(संशोधित व पुनर्प्रस्तुत). कूटस्थ चैतन्य .....
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गुरु की आज्ञा
से शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के
समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, और जीभ को ऊपर पीछे की ओर
मोड़ते हुए तालू से सटा कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में
सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का
ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करते करते कुछ महिनों की साधना के उपरांत
गुरुकृपा से विद् युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में
प्रकट होती है|
ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी
की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता|
लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म
का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है|
यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है|
(इसकी साधना श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध योगी महात्मा गुरु के सान्निध्य में ही करें).
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में
ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु
(शिखा स्थान) है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष,
खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर का भाग है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ आकर
मस्तिक से मिलती हैं| यहीं जीवात्मा का निवास है|
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कूटस्थ में
परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें| कूटस्थ में
समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी चेतना परम
प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के साथ एक हो
जाते हैं| परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य
अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| एक
भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र के सब
दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ इसकी
व्यवस्था भी कर ही देते हैं|
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भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||८:१०||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को
अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य
रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च,
मूधर्नायाधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्,
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्" ||८:१३||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के
फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग
धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता
हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर
जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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भगवान कहते हैं ....
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||
अर्थात् इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं| समस्त भूत क्षर हैं और कूटस्थ अक्षर कहलाता है||
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पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है कि जीवन भर तो मौज मस्ती
करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान
बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल
नहीं है| दिखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए
अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता
है|
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यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए
भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह
एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा|
उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान
का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में
भरे पड़े हैं|
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ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१८