Wednesday 12 October 2016

देशी नस्ल की गायों की ह्त्या और संतों पर हो रहे प्रहार समाज पर भारी पड़ेंगे .....

देशी नस्ल की गायों की ह्त्या और संतों पर हो रहे प्रहार समाज पर भारी पड़ेंगे| अब प्रकृति इन्हें और सहन नहीं करेगी| इनका परिणाम महाविनाश होगा|
भू और खनन माफियाओं ने लगभग सारी गोचर भूमियों का अतिक्रमण कर लिया है| गायों के चरने के स्थान नहीं बचे हैं| बछड़ों के लिए कोई अभयारण्य नहीं हैं| उन्हें जन्मने के कुछ माह पश्चात आवारा फिरने के लिए छोड़ दिया जाता है| गौ वंश की तस्करी हो रही है| कुछ समय पश्चात दूध भी विदेशों से आयात करना पड़ेगा|
एक संत किसी से कोई अपेक्षा रखे बिना, सिर्फ परमात्मा पर आश्रित हो अपनी समष्टि साधना करता है| माफिया लोगों ने संतों को भी सताना शुरू कर दिया है| इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे| यह समाज पर भारी पडेगा|

जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ ........

जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ ........
दोष डुबकी में है, महासागर में नहीं| जब हमें महासागर में मोती ही ढूँढने हैं तो वे समुद्र तट की रेत में लात मारने से नहीं मिलेंगे| उसके लिए समुद्र की गहराई में डुबकी लगानी होगी| जो गहरे पानी में उतरेंगे उन्हें ही मोती मिलेंगे, न कि ऊपरी सतह पर तैरने वालों को|
यदि मोती नहीं मिलते हैं तो इसमें सागर का क्या दोष है? दोष तो डुबकी में है|
परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए भी स्वयं को गहराई में उतरना होगा| कोई दूसरा हमारे लिए यह कार्य नहीं कर सकता| किसी के पीछे पीछे भागने से कुछ नहीं होने वाला|
मात्र प्रवचन सुनने, मात्र ग्रंथों का अध्ययन करने या ऊँची ऊँची दार्शनिक बातों से कुछ नहीं होगा| आहुती स्वयं की ही देनी होगी|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

यज्ञ ......

यज्ञ का अर्थ बहुत विस्तृत है| जैसा मैं समझ सका हूँ उसके अनुसार मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि ..... जो भी कार्य समष्टि के कल्याण के लिए किया जाता है, वह यज्ञ है| समष्टि के लिए सर्वश्रेष्ठ कार्य जो कोई कर सकता है वह है ..... परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम विकसित करने और परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित होने का निरंतर प्रयास| यह मेरी दृष्टी में सबसे बड़ा यज्ञ है क्योंकि इसमें अपने अहं यानि मानित्व की आहुती अपने प्रियतम प्रभु को दी जाती है| जब अहं समाप्त हो जाता है तब केवल परमात्मा ही बचते हैं| यही समष्टि की सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा यज्ञ है|
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना ||
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इस जीवन में माता पिता की सेवा और सम्मान प्रथम यज्ञ है| उसके बिना अन्य यज्ञ सफल नहीं होते| वे लोग भाग्यशाली हैं जिन्हें माता पिता की सेवा का अवसर मिलता है| माता पिता का तिरस्कार करने वाले से उसके पितृगण प्रसन्न नहीं होते| उसके घर में कोई सुख शांति नहीं होती और उसके सारे यज्ञ कर्म विफल होते हैं|
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इस ग्रह पृथ्वी के देवता 'अग्नि' हैं| भूगर्भ में जो अग्नि है उसी के कारण पृथ्वी पर जीवन है| उस भूगर्भस्थ अग्नि के कारण ही हमें सब प्रकार के रत्न, धातुएँ और वनस्पति प्राप्त होती हैं| इसीलिए सृष्टि में इस पृथ्वी लोक पर जहाँ हमारा वर्तमान अस्तित्व है वहाँ परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक "अग्नि" ही है| उस "अग्नि" में हम समष्टि के कल्याण के लिए कुछ विशिष्ट मन्त्रों के साथ आहुतियाँ देते हैं वह यज्ञ का एक रूप है|
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एक विशिष्ट विधि द्वारा प्राण में अपान, और अपान में प्राण कि आहुतियाँ देते हैं, वह भी यज्ञ का एक रूप है| फिर प्रणव का मानसिक जप करते हुए ज्योतिर्मय नाद ब्रह्म में लय होकर अपने अस्तित्व का अर्पण करते हैं, वह भी यज्ञ है|
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परोपकार के लिए हम जो भी कार्य करते हैं वह भी यज्ञ की श्रेणी में आता है| भगवान की भक्ति भी एक यज्ञ है| परमात्मा की चर्चा "ज्ञान यज्ञ" है|
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कस्मै देवाय हविषा विधेम? हम किस देवता की प्रार्थना करें और किस देवता के लिए हवन करें, यजन करें, प्रार्थना करें? कौन सा देव है,जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा कर सके, हमको शांति प्रदान कर सके , हमें ऊँचा उठाने में सहायता दे सके? किस देवता को प्रणाम करें? ऐसा देव कौन है?
मेरी समझ से ये वे देव हैं जिन्होनें मुझ में ही नहीं, पूरी सृष्टि में स्वयं को व्यक्त कर रखा है| उन्हीं परब्रह्म का ध्यान मेरे लिए "साधना" है|
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अपने ह्रदय में परमात्मा को पाने की प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित कर शिवभाव में स्थित होकर प्रणव की चेतना से युक्त होकर हर साँस में सोsहं-हंसः भाव से उस प्रचंड अग्नि में अपने अस्तित्व की आहुतियाँ देकर प्रभु की सर्वव्यापकता और अनंतता में विलीन हो जाना सबसे बड़ा यज्ञ है|
अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का प्रभु में पूर्ण समर्पण कर उनके साथ एकाकार हो जाना ही यज्ञ कि परिणिति है|
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव | शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर

जन्म और मृत्यु से परे ...........

जन्म और मृत्यु से परे ...........
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जन्म और मृत्यु से परे एक ऐसी चेतना जागृत हो जहाँ जन्म, मृत्यु और पृथकता का बोध एक स्वप्न हो जाये| जहाँ कुछ भी मुझ से पृथक ना हो, परमात्मा की पूर्णता और अनंतता ही मेरा अस्तित्व हो| मैं यह देह नहीं अपितु सर्वव्यापी परम चैतन्य हूँ| इस पृथ्वी से लाखों करोड़ों अरबों प्रकाशवर्ष दूर स्थित ऐसे नक्षत्र मंडल भी हैं, जहाँ से जब प्रकाश चला था तब पृथ्वी का अस्तित्व ही नहीं था, और जब तक उनका प्रकाश पृथ्वी तक पहुंचेगा तब तक इस पृथ्वी का अस्तित्व भी नहीं रहेगा| वे नक्षत्र मंडल और उनका प्रकाश भी मैं ही हूँ|
यह समस्त अस्तित्व मेरा घर है, यह समस्त सृष्टि मेरा परिवार है|
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हे प्रभु, हे परमशिव आप और मैं एक हैं, जो भी थोड़ी बहुत अज्ञानता और पृथकता का बोध है उसे समाप्त करो| आपकी अनंतता और पूर्णता ही मैं रहूँ|
हे जगन्माता, करुणा कर के इन अज्ञान रुपी ग्रंथियों ..... ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि और रूद्रग्रंथि ..... का भेदन करो|
आप ही इस देह में अवस्थित हैं| अपनी महिमा को व्यक्त करो| मैं आपकी शरणागत हूँ|
मुझे आपके परम प्रेम, ज्ञान, भक्ति, और वैराग्य के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
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इस राष्ट्र भारत के भीतर व बाहर के सभी शत्रुओं का नाश करो| भारत की अस्मिता की रक्षा हो| भारतवर्ष अपने परम वैभव को प्राप्त करे|
सम्पूर्ण समष्टि का, सब प्राणियों का कल्याण हो| आपकी जय हो|
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ॐ तत्सत् | अयमात्मा ब्रह्म | तत्वमसि | सोsहं | ॐ ॐ ॐ ||

गृहस्थ जीवन और परमात्मा का साक्षात्कार .....

कोई गृहस्थ व्यक्ति जो अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है ?
शास्त्रों में सुख, सम्पति, परिवार और बड़ाई को राम भक्ति में बाधक माना है|
वानप्रस्थ आश्रम पुस्तकों में ही सीमित रह गया है| 50 वर्ष की आयु में कोई वानप्रस्थ बनता दिखाई नहीं देता| मरते दम तक सभी गृहस्थ ही रहते हैं| तथाकथित पारिवारिक उत्तरदायित्व कभी पीछा ही नहीं छोड़ते|
सहयोग न मिलने के पश्चात भी क्या कोई अपने सहयोगी को उसी प्रकार लेकर चल सकता है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है ?
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विभिन्न देहों में मेरे ही प्रियतम निजात्मन,
मैंने मात्र चर्चा हेतु मंचस्थ मनीषियों और विद्वानों से प्रश्न किया था कि .....
(1) कोई गृहस्थ व्यक्ति जो अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या वह सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है ?
(2) क्या कोई अपने सहयोगी को उसी प्रकार लेकर चल सकता है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है ?
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मेरी दृष्टी में ये अति गहन प्रश्न हैं पर उनका उत्तर मेरे दृष्टिकोण से बड़ा ही सरल है जिसे मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ .....
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विवाह हानिकारक नहीं होता है| पर उसमें नाम रूप में आसक्ति आ जाए कि मैं यह शरीर हूँ, मेरा साथी भी शरीर है, तब दुर्बलता आ जाती है और इस से अपकार ही होता है| वैवाहिक संबंधों में शारीरिक सुख की अनुभूति से ऊपर उठना होगा| सुख और आनंद किसी के शरीर में नहीं हैं| भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता|
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यह अपने अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा हो| इसमें सुकरात के, संत तुकाराम व संत नामदेव आदि के उदाहरण विस्तार भय से यहाँ नहीं दे रहा|
हम ईश्वर की ओर अपने स्वयं की बजाय अनेक आत्माओं को भी साथ लेकर चल सकते हैं| ये सारे के सारे आत्मन हमारे ही हैं| परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने से पूर्व हम अपनी चेतना में अपनी पत्नी, बच्चों और आत्मजों के साथ एकता स्थापित करें| यदि हम उनके साथ अभेदता स्थापित नहीं कर सकते तो सर्वस्व (परमात्मा) के साथ भी अपनी अभेदता स्थापित नहीं कर सकते|
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क्रिया और प्रतिक्रया समान और विपरीत होती है| यदि मैं आपको प्यार करता हूँ तो आप भी मुझसे प्यार करेंगे| जिनके साथ आप एकात्म होंगे तो वे भी आपके साथ एकात्म होंगे ही| आप उनमें परमात्मा के दर्शन करेंगे तो वे भी आप में परमात्मा के दर्शन करने को बाध्य हैं|
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पत्नी को पत्नी के रूप में त्याग दीजिये, आत्मजों को आत्मजों के रूप में त्याग दीजिये, और मित्रों को मित्र के रूप में देखना त्याग दीजिये| उनमें आप परमात्मा का साक्षात्कार कीजिये| स्वार्थमय और व्यक्तिगत संबंधों को त्याग दीजिये और सभी में ईश्वर को देखिये| आप की साधना उनकी भी साधना है| आप का ध्यान उन का भी ध्यान है| आप उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार कीजिये|
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और भी सरल शब्दों में सार की बात यह है की पत्नी को अपने पति में परमात्मा के दर्शन करने चाहियें, और पति को अपनी पत्नी में अन्नपूर्णा जगन्माता के| उन्हें एक दुसरे को वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा वे परमात्मा को करते हैं| और एक दुसरे का प्यार भी परमात्मा के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए| वैसा ही अन्य आत्मजों व मित्रों के साथ होना चाहिए| इस तरह आप अपने जीवित प्रिय जनों का ही नहीं बल्कि दिवंगत प्रियात्माओं का भी उद्धार कर सकते हो| अपने प्रेम को सर्वव्यापी बनाइए, उसे सीमित मत कीजिये|
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आप में उपरोक्त भाव होगा तो आप के यहाँ महापुरुषों का जन्म होगा|
यही एकमात्र मार्ग है जिस से आप अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते है, अपने सहयोगी को भी उसी प्रकार लेकर चल सकते है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है|
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मैं कोई अधिक पढ़ा लिखा विद्वान् नहीं हूँ, न ही मेरा भाषा पर अधिकार है और न ही मेरी कोई लिखने की योग्यता है| अपने भावों को जितना अच्छा व्यक्त कर सकता था किया है|
ईश्वर की प्रेरणा से ही यह लिख पाया हूँ| कोई भी यदि इन भावों को और भी अधिक सुन्दरता से कर सकता है और करना चाहे तो वह स्वतंत्र है|
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आप सब विभिन्न देहों में मेरी ही निजात्मा हैं, मैं आप सब को प्रेम करता हूँ और सब में मेरे प्रभु का दर्शन करता हूँ| आप सब को प्रणाम|
ॐ तत्सत् |
कृपा शंकर
October 13, 2013

***** दशहरे की शुभ कामनाएँ ***** "सीता को पा कर ही हम रावण का नाश कर सकते हैं, और तभी राम से जुड़ सकते हैं" .....

***** दशहरे की शुभ कामनाएँ *****
"सीता को पा कर ही हम रावण का नाश कर सकते हैं,
और तभी राम से जुड़ सकते हैं" .....
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हमारा प्रथम, अंतिम और एकमात्र शत्रु कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर ही अवचेतन मन में छिपा बैठा विषय वासना रुपी रावण है|
हमारे ह्रदय के एकमात्र राजा राम हैं| उन्होंने ही सदा हमारी ह्रदय भूमि पर राज्य किया है, और सदा वे ही हमारे राजा रहेंगे| अन्य कोई हमारा राजा नहीं हो सकता| वे ही हमारे परम ब्रह्म हैं|
हमारे ह्रदय की एकमात्र महारानी सीता जी हैं| वे हमारे ह्रदय की अहैतुकी परम प्रेम रूपा भक्ति हैं| वे ही हमारी गति हैं| वे ही सब भेदों को नष्ट कर हमें राम से मिला सकती हैं| अन्य किसी में ऐसा सामर्थ्य नहीं है|
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हमारी पीड़ा का एकमात्र कारण यह है कि हमारी सीता का रावण ने अपहरण कर लिया है| हम सीता को अपने मन के अरण्य में गलत स्थानों पर ढूँढ रहे हैं और रावण के प्रभाव से दोष दूसरों को दे रहे हैं, जब कि कमी हमारे प्रयास की है| यह मायावी रावण ही हमें भटका रहा है| सीता जी को पा कर ही हम रावण का नाश कर सकते हैं, और तभी राम से जुड़ सकते हैं|
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राम से एकाकार होने तक इस ह्रदय की प्रचंड अग्नि का दाह नहीं मिटेगा, और राम से पृथक होने की यह घनीभूत पीड़ा हर समय निरंतर दग्ध करती रहेगी| राम ही हमारे अस्तित्व हैं और उनसे एक हुए बिना इस भटकाव का अंत नहीं होगा| उन से जुड़कर ही हमारे वेदना का अंत होगा और तभी हम कह सकेंगे ..... "शिवोSहं शिवोSहं अहं ब्रह्मास्मि"|
= कृपा शंकर =
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पुनश्चः .... इस राष्ट्र में धर्म रूपी बैल पर बैठकर भगवान शिव ही विचरण करेंगे, और भगवान श्रीकृष्ण की ही बांसुरी बजेगी जो नवचेतना को जागृत करेगी| सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा होगी व असत्य और अन्धकार की शक्तियों का निश्चित रूप से नाश होगा| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
= कृपा शंकर =
October 11, 2014

मैं ज्योतिषांज्योति पूर्ण प्रकाश हूँ .....

मैं ज्योतिषांज्योति पूर्ण प्रकाश हूँ .....
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मंचस्थ निजात्मन, आप सब विभिन्न रूपों में मेरी ही निजात्मा हो| आप सब को मेरे ह्रदय का सम्पूर्ण अनंत अहैतुकी प्रेम समर्पित है|

धर्म और राष्ट्र के उत्थान के लिए आप जैसे प्रत्येक सच्चे भारतीय को अपनी दीनता और हीनता का परित्याग कर अपने निज देवत्व को जागृत करना होगा| क्षुद्रात्मा पर परिछिन्न माया के आवरण को हटाना होगा|

"आप पूर्ण प्रकाश हैं| आप ज्योतियों की ज्योति -- ज्योतिषांज्योति हो|
आपके संकल्प और दिव्य प्रकाश से ही सम्पूर्ण संसार का विस्तार हुआ है| आप कोई ख़ाक के पुतले और दीन हीन नहीं हो|"

"आप सम्पूर्ण समष्टि, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हो| सम्पूर्ण सृष्टि ही आपका शरीर है|
आपका अभ्युदय ही सृष्टि का अभ्युदय है और सृष्टि का उत्कर्ष ही आपका उत्कर्ष है|
आपके अन्तस्थ सूर्य का प्रकाश ही एकमात्र प्रकाश, प्रकाशों का प्रकाश -- ज्योतिषांज्योति है|"
जब आप साँस लेते हो तो सम्पूर्ण सृष्टि साँस लेती है, जब आप साँस छोड़ते हो तो सम्पूर्ण सृष्टि साँस छोड़ती है| जब आप जागते हो तो सारी सृष्टि जागती है, आप सोते हो तो सारी सृष्टि सोती है| आपकी प्रगति ही सारी सृष्टि की प्रगति है|

निरंतर निदिध्यासन करते रहिये --- "मैं प्रकाशों का प्रकाश हूँ", "तत्वमसि", "सोsहं"|
आप उस ज्योतिषांज्योति से स्वयं को एकाकार कीजिये| यही आपका वास्तविक तत्व है| तब आप में कोई भय, आक्रोष और दु:ख नहीं रहेगा|

"सर्वत्र आप ही तो हो| आपका निज प्रकाश निरंतर, अविचल और शाश्वत है|
यह संसार तो छोटी मोटी तरंगों और भंवरों से अधिक नहीं है|
आप परिपूर्ण और मूर्तमान आनंद हैं|"

अपनी उच्चतर क्षमताओं को विकसित करने के लिए इसी विचार को निरंतर बल देना होगा --- "तत्वमसि, सोsहं"|| ॐ ॐ ॐ !!

= कृपा शंकर =
October 11, 2013.

तनाव से निवृति .....

(संकलन : स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से)
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तनाव से निवृति .....
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यदि ध्यान के अभ्यास से अहंकार और वासना क्षीण न हो तो वह मात्र एक मनोरंजक व्यायाम है| विचार और व्यवहार में परिवर्त्तन होना ध्यान की सिद्धता की सच्ची कसौटी है| मनुष्य ध्यान के द्वारा मन और बुद्धि से परे ऊर्ध्वचेतना में आरोहण करते हुए दिव्य चेतना में निमग्न होकर, शून्यता से परे पूर्णता की अवस्था में सुरदुर्लभ परमानन्दानुभूति कर सकता है| ध्यान ऊर्जा, प्रकाश, दिव्यता और आनन्द-प्राप्ति का सर्वोच्य साधन है|
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मनुष्य के मन की शक्तियां असंख्य दिशाओं में बिखरी रहती हैं| उन्हें समेटने के लिए ध्यान का अभ्यास अमोघ उपाय है| योगीजन प्रायः खेचरी मुद्रा में (अर्थात् जिह्वा को विपरीत तालु में लगाकर) भृकुटी पर दृष्टी एकाग्र करते हैं| भृकुटी का ध्यान मनुष्य के तीसरे नेत्र (अन्तर्चक्षु) को खोलकर अकल्पनीय मानसिक दृष्टि से भृकुटि में प्रकाश पर ध्यान को स्थिर किया जा सकता है|
साधक को नीरव, शान्त तथा एकान्त स्थल में सुविधाजनक मुद्रा में बैठकर धीरे-धीरे कोई छोटा-सा मंत्र (ॐ, सोऽहं, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ नमः शिवाय, नमः शिवाय कोई भी वैदिक मन्त्र) जपते हुए ध्यान का अभ्यास करना चाहिए|
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ध्यान मस्तिष्क को ऊर्जा एवं प्रकाश देकर समस्त शारीरिक क्रियाओं (रक्त-प्रवाह, श्वास, हृदय-स्पन्दन, चयापचय इत्यादि को तथा मानसिक गति को पूर्णतः नियन्त्रित करने एवं सहज बनाने में सहायक होता है तथा शरीर एवं मस्तिष्क को गहरी विश्रान्ति प्रदान कर देता है। ध्यान का अभ्यास मनुष्य को न केवल समस्त मानसिक रोगों एवं दुर्व्यसनों की रुचि से मुक्त करके पूर्णतः सन्तुलित एवं स्वस्थ कर सकता है, बल्कि उसे दिव्य जीवन की ओर भी उन्मुख कर देता है ध्यान तनाव और अनिद्रा को दूर करने का अमोघ उपाय है। ध्यान के समय़ श्वास सीधा और गहरा होकर आयुवृद्धि करता है। योगी ध्यान द्वारा अचिनत्य, कल्पनीय परमब्रह्म का साक्षात्कार कर लेते हैं। ध्यान का उद्देश्य भौतिक जगत् से ऊपर उठकर दिव्य चेतना में निमग्न होना है।
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नारायण ! प्रकृति ने मानवदेह के मध्य बिन्दु के रूप में नाभि को संस्थित किया है। मनुष्य की प्राण शक्ति ऊर्जा के रूप में चिन्तन के अनुसार ऊर्ध्वामुकी होकर मस्तिष्क की ओर अथवा अधोमुखी होकर नाभि से नीचे की ओर प्रवाहित होती है। साधक चिन्तन एवं ध्यान द्वारा चेतना के प्रवाह अथवा प्राणों की ऊर्जा के प्रवाह को ऊर्ध्वामुखी करके भोग से योग की ओर अथवा अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ता है। यही ब्रह्मचर्य एंव आनन्द प्राप्ति का सोपान है।ध्यान के अभ्यास में, विशेषतः कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में, सिद्ध गुरु से दिशा-निर्देशन प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक होता है।
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तर्कवादी मनुष्य कदापि सूक्ष्म तत्व का ग्रहण नहीं कर सकता। पाण्डित्य-प्रदर्शन और वाक्-पटुता सूक्ष्म अनुभूति के आदान-प्रदान में बाधक होते हैं। साधक को श्रद्धा और विश्वास से परिपूरित होकर सदगुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिए। सदगुरु गूढ़ तत्वों को सरल प्रकार से हृदयंगम करा देते हैं। ध्याननिमग्न मनुष्य न केवल स्वयं गहन शान्ति का अनुभव करता है, बल्कि अन्य समीपस्थ मनुष्यों में भी शान्ति, सद्भवाना एवं सात्त्विकता का संचार कर देता है।
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श्रीमद् भगवद्गीता में कुण्डलिनी योग की चर्चा नहीं है, यद्यपि तन्त्र विद्या में ध्यान के संदर्भ में उसका विशेष महत्व कहा गया है। साधक विभिन्न स्तरों को पार करते हुए क्रम-विकास के पथ पर अग्रसर होता है। मानव-देह में मेरुदण्ड के अधोभाग में स्थित मूलाधार चक्र में अनन्त शक्ति (सूक्ष्म नाड़ी तन्तुरुप) कुण्डली लगाये हुए सर्प की आकृति में स्थित है। मल मूत्र विसर्जन के स्थानों के समीप स्थित इस केन्द्र को शक्तिपीठ अथवा योनिपीठ भी कहते हैं। षट्कमलों अथवा षट्चक्रों का भेदन करना षट्चक्र सोपान पर चढ़ना कुण्डलिनी तत्व को जगाने (कुण्डलिनी-जागरण) की विधि है। मेरुदण्ड में तीन प्रमुख नाडियाँ हैं-सुषुम्ना (बोधिनी अथवा प्राणतोषिणी सरस्वती), इडा (गंगा) और पिंगला (यमुना) जो सत्, रज और तम की भी सूचक हैं।
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योगी त्रिवेणी से मानसिक स्नान करते हैं। मेरुदण्ड जीवन का परिचालक, पोषक एवं धारक होता है। दिव्य सहस्रदल कमल (ब्रह्मरन्ध्र) में चन्द्रमा विराजमान है, जिसका चिन्तन योगी करते हैं। सुषुम्ना के सहारे षट्चक्र इस प्रकार हैं-*मूलाधार चक्र (तत्व पृथ्वी, वर्ण पीत, देवता गणेश, सम्बद्ध वाहन हाथी। इसके कमल में चार दल हैं।
"यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः।
उभयोरन्तरं नास्ति गुरोरपि शिवस्य च॥"
जो गुरु है, वह शिव कहा गया है, जो शिव है वह गुरु माना गया है। गुरु और शिव दोनों में अन्तर नहीं है।
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षट् चक्रों एवं सप्तम सहस्रार चक्र को सप्तलोक ( भूः भुवः स्वः तपः जनः महः सत्यम् ) भी कहा गया है। मूलाधार चक्र भूलोक तथा सहस्रार चक्र ब्रह्मलोक है। कुछ हठयोगी नाभिचक्र में मूलाधार का स्थान तथा आज्ञाचक्र में सहस्रार का स्थान मानते हैं।
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स्वाधिष्ठान चक्र (तत्व जल, वर्ण श्वेत, देवता ब्रह्मा, सम्बद्ध वाहन मगरमच्छ, इसके कमल में छह सिन्दूरी पँखुड़ियाँ हैं। )
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मणिपुर चक्र (तत्व अग्नि, वर्ण हेम, देवता विष्णु, सम्बद्ध वाहन मेष। इसके कमल में दस पँखुडियाँ हैं। )
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अनाहत चक्र (तत्व आकाश, वर्ण श्वेत अथवा सुहेम, वाहन गज। इसमें सिलेटी बैंगनी रंग की सोलह पँखुडियाँ हैं। )
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आज्ञा चक्र (इसके श्वेत कमल में केवल दो पँखुडियाँ हैं, इसका देवता महेश्वर है। ) आज्ञा चक्र में दिव्य ज्योति की अनुभूति होती है।
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नारायण ! कुण्डलिनी शक्ति जागृत होने पर असंख्य विद्युत-तरंगों के केन्द्र तथा एक हजार पंखुड़ियों के कमलवाले सहस्रार, चक्र को प्राप्त हो जाती है। चित्शक्ति जो सर्पिलरुप में, कुण्डलिनी रूप में, मूलाधार चक्र में (सुषुम्ना के विविर में) प्रसुप्त होकर स्थित है, जागृत होने पर चक्रभेदन करती हुई मस्तिष्क के मध्य में स्थित सहस्राकार चक्र तक पहुँचकर ब्रह्मलीन हो जाती है। सहस्रार चक्र का आज्ञा चक्र के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। मेरुदण्ड शिव के पिनाक का प्रतीक है। पिनाक का एक भाग, जो मूलाधार चक्र में रहता है, चित्रकूट कहलाता है तथा सारा देह अयोध्यापुरी कहलाता है। मूलाधार के पद्म के मध्य स्थित योनि में कुण्डलिनी स्थित है। सहस्रार चक्र अथवा ब्रह्मरन्ध्र ही ब्रह्मलोक है, जहाँ महाशिवलिंग विराजमान है अथवा यह चित् स्वरुप महाशिव का कैलासरुप वास-स्थान है।
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मूलाधार चक्र के भेदन से मिट्टी-तत्व पर विजय प्राप्त होती है तथा ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण प्रारम्भ हो जाता है। योगी क्रमशः पाँचों तत्वों पर विजय पाकर ऊर्ध्वरेता हो जाता है तथा गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। कुण्डलिनी शक्ति के विविध चक्रों को पार करते समय योगी को विभिन्न ध्वनियों का श्रवण होता है। योगी में आन्तरिक ऊर्जा का विकास एवं आरोहण होता है तथा वह अपने भीतर ऊर्ध्वगमन करते हुए एक विशेष स्तर पर आकर गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो जाता है अर्थात् जड़ता से मुक्त हो जाता है और उसके जीवन में सत्यं शिवं सुन्दरम् का समावेश हो जाता है। भौतिक आकर्षण से विमुक्त होकर वह सहज प्रेम और करुणा से परिपूर्ण हो जाता है। योगी को अनेक सूक्ष्म शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। अष्ट सिद्धि उसे हस्तगत हो जाती है, किंतु योगी का लक्ष्य दिव्यसुधापान है।
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ब्रह्मरन्ध्र का संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ होता है। सुषुम्ना मूलाधार से सहस्रार तक अखण्डरूप से स्थित रहती है तथा उमा की प्रतीक कही जाती है। मूलाधार चक्र के भेदन से ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण प्रारंभ हो जाता है। जब वाग्देवी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सुषुम्ना के द्वारा मूलाधार के सहस्रार तक प्रवाहित हो जाती है, मूलाधार को सहस्रार से जोड़ देती है, वह उमा-शिव-मिलन भी कहलाता है तथा साधक को महाभाव की मधुर मूर्च्छा, दिव्यावेश, असह्य आनन्द, सौन्दर्य-दर्शन इत्यादि का अनुभव होता है तथा ऊर्ध्वागामी चेतना का परम चेतना के साथ ऐक्य होने पर परमानन्द प्राप्ति हो जाती है। इस ध्यान-प्रक्रिया में मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध, जालन्धर बन्ध, महाबन्ध तथा खेचरी मुद्रा सहायक होते हैं।
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ॐकार का नाद नाभिकमल से उत्थित होकर अनाहत चक्र को झंकृत करता हुआ कण्ठस्थित विशुद्ध चक्र में स्फुट होता है तथा योगियों को स्फोट एवं नाद का दिव्य अनुभव होता है। ॐकार का वासस्थान आज्ञा चक्र होने के कारण भृकुटी पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तथा भृकुटी पर चन्दन का तिलक किया जाता है। वास्तव में समस्त मस्तक ऊर्जा का संवेदनशील स्थल होता है।
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नारायण ! ध्यान की साधना से मनुष्य ऐसी मानसिक अवस्था को प्राप्त हो जाता है, जब उसे घोर दुःख भी विचलित नहीं कर सकते। साधक विद्युत के वेग से सदृश प्रसारित होनेवाली दिव्य शक्ति का अनुभव समस्त देह, मन और मस्तिष्क में करता है तथा वह सभी अङ्मों में उसकी व्याप्ति देखता है। संसिद्ध योगी सम्पूर्ण प्राणियों में भगवान् का दर्शन करता है तथा समदर्शी होता है। यदि मृत्यु होने तक साधना अपूर्ण रह जाती है, साधक आगामी जन्मों में पुराने संस्कारों के बल से पुनः साधना की उच्चभूमि की प्राप्ति का प्रयत्न करता है तथा अन्त में परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। मनुष्य का मन परमात्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पूर्ण विश्रान्ति नहीं पा सकता। श्रद्धापूर्वक भगवद्भजन करनेवाला सर्वश्रेष्ठ होता है।
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कर्मयोगी के लिए परिवार सम्पूर्ण साधना का श्रेष्ठ केन्द्र-स्थल होता है। यद्यपि आद्यात्मिक प्रगति में तीर्थों का विशेष महत्व है, कर्मयोगी के लिए सत्य, क्षमा, इन्द्रयि-संयम प्राणियों के प्रति दयाभाव तथा सरल व्यवहार भी तीर्थ होते हैं। कर्मयोगी इन गुणों का अभ्यास परिवार में कर सकता है। परिवार के सदस्य उत्तम भावना, विचार, वचन और व्यवहार द्वारा परिवार को स्वर्ग बना सकते हैं। अपार भौतिक सम्पदा, वैभव और ऐश्वर्य में सुख देने की क्षमता नहीं होती। कर्मयोगी को सद्गुणों की अपेक्षा भौतिक सम्पदा को तुच्छ मानकर सद्गुणों के विकास एवं अभ्यास पर बल देना चाहिए। संघटित परिवार प्रत्येक सदस्य की संकटवेला में पूर्ण सहायता का श्रेष्ठ आश्वासन (बीमा) होता है, किंतु अविवेकीजन की क्षुद्रता, संकीर्णता तथा असहनशीलता के कारण परिवार टूट जाते हैं।
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नारायण ! घृणा को घृणा से, कटुता को कटुता से, क्रोध को क्रोध से, दुष्टता को दुष्टता से, हिंसा को हिंसा से, क्षुद्रता को क्षुद्रता से, असत्य को असत्य से तथा अन्धकार को अन्धकार से कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है, किंतु घृणा को प्रेम से, कटुता को मधुरता से, क्रोध को क्षमा से, दुष्टता को साधुता से, हिंसा को अहिंसा से, क्षुद्रता को उदारता से, असत्य को सत्य से तथा अन्धकार को प्रकाश से ही जीता जा सकता है। मनुष्य की व्यक्तिगत सुखभोग की कामना महान् पुरुषार्थ को भी तुच्छ स्वार्थ बना देती है तथा यज्ञ-भावना (उदार-वृत्ति) पुरुषार्थ को परमार्थ बना देती है। सत्य प्रेम और सेवा मन के विष को धोकर उसे निर्मल बना देते हैं, संयम, सादगी और संतोष मनुष्य को सुख एवं शान्ति देते हैं तथा आध्यात्मिक भाव (ज्ञान, ध्यान एवं भक्ति) उसे आनन्द एवं दिव्यता प्रदान कर सकते हैं। सत्य, क्षमा, इन्द्रिय-संयम, दयाभाव तथा सरल व्यवहार का अभ्यास परिवार को सुगठित एवं सुखमय बना देते हैं। परिवार समाज की महत्वपूर्ण इकाई होता है तथा परिवारों के सुदृढ़ होने पर समाज हो जाता है। जो मनुष्य परिवार के लिए उपयोगी होता है, वहीं समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।
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नारायण ! मनुष्य का मन ही सुख और दुःख का कारण होता है तथा मनुष्य स्वयं अपने विचारों द्वारा अपने मन का निर्माण करता है। मनुष्य जैसा चिन्तन करता है, वैसा ही मन हो जाता है, मन के स्वरुप का निर्माण चिन्तन द्वारा हो जाता है। अतएव स्वाध्याय (उत्तम ग्रन्थों का अध्ययन) तथा सत्संग का जीवन में अतुलनीय महत्व होता है। स्वाध्याय एवं सत्संग का जीवन में अतुलनीय महत्व होता है। स्वाध्याय एवं सत्संग से विवेक उत्पन्न होता है तथा मनुष्य विवेक द्वारा कामना आदि दोषों की निवृत्ति कर सकता है।
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विवेकशील पुरुष प्रेम, क्षमा, सहनशीलता तथा सेवाभाव से अपने चारों ओर मधुर वातावरण का निर्माण कर लेता है तथा विवेकहीन मनुष्य अंहकार, घृणा, क्रोध, संकीर्णता तथा स्वार्थ से अपने चारो ओर शत्रुतापूर्ण वातावरण का निर्माण कर लेता है तथा अकेला पड़कर सभी दूसरों को दोष देता रहता है। स्वार्थपूर्ण तथा अंहकारपूर्ण मनुष्य को अपने अतिरिक्त कोई व्यक्ति उत्तम प्रतीत नहीं होता तथा अन्त में वह स्वयं से भी घृणा करके दुखी, व्याकुल तथा अशान्त हो जाता है।
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स्वार्थ विकास-प्रक्रिया में बाधक तथा स्वार्थत्याग सहायक होता है। कर्मयोगी अपने कर्मक्षेत्र में भयरहित एवं चिन्तारहित होकर कर्म करता है तथा सहज प्रसन्न रहता है। वह किसी के क्रुद्ध होने पर प्रतिक्रियात्मक क्रोध नहीं करता और कटुता का उत्तर मधुरता से देता है। कच्चा फल कठोर और कटु होता है तथा पकने पर मृदु और मधुर हो जाता है। परिपक्व उत्तम पुरुष प्रेमरसपूर्ण, मृदु और मधुर हो जाता है।
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सब मनुष्यों में परमात्मा का दर्शन करनेवाला पुरुष किसी का अपमान नहीं करता तथा निःस्वार्थ जन-सेवा को प्रभु-सेवा अथवा परमेश्वर की पूजा ही मानता है। कर्मयोगी अपना व्यवहार शुद्ध करके आत्मशुद्धि करता है। छठे अध्याय का अन्तिम श्लोक आगामी छह अध्यायों में उपासना (भक्ति) की प्रधानता का सूचक है, यद्यपि गीता के तीनों की षट्कों में कर्म, भक्ति और ज्ञान का समानान्तर प्रतिपादन है। इति शम्
जय जय शङ्कर हर हर शङ्कर । काशी शङ्कर पालय माम् ॥
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साभार : पूज्यपाद स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी

हम एक कण नहीं अपितु सम्पूर्ण प्रवाह हैं ....

हम एक कण नहीं अपितु सम्पूर्ण प्रवाह हैं ....
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सागर की लहरें उठती हैं, गिरती हैं, फिर उठती हैं और निरंतर प्रवाहित होती रहती हैं| उनमें अनंत कण हैं जल के| यह समस्त सृष्टि भी एक प्रवाह है| कुछ भी स्थिर नहीं है| सब कुछ गतिशील है| इसके पीछे एक अनंत ऊर्जा है| उस अनंत ऊर्जा का सतत प्रवाह ही यह सृष्टि है| वह सम्पूर्ण प्रवाह हम स्वयं ही हैं|
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हम एक कण नहीं अपितु सम्पूर्ण प्रवाह हैं| सम्पूर्ण प्रवाह ही नहीं यह महासागर भी हम स्वयं ही हैं| उसके पीछे की समस्त ऊर्जा और विचार भी हम स्वयं ही हैं|
रात्रि की नि:स्तब्धता में सृष्टि और प्रकृति का जो अनंत विस्तार दिखाई देता है, वह अनंतता भी हम ही हैं|
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दिन का प्रकाश और रात्रि का अन्धकार हम ही हैं| प्रकृति का सौंदर्य, फूलों की महक, पक्षियों की चहचहाहट, सूर्योदय और सूर्यास्त, प्रकृति की सौम्यता और विकरालता सब कुछ हम ही हैं| दुनिया की सारी भागदौड़, सारी चाहतें, अपेक्षाएँ और कामनाएँ भी हम ही हैं| सारा विस्तार हमारा ही विस्तार है|
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सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमता, सर्वज्ञता, सारे विचार, सारे दृश्य और सम्पूर्ण अस्तित्व ..... हम से परे कुछ भी अन्य नहीं है|
जो कुछ भी परमात्मा का है वह सब हम ही है| उस होने पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| हम उसके अमृतपुत्र हैं, हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं|
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परमात्मा को अपने भीतर प्रवाहित होने दो| फिर उस प्रवाह में सब कुछ समर्पित कर दो| कहीं पर भी कोई अवरोध नहीं होना चाहिए| जो भी अवरोध आये उसे ध्वस्त कर दो|

परमात्मा से पृथकता ही सब दु:खों का कारण है| अन्य कोई कारण नहीं है|
उससे जुड़ाव ही आनंद है| बाकि सारी खोज एक मृगमरीचिका है जिसकी परिणिति मृत्यु है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
October 10, 2014

संसार में जिसे हम ढूंढ रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं .....

संसार में जिसे हम ढूंढ रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं .....
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सारी दुनिया भाग रही है| एक अंतहीन भागदौड़ है|
इस सारी भागदौड़ का एक ही उद्देष्य है ..... सुख की प्राप्ति| सुख की खोज के लिए मुनष्य दिन रात एक करता है, खून पसीना बहाता है और आकाश पाताल एक करता है| सुख की खोज के लिए ही व्यक्ति धर्म-अधर्म से धन-सम्पत्ति एकत्र करता है, दूसरों का शोषण करता है और पूरा जीवन खर्च कर देता है| पर क्या वास्तव में उसे सुख मिलता है? मनुष्य जो भी मौज-मस्ती करता है वह करता है सुख के लिए| सुखी होना चाहता है आनंद के लिए| पर क्या वह कभी आनंद को पा सकता है?
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मेरा तो अनुभव यही है कि आनंद न तो बाहर है और न भीतर है|
जिस सुख और आनंद को हम बाहर और भीतर ढूंढ रहे हैं वह आनंद तो हम स्वयं ही हैं| सुख की खोज स्वयं की खोज है| बाहर और भीतर की खोज एक गुलामी यानी पराधीनता है| पराधीन व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता|
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एक आदमी ने एक बैल को रस्सी से बाँध रखा है और सोचता है की बैल उसका गुलाम है| पर जितना बैल उसका गुलाम है उतना ही वह भी बैल का गुलाम है|
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हम स्वयं आनंदस्वरूप हैं, हम सच्चिदानंद स्वरुप हैं| उस आत्म तत्व को खोजिये जिसकी कभी कभी एक झलक मिल जाती है| उस झलक मात्र में जो आनंद है, पता नहीं उसको पा लेने के बाद तो जीवन में आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बचेगा| उस आत्म तत्व के अलावा सब कुछ दु:ख और भटकाव ही है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
October 10, 2013

आध्यात्मिक समूहों की आवश्यकता ...

आध्यात्मिक समूहों की आवश्यकता ...
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समान विचारों के आध्यात्मिक साधकों को ऐसे समूह बनाकर जो आपस में एक-दूसरे की सहायता करते हैं, साथ साथ रह कर साधना करनी चाहिए|
आधुनिक काल में पोंडिचेरी के समीप ओरोविल में श्रीअरविन्द के अनुयायियों का सामुहिक प्रयास सराहनीय है|
साधुओं की जमातें, अखाड़े और आश्रम भी इसी दिशा में किये गए सफल प्रयास हैं|
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सामुहिक साधना में लाभ यह है कि जिनके स्पंदन कमजोर होते हैं उनको अपने से अधिक सशक्त स्पंदन वाले साधकों से लाभ मिलता है| ऐसे समूहों पर माया का प्रभाव भी अधिक नहीं पड़ता| लोग एक-दूसरे की शर्म से भी आलस्य नहीं करते और नियमित साधना करते हैं|
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नेशनल जियोग्राफिक चैनेल पर आपने देखा होगा कि हिंसक प्राणी जब किसी को शिकार बनाते हैं तब पहिले तो उसे उसके समूह से अलग करते हैं, फिर उसे मार कर खा जाते हैं| अकेले साधक को माया भी इसी तरह अपना शिकार बनाती है|
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कई बार विवशता में ऐसे सहयोगी साधक नहीं मिलते तब साधक को अपने आप को निरंतर परमात्मा के साथ मानकर, परमात्मा को कर्ता बनाकर, उस भाव से साधना करनी चाहिए|
वास्तव में देखो तो गुरु महाराज और परमात्मा ही इस देह से साधना करते हैं| वे ही कर्ता हैं|
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यदि किसी नगर में एक ही परम्परा के और एक ही पद्धति के अनेक साधक हैं तो उन्हें सप्ताह में कम से कम एक बार तो सामूहिक ध्यान अवश्य ही करना चाहिए|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

विचारों के प्रति हम सजग रहें .....

विचारों के प्रति हम सजग रहें| हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं जिनका फल भुगतना ही पड़ता है| विचार ही हमारी प्रगति या पतन के कारण हैं|
हर विचार के पीछे एक गहन ऊर्जा है जो निश्चित रूप से फलीभूत होती है| जैसा हम सोचते हैं वैसे ही हो जाते हैं|
परमात्मा का चिंतन भी एक उपासना है| उपास्य के गुण उपासक में आये बिना नहीं रहते|
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जीवन में प्रगति न करने की इच्छा, प्रमाद यानि आलस्य, और दीर्घसूत्रता यानि अपने कार्यों को कल पर टालते रहना ..... ये माया के बहुत बड़े अस्त्र हैं|
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न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः |
व्यवहारेण जायन्ति मित्राणि रिपवस्तथा ||
इस संसार में कोई भी न तो किसी का स्थायी मित्र होता है और न शत्रु|
सब अपना अपना हित देखते हैं| भावुकता में उठाये गए सारे कदम अंततः धोखा देते हैं| कभी भी यह नहीं मानना चाहिए कि कोई हमारा स्थायी मित्र या शत्रु है|

>>> सिर्फ परमात्मा ही हमारा स्थायी और शाश्वत मित्र है| <<<
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|| ॐ ॐ ॐ ||

मनुष्य को अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित कराना ही ध्यान साधना का उद्देश्य है ...

मनुष्य को अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित कराना ही ध्यान साधना का उद्देश्य है|

समष्टिगत परम चेतना और आत्म-तत्व दोनों एक परमात्मा ही है| बिना भक्तिभाव के ध्यान साधना में सफलता नहीं मिलती|

माता-पिता को चाहिए कि अपने छोटे बच्चों के सामने ही उन्हें अपने पास बैठाकर ध्यान साधना और भगवान की भक्ति करें| इससे बालकों में भक्ति व ध्यान के प्रति रूचि जागृत होगी और नर्सरी की कविताएँ और वर्णमाला सीखने के पहिले ही वे ध्यान करना सीख जायेंगे| इससे उनमें अति मानवीय गुणों का विकास होगा और किशोरावस्था में वे कामुकता और क्रोध से मुक्त होंगे| ऐसे बालक अति कुशाग्र और प्रतिभाशाली होंगे|

ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||