Sunday, 5 January 2025

मेरा स्वभाव ---

निरंतर अभ्यास करते करते और परमात्मा व गुरुओं की असीम कृपा से अब निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही मेरा स्वभाव बन गया है| अब भगवान ह्रदय में आकर बैठ गए हैं जहां से वे कभी बाहर नहीं जायेंगे| और भी सरल लौकिक शब्दों में इस अति लघु ह्रदय को भगवान ने धन्य कर दिया है| अब तो स्वप्न भी भगवान के ही आते हैं| कामनाएँ और अपेक्षाएँ भी कम से कम होती होती समाप्त ही हो जाएँगी| यह स्वाभाविक अवस्था कभी न कभी तो सभी को प्राप्त होती है|
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सरिता प्रवाहित होती है, पर किसी के लिए नहीं| प्रवाहित होना उसका स्वभाव है| व्यक्ति .. स्वयं को व्यक्त करना चाहता है, यह उसका स्वभाव है| मुझे किसी से कुछ अपेक्षा नहीं है, किसी से कुछ नहीं चाहिए पर स्वयं को व्यक्त कर रहा हूँ, यह मेरा स्वभाव है|
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जो लोग सर्वस्व यानि समष्टि की उपेक्षा करते हुए स्वहित की ही सोचते हैं, प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करती | वे सब दंड के भागी होंगे| समस्त सृष्टि ही अपना परिवार है और समस्त ब्रह्माण्ड ही अपना घर| यह देह और यह पृथ्वी भी बहुत छोटी है अपने निवास के लिए| अपना प्रेम सर्वस्व में पूर्णता से व्यक्त हो|
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जो मेरी बात को समझते हैं मैं उनका भी आभारी हूँ और जिन्होंने नहीं समझा है उनका भी| आप सब मेरी निजात्माएँ हैं, आप सब के ह्रदय में कूट कूट कर परमात्मा के प्रति प्रेम भरा पड़ा है, अतः आप सब पूज्य हैं| आप सब मेरे प्राण हो| आप सब को मेरा अनंत असीम अहैतुकी परम प्यार| आप सब अपनी पूर्णता को उपलब्ध हों, यही मेरी शुभ कामना है|
आप सब मेरे नारायण हैं|
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ॐ तत् सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ जनवरी २०१७

राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ---

मेरी सारी चेतना स्वतः ही अब राममय हो गई है। मैं भगवान श्रीराम के साथ, और भगवान श्रीराम मेरे साथ एक हैं। अयोध्या में श्रीराममंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा -- एक मंदिर की नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत का पुनरोदय और भारत के प्राण की पुनः प्रतिष्ठा है।

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अब रावण का बध होगा। रावण कौन है? ---
सारी पश्चिमी अवधारणाएँ जैसे मार्क्सवाद, साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद, धर्मनिरपेक्षतावाद, अगड़ा-पिछड़ावाद, अल्पसंख्यकवाद, और चर्चवाद -- ये सब रावण हैं। इनके समर्थक -- कुंभकर्ण, मेघनाद, और सारे राक्षस हैं। ये सब विज्ञान (विशेष ज्ञान) की विवेकाग्नि में भस्म हो जायेंगे।
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ज्ञान के एक नये सूर्य का उदय हो रहा है, जिसके प्रकाश में असत्य का सारा अंधकार दूर होगा। अब प्रश्न उठता है कि हम क्या करें?
प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, उस अव्यक्त को निज जीवन में व्यक्त करें। यही भगवत्-प्राप्ति और उसकी साधना है। यही आपको करना है। यह एक पाठ है जो निरंतर पढ़ाया जा रहा है। कोई इसे शीघ्र सीख लेता है, कोई विलंब से। जो नहीं सीखता उसे सीखने के लिए प्रकृति बाध्य कर देती है।
भगवान की एक दिव्य चेतना मेरे चारों ओर छायी हुई है जो यह लिखने को मुझे बाध्य कर रही है।
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श्रीमते रामचंद्राय नमः !! श्रीरामचन्द्रचरणौशरणम् प्रपद्ये !! सर्वेश्वर श्रीरघुनाथो विजयतेतराम !! जयजय श्रीसीताराम !!
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जनवरी २०२४

एक प्रार्थना ---

हे माँ भगवती, महिषासुर मर्दिनी दुर्गा, भवानी, हे जगन्माता, अपनी परम कृपा और करुणा कर के भारतवर्ष और उसकी अस्मिता सत्य "सनातन धर्म" की रक्षा करो जिस पर पर इस समय मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं| अब समय आ गया है भारतवर्ष और सनातन धर्म की रक्षा करने का|
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जब सत्य सनातन धर्म ही नहीं बचेगा तो भारत राष्ट्र भी नहीं बचेगा| भारत ही नहीं बचेगा तो हम भी नहीं बचेंगे| हम अपने लिए अब कुछ भी नहीं माँग रहे हैं| तुम्हारा साक्षात्कार हम बाद में कर लेंगे, हमें कोई शीघ्रता नहीं है पर सर्वप्रथम भारत के भीतर और बाहर के शत्रुओं का नाश करो|
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अब समय आ गया है गीता में दिया वचन निभाने का| हे धनुर्धारी भगवान श्रीराम, हे सुदर्शन चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण, शस्त्रास्त्रधारी सभी देवी-देवताओ, सप्त चिरंजीवियो, सभी अवतारो, सभी महापुरुषों, अब उस देश भारतवर्ष की, उस संस्कृति की रक्षा करो जहाँ पर धर्म और ईश्वर की सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है व जहाँ कभी आप सब भी अवतरित हुए हैं| वह राष्ट्र गत दीर्घकाल से अधर्मी आतताइयों, दस्युओं, तस्करों, और ठगों से त्रस्त है|
इस राष्ट्र के नागरिकों में धर्म समाज और राष्ट्र की चेतना, साहस और पुरुषार्थ जागृत करो|
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अब हम तुम्हारे से तब तक और कुछ भी नहीं मांगेगे जब तक धर्म और राष्ट्र की रक्षा नहीं होती|
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हे देवि! तुम्हारी जय हो| तुम समस्त शरीरों को धारण करने वाली, स्वर्गलोक का दर्शन कराने वाली और दु:खहारिणी हो| हे रोगों का नाश करने वाली देवि, तुम्हारी जय हो| मोक्ष तो तुम्हारे हाथों में है| हे मनचाहा फल देने वाली, आठों सिद्धियों से संपन्न देवि तुम्हारी जय हो|
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जय भगवति देवि नमो वरदे, जय पापविनाशिनि बहुफलदे।
जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे, प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥1॥
जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे, जय पावकभूषितवक्त्रवरे।
जय भैरवदेहनिलीनपरे, जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥2॥
जय महिषविमर्दिनि शूलकरे, जय लोकसमस्तकपापहरे।
जय देवि पितामहविष्णुनते, जय भास्करशक्रशिरोऽवनते॥3॥
जय षण्मुखसायुधईशनुते, जय सागरगामिनि शम्भुनुते।
जय दुःखदरिद्रविनाशकरे, जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥4॥
जय देवि समस्तशरीरधरे, जय नाकविदर्शिनि दुःखहरे।
जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे, जय वांछितदायिनि सिद्धिवरे॥5॥
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भारतमाता की जय ! वन्दे मातरं ! हर हर महादेव ! ॐ ॐ ॐ ||
ॐ तत्सत् | तत् त्वं असी | सोsहं | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष कृ.११, वि.सं.२०७२, 5/1/2016

शरणागति और समर्पण ...

गुरुकृपा से आज इस विषय पर गहन चिंतन करने को मैं आतंरिक रूप से विवश हूँ .......
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जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के लिए जन्म रहित परब्रह्म परमात्मा से एकाकार होना ही होगा| इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है|
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परब्रह्म परमात्मा का जो साकार रुप मुझे अपनी अल्प और सीमित बुद्धि से समझ में आता है वह भगवान परमशिव का है, और निराकार रूप ॐकार का है| इन साकार और निराकार दोनों का आश्रय लेना ही होगा| बार बार निश्चय कर उनका निरंतर चिंतन और ध्यान करना होगा|
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गुरुकृपा से एक लघुमार्ग (Short cut) दिखाई दे रहा है| वह लघुमार्ग है .... गुरु की शरण मे रहो, यानि उन्हीं को कर्ता, भोक्ता और क्रिया बना लो| ऐसा संभव है अपने मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का गुरु में पूर्ण रूप से समर्पण द्वारा|
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पर अब तो गुरु भी कूटस्थ ब्रह्म हो गए हैं क्योंकि जो उनका प्रचलित चित्र है वह तो उनके शरीर का था, पर वे यह शरीर नहीं थे| वे तो परम चैतन्य थे, उनको मैं नाम-रूप में कैसे बाँध सकता हूँ? वे तो ज्योतिर्मय कूटस्थ ब्रह्म और प्रणव नाद रूप हैं, अतः मेरा समर्पण उन्हीं को है|
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ध्यान में जो कूटस्थ ज्योति निरंतर दिखाई देती है, और जो प्रणव नाद सुनाई देता है, वे ही मेरे इष्ट देव/देवी हैं, वे ही परमशिव हैं, वे ही विष्णु हैं, और वे ही मेरे सद्गुरु हैं|
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हे गुरुरूप परब्रह्म मैं आपकी शरण में हूँ, मेरा समर्पण स्वीकार करो| मैं आपके शरणागत हूँ|
मेरे सारे संचित और प्रारब्ध कर्म, उनके फल, और मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व आपको समर्पित है| मैं निरंतर आपका हूँ और आप मेरे हैं, मुझे अपनी शरण में ले लो|
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ॐ ॐ ॐ || शिव शिव शिव शिव शिव || ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
05 Jan.2016

हम यह क्षुद्र भौतिक शरीर नहीं, सर्वव्यापी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमब्रह्म परमात्मा हैं --- .

 कोई क्या सोचेगा, क्या कहेगा? इसका कोई महत्व नहीं है। महत्व इसी बात का है कि हम अपनी स्वयं की दृष्टि में क्या हैं? कोई क्या कहता या सोचता है? यह उसकी समस्या है। हमारी एकमात्र समस्या भगवान को पाना है, क्योंकि हमारा एकमात्र शाश्वत संबंध भगवान से है। हम भगवान के साथ एक हों, और उन्हीं को निरंतर व्यक्त करें।

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मन में कोई कामना/आकांक्षा न हो। कामनाएँ पतन का द्वार हैं। अभीप्सा हो परमात्मा को पाने की, यह आत्मा का स्वधर्म है। परमात्मा के भाव में उनके उपकरण बन कर निमित्त मात्र होकर, स्वयं परमात्मा के रूप में जीयें।
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हम यह क्षुद्र भौतिक शरीर नहीं, सर्वव्यापी आत्मा हैं। हम परिछिन्न नहीं हैं।
सदा यह भाव रखें कि मैं -- सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, व सर्वशक्तिमान हूँ। यह संसार मेरा ही संकल्प है। मैं -- सम्पूर्ण आनंद, सम्पूर्ण ज्ञान, सम्पूर्ण सत्य, संपूर्ण प्रकाश, ज्योतिषाम्ज्योति हूँ। मेरे ही प्रकाश से सारे सूर्य, सारे चंद्रमा, सारे नक्षत्र चमक रहे हैं। मैं शिव हूँ। मैं देवों का देव महादेव हूँ। मैं परमशिव परमात्मा हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
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सदा इस शिवभाव में रहें। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ जनवरी २०२३

मूँगे की चट्टानों (Coral Reefs) में तैराकी और Snorkeling :--- (भाग १)

National Geographic पत्रिका में मूँगे की चट्टानों के बारे में पढ़कर मेरा यह एक स्वप्न था कि जीवन में मुझे भी कभी मूँगे की चट्टानों में तैरने और Snorkeling का अवसर मिले। यह अवसर मिला सन १९८० में जब मुझे सपरिवार श्रीलंका में त्रिंकोमाली जाने का अवसर मिला। वहाँ एक त्रिकोणी पहाड़ी पर विशाल शिवालय है, इसलिए इस बन्दरगाह का नाम थिरुकोणमल्ले यानि त्रिंकोंमाली है। वहाँ दो टापू है जहां खूब मूँगे की चट्टानें हैं। मैंने चालक दल के साथ एक नौका किराये पर ली और एक जीवन-रक्षक गोताखोर को भाड़े पर साथ में लिया और गंतव्य स्थान पर पहुँच गया। पत्नी को तो नाव में ही बैठाये रखा, और स्वयं अपने साथी गोताखोर के साथ पानी में उतर गया। वह गोताखोर बहुत कुशल और वफादार था। उसने गोताखोरी के अनेक करतब दिखाए और मुझे स्नोर्केलिंग सिखलाई। वहाँ के प्रशासन ने तीन घंटों की ही अनुमति दी थी। इसलिए तीन घंटों में ही बापस लौटना पड़ा।

इस घटना से मन नहीं भरा। सन १९८७ में मूँगे की चट्टानों में गोताखोरी से मन स्थायी रूप से भरा लक्षद्वीप में। आगे का भाग लक्षद्वीप का ही है जो शीघ ही बताऊंगा।
==सावशेष ==