Friday 13 July 2018

भवसागर को पार कैसे करें ? ....

भवसागर को पार कैसे करें ? ....
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यह भवसागर एक ऐसा सागर है जिसमें मृगतृष्णा रूपी जल भरा पडा है| हमारी असंख्य कामनाएँ और वासनाएँ ही इस भवसागर का निर्माण करती हैं| कामनाओं ओर वासनाओं से मुक्त होना ही भवसागर को पार करना है| और भी स्पष्ट शब्दों में संसार की निःसारता को समझ कर, विषय-वासनाओं को त्याग कर परमात्मा के प्रेम में मग्न हो जाना ही .... भवसागर को पार करना है|
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अनेक साधन हैं, पर मुझ अल्पज्ञ को तो परमशिव के आत्मस्वरूप से ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं आता-जाता| साधनों का ज्ञान और सिद्धि, परमात्मा की कृपा से ही मिलती है| जो कभी उत्पन्न ही नहीं हुआ है, जिसका कभी जन्म ही नहीं हुआ है, पर जो शाश्वत ओर परम कल्याणकारी है ..... वह मेरा आराध्य इष्टदेव परमशिव है| उस परमशिव से प्रेम और उस का ध्यान ही मेरा स्वधर्म है| उस परमशिव में स्थिति ही मेरे लिए भवसागर को पार करना है|
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संसार सागर को इस उदाहरण से समझ सकते हैं .... हम खाते क्यों हैं? ....कमाने के लिए, और कमाते क्यों हैं? .... खाने के लिए| यह चक्र कभी समाप्त नहीं होता| यही भवसागर का एक छोटा सा रूप है| इस संसार से सुख की आशा ही वह ईंधन है जो हमें इस भवसागर में फँसाए रखता है|
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श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में संत तुलसीदास जी ने भवसागर को पार करने की जो विधि भगवान श्रीराम के मुख से कहलवाई है, वह समझने में सबसे सरल है .....
चौपाई :--
"एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।।
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।।
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।"
दोहा/सोरठा :--
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||"

इसका सार यह कि यह मनुष्य शरीर इस भवसागर को पार करने के लिए भगवान द्वारा दी हुई एक नौका है| अनुकूल वायु ....भगवान का अनुग्रह है| इस नौका के कर्णधार सदगुरु हैं| जो इस नौका को पाकर भी भवसागर को न तरे, उस से बड़ा अभागा अन्य कोई नहीं है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जुलाई २०१८
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पुनश्चः :--- यह संसार एक मृगतृष्णा है| अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही इसे पार करना है|

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