठित एवं
सुखमय बना देते हैं। परिवार समाज की महत्वपूर्ण इकाई होता है तथा परिवारों
के सुदृढ़ होने पर समाज हो जाता है। जो मनुष्य परिवार के लिए उपयोगी होता
है, वहीं समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।
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नारायण ! मनुष्य का
मन ही सुख और दुःख का कारण होता है तथा मनुष्य स्वयं अपने विचारों द्वारा
अपने मन का निर्माण करता है। मनुष्य जैसा चिन्तन करता है, वैसा ही मन हो
जाता है, मन के स्वरुप का निर्माण चिन्तन द्वारा हो जाता है। अतएव
स्वाध्याय (उत्तम ग्रन्थों का अध्ययन) तथा सत्संग का जीवन में अतुलनीय
महत्व होता है। स्वाध्याय एवं सत्संग का जीवन में अतुलनीय महत्व होता है।
स्वाध्याय एवं सत्संग से विवेक उत्पन्न होता है तथा मनुष्य विवेक द्वारा
कामना आदि दोषों की निवृत्ति कर सकता है।
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विवेकशील पुरुष प्रेम,
क्षमा, सहनशीलता तथा सेवाभाव से अपने चारों ओर मधुर वातावरण का निर्माण कर
लेता है तथा विवेकहीन मनुष्य अंहकार, घृणा, क्रोध, संकीर्णता तथा स्वार्थ
से अपने चारो ओर शत्रुतापूर्ण वातावरण का निर्माण कर लेता है तथा अकेला
पड़कर सभी दूसरों को दोष देता रहता है। स्वार्थपूर्ण तथा अंहकारपूर्ण
मनुष्य को अपने अतिरिक्त कोई व्यक्ति उत्तम प्रतीत नहीं होता तथा अन्त में
वह स्वयं से भी घृणा करके दुखी, व्याकुल तथा अशान्त हो जाता है।
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स्वार्थ विकास-प्रक्रिया में बाधक तथा स्वार्थत्याग सहायक होता है।
कर्मयोगी अपने कर्मक्षेत्र में भयरहित एवं चिन्तारहित होकर कर्म करता है
तथा सहज प्रसन्न रहता है। वह किसी के क्रुद्ध होने पर प्रतिक्रियात्मक
क्रोध नहीं करता और कटुता का उत्तर मधुरता से देता है। कच्चा फल कठोर और
कटु होता है तथा पकने पर मृदु और मधुर हो जाता है। परिपक्व उत्तम पुरुष
प्रेमरसपूर्ण, मृदु और मधुर हो जाता है।
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सब मनुष्यों में
परमात्मा का दर्शन करनेवाला पुरुष किसी का अपमान नहीं करता तथा निःस्वार्थ
जन-सेवा को प्रभु-सेवा अथवा परमेश्वर की पूजा ही मानता है। कर्मयोगी अपना
व्यवहार शुद्ध करके आत्मशुद्धि करता है। छठे अध्याय का अन्तिम श्लोक आगामी
छह अध्यायों में उपासना (भक्ति) की प्रधानता का सूचक है, यद्यपि गीता के
तीनों की षट्कों में कर्म, भक्ति और ज्ञान का समानान्तर प्रतिपादन है। इति
शम्
जय जय शङ्कर हर हर शङ्कर । काशी शङ्कर पालय माम् ॥
..
साभार : पूज्यपाद स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी