Friday 20 March 2020

जब माता ही नहीं होगी तब पुत्र कहाँ से उत्पन्न होंगे? भक्ति, ध्यान और देवासुरी भावजगत ----

जब माता ही नहीं होगी तब पुत्र कहाँ से उत्पन्न होंगे? भक्ति, ध्यान और देवासुरी भावजगत ----
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ध्यान-साधना तभी करनी चाहिए जब हृदय में भगवान के प्रति बिना किसी शर्त के भक्ति (Unconditional love for the Divine) जागृत हो जाये| बिना भक्ति के की गई कोई भी ध्यान-साधना, साधक को आसुरी/राक्षसी जगत से जोड़ सकती है, जो स्वयं के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी घातक हो सकती है| ऐसा व्यक्ति स्वयं या तो असुर/राक्षस हो जाता है या किसी आसुरी/राक्षसी मत से जुड़ जाता है| आसुरी/राक्षसी मतों का आरंभ ऐसे ही असुर/राक्षस व्यक्तियों ने किया होता है| ये असुर/राक्षस फिर उन सब की हत्या, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार, और देवालयों व संस्कृतियों को नष्ट करना आरंभ कर देते हैं जो उनके विचारों के अनुकूल नहीं होते|
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निज चेतना में जब तमोगुण अधिक होता है तब मनुष्य मूढ़ अवस्था में होता है| जब रजोगुण प्रधान होता है तब क्षिप्त या विक्षिप्त अवस्था होती है| सतोगुण प्रधान व्यक्ति एकाग्र या निरुद्ध अवस्था में होता है|
तमोगुण ..... आलस्य, सुस्ती, कार्य को आगे के लिए टालने की प्रवृति, मूर्खता ईर्ष्या-द्वेष, लोभ, अहंकार और अज्ञान को जन्म देता है| जब अच्छे-बुरे का विचार नहीं रहता है, हर समय प्रबल लोभ, क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष, स्वार्थ व कामुकता रूपी अज्ञान और अंधकार ह्रदय पर छाया रहता है, यह तमोगुणी तामसी मूढ़ अवस्था है|
रजोगुण ..... अंतःकरण को अशान्त और चंचल बनाता है| रजोगुणी व्यक्ति का अहंकार भी प्रबल होता है| रजोगुण जब प्रबल होता है तब मन में अनेक तरंगें, वासनायें और महत्वाकांक्षाएँ उठती हैं| ये आकांक्षाएँ यदि पूर्ण नहीं होती तब वह परेशान और दुःखी हो जाता है| यह क्षिप्तावस्था है| इच्छाओं के पूरी होने पर जो प्रसन्नता तनिक समय के लिये मिलती है व जो क्षणिक आनंद प्राप्त होता है वह विक्षिप्त अवस्था है| रजोगुण में भक्ति तो होती है पर वह सकाम भक्ति होती है, निष्काम नहीं|
सतोगुण ..... शान्ति, दिव्य प्रेम, आनन्द और ज्ञान प्रदान करता है| प्रसन्नता और शांति .... एकाग्रता का लक्षण है| तन्मयता निरुद्धता का लक्षण है| भगवान के प्रति अहेतुकी निष्काम (Unconditional) भक्ति सतोगुण से ही संभव है|
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जिन में तमोगुण प्रधान है उन्हें रजोगुण का, जिनमें रजोगुण प्रधान है उन्हें सतोगुण का, और जिन में सतोगुण प्रधान है उन्हें गुणातीत अवस्था में जाने का प्रयास करना चाहिए| यह भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है| गीता में विस्तार से इसका वर्णन है|
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इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य सिर्फ यही बताना है कि जिन में भगवान के प्रति प्रबल भक्ति नहीं होती, उन्हें प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा व ध्यान-साधना आदि नहीं करने चाहिये| भक्ति माता है और ज्ञान व वैराग्य उसके पुत्र| जब माता ही नहीं होगी तब पुत्र कहाँ से उत्पन्न होंगे?
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२५ फरवरी २०२०

परमशिव एक अनुभूति है ....

हमारा शिव-संकल्प, अंतर्दृष्टि, प्राण-तत्व और गुरुकृपा ..... ये साधन हैं, जिनकी सहायता से परमशिव का ध्यान किया जाता है| परमशिव एक अनुभूति है जो परमात्मा की परमकृपा से उनके द्वारा भेजे हुए सद्गुरु के मार्गदर्शन से होती है| गुरु का भौतिक देहधारी होना आवश्यक नहीं है| सूक्ष्म जगत की महान आत्मायें भी गुरु रूप में मार्ग-दर्शन कर सकती हैं|
प्राण का घनीभूत रूप कुंडलिनी महाशक्ति है| कुंडलिनी महाशक्ति और परमशिव का मिलन 'योग' है|
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जब हृदय में भगवान से परमप्रेम (भक्ति) और उन्हें पाने की अभीप्सा जागृत होती है, तब सद्गुरु लाभ होता है| भगवान श्रीकृष्ण स्वयं परात्पर गुरु रूप में निष्ठावान साधकों का मार्गदर्शन और रक्षा कर रहे हैं| भगवद्गीता के रहस्य उन्हीं की कृपा से समझ में आ सकते हैं, अन्यथा नहीं| वे हमारे अंतर में सर्वदा बिराजमान हैं| उनका आभास उनकी परमकृपा से ही होता है| हमारे हिमालय जैसे बड़े बड़े पाप भी उनके विराट कृपासिंधु में छोटे-मोटे महत्वहीन कंकर-पत्थर से अधिक नहीं हैं| सब कर्मफलों से मुक्ति और आगे की गतियाँ उनकी कृपा से होती हैं| वे ही परमब्रह्म हैं, वे ही जगन्माता हैं|
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ब्रह्मरंध्र से परे अनंत महाकाश है| उस से भी बहुत परे श्वेत क्षीरसागर है जहाँ भगवान नारायण, परमशिव के रूप में बिराजमान हैं| उनके दर्शन एक विराट पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के रूप में होते हैं| वे पंचमुखी महादेव हैं| उनके संकल्प से ही यह सारी सृष्टि निर्मित हुई और चलायमान है| गीता में उस लोक के बारे में कहा गया है ....
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||"
श्रुति भगवती कहती है .....
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः| तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति||"
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उन परमात्मा की परमकृपा मुझ अकिंचन पर और हम सब पर सदा बनी रहे|
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च| नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व| अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय! ॐ नमः शिवाय! ॐ नमः शिवाय! ॐ नमः शिवाय! ॐ ॐ ॐ!!
कृपा शंकर
२४ फरवरी २०२०

विद्वान कौन है?

विद्वान कौन है?
प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन्विद्वान्भवते नातिवादी |
आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ||मुण्डकोपनिषद, ३.१.४ ||
..... प्राण तत्व, जो सब भूतों/प्राणियों में प्रकाशित है, को जानने वाला ही विद्वान् है, न कि बहुत अधिक बात करने वाला| वह आत्मक्रीड़ारत और आत्मरति यानि आत्मा में ही रमण करने वाला क्रियावान ब्र्ह्मविदों में वरिष्ठ यानि श्रेष्ठ है|
(भक्तिसुत्रों में आत्मा में रमण करने वाले को आत्माराम कहा गया है ... "यज्ज्ञात्वा मत्तो-भवति, स्तब्धो भवति, आत्मारामो भवति")