Thursday, 13 July 2017

मैं अहर्निश किस का चिंतन करूँ ? .....

मैं अहर्निश किस का चिंतन करूँ ? .....
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भगवान आचार्य शंकर स्वयं से यह प्रश्न पूछते हैं ...... अहर्निशं किं परिचिन्तनीयम् ?
फिर स्वयं ही इसका उत्तर भी दे देते हैं ..... संसार मिथ्यात्वशिवात्मतत्त्वम् |
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यह संसार एक मृगतृष्णा है| इसे पार करने के लिए न तो किसी नौका की आवश्यकता है और न ही तैरने की| अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही इसे पार करना है|
पर आत्मस्वरूप में स्थित कैसे हों ? इसका उत्तर भी यही होगा कि संसार की अनित्यता का बार बार चिंतन कर के परमात्मा परमशिव का आत्मस्वरूप से अनुसंधान करें|
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यह देह एक साधन मात्र है| इसको व्यस्त रखो और उतना ही खाने को दो जितना इसके लिए आवश्यक है, अन्यथा यह एक धोखेबाज मित्र है जो कभी भी धोखा दे सकता है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कूटस्थ चैतन्य ..... (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत लेख)..


..................................... (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत लेख) ......................
कूटस्थ चैतन्य .....
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, और जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करते रहें| कुछ महिनों की साधना के पश्चात् विद् युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है|
(इसकी साधना श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ महात्मा के सान्निध्य में ही करें).
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु (शिखा स्थान) है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर का भाग है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ आकर मस्तिक से मिलती हैं| यहीं जीवात्मा का निवास है|
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कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें| कूटस्थ में समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी चेतना परम प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं| परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं|
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भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च,
मूधर्नायाधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् |
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्,
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्" ||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है कि जीवन भर तो मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|
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यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
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ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||

कूटस्थ चैतन्य .....

कूटस्थ चैतन्य .....
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) पूर्व में (२८ जून को) बताई विधि से प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें| विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धी में से है|
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर है| यही जीवात्मा का निवास है|
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इसकी साधना ब्रह्मनिष्ठ महात्मा के सान्निध्य में ही करें|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||


१३ जुलाई २०१५

कर्म और कर्म फल .......

कर्म और कर्म फल .......
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कितने भी संचित कर्मों का अवशेष हो इसकी चिंता न कर सर्वप्रथम प्रभु को उपलब्ध हों, यानि ईश्वर को प्राप्त करने के निमित्त बनें अपनी पूर्ण शक्ति से| कर्मों की चिंता जगन्माता को करने दो| सृष्टि को जगन्माता अपने हिसाब से चला रही है| वे अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम हैं, उन्हें हमारी सलाह की आवश्यकता नहीं है|
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कर्मों के बंधन तभी तक हैं जब तक अहंकार और मोह है| इनके नष्ट होने पर हम अच्छे-बुरे सभी कर्मों से मुक्त हैं|
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छोटी मोटी प्रार्थनाओं से कुछ नहीं होने वाला, गहन ध्यान में उतरो|
अहैतुकी परम प्रेम और पूर्ण समर्पण ................ इससे कम कुछ भी नहीं |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||


जुलाई १३, २०१५

ध्यान साधना में आत्म निरीक्षण .......

ध्यान साधना में आत्म निरीक्षण .......
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साधना के हर क़दम पर साधक को पता होना चाहिए कि वह कितने पानी में है| स्वयं को धोखा नहीं देना चाहिए| ध्यान की हम कितनी गहराई में हैं, इसका निश्चित मापदंड है| उस मापदंड की कसौटी पर हम स्वयं को कस कर देख सकते हैं कि हम प्रगति कर रहे हैं या अवनति|
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ध्यान में ज्योति का दिखाई देना और नाद का सुनाई देना तो अति सामान्य बात है, कोई बड़ी प्रगति की निशानी नहीं| असली कसौटी है ..... "निरंतर अलौकिक आनंद और प्रफुल्लता की अनुभूति"| यदि जीवन में उदासी है, आनंद और प्रफुल्लता नहीं है, तो यह निश्चित है कि हम उन्नति नहीं कर रहे हैं, बल्कि हमारी अवनति ही हो रही है|
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कौन परमात्मा के आनंद में है और कौन नहीं इसका भी स्पष्ट लक्षण है इससे हम स्वयं को या किसी को भी जाँच सकते हैं| जो व्यक्ति जीवन में आनंदित और प्रसन्न है, उसके ये लक्षण हैं ....

(१) उसके भोजन की मात्रा संयमित हो जाती है| थोड़े से अल्प सात्विक भोजन से ही उसे तृप्ति हो जाती है| स्वाद में उसकी रूचि नहीं रहती| उसकी देह को अधिक भोजन की आवश्यकता भी नहीं पड़ती| वह उतना ही खाता है जितना देश के पालन-पोषण के लिए आवश्यक है, उससे अधिक नहीं|
(२) उसकी वाचालता लगभग समाप्त हो जाती है| वह फालतू बातचीत नहीं करता| गपशप में उसकी कोई रूचि नहीं रहती| परमात्मा की स्मृति उसे निरंतर बनी रहती है| फालतू की बातचीत से परमात्मा की स्मृति समाप्त हो जाती है|
(३) उसमें दूसरों के प्रति दुर्भावना और वैमनस्यता समाप्त हो जाता है| सभी के प्रति सद्भावना उसमें जागृत हो जाती है| उसकी सजगता, संवेदनशीलता और करुणा बढ़ जाती है| दूसरों को सुखी देखकर उसे प्रसन्नता होती है| दूसरों के दुःख से उसे पीड़ा होती है| उसे किसी से द्वेष नहीं होता|
(४) उसके श्वास-प्रश्वास की मात्रा कम हो जाती है और उसे विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं| बार बार उसे यह लगता है कि वह यह शरीर नहीं है बल्कि समष्टि के साथ एक है|
(५) सगे-सम्बन्धियों, घर-परिवार, धन-संपत्ति और मान-बडाई में उसका मोह लगभग समाप्त होता है| मोह का समाप्त होना बहुत बड़ी उपलब्धि है|
(६) उसकी इच्छाएँ और कामनाएँ लगभग समाप्त हो जाती हैं| वह जीवन में सदा संतुष्ट रहता है| जीवन में संतोष धन का होना बहुत बड़ी उपलब्धि है| उसकी कोई पृथक इच्छा नहीं रहती, परमात्मा की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| इससे उसके जीवन में कोई दुःख नहीं रहता, और वह सदा सुखी रहता है|
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है .... "यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||" इस विषय में किसी को कोई भी संदेह है तो उसे गीता के छठे अध्याय का अर्थ सहित पाठ और मनन करना चाहिए| भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय पर बहुत अधिक प्रकाश डाला है| भगवान् श्रीकृष्ण सभी गुरुओं के गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गीता के अध्ययन से सारे संदेह दूर हो जाते हैं|
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उपरोक्त आत्म-निरीक्षण से यानि उपरोक्त कसौटियों पर कसकर हम स्वयं में या किसी अन्य में भी जाँच सकते हैं कि कितनी आध्यात्मिक उन्नति हुई है|
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आप सब को सादर प्रणाम ! परमात्मा की आप सब साक्षात् साकार अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब मेरे भी प्राण हैं| आप सब की जय हो|
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१७