Tuesday 25 October 2022

विजयदशमी का उद्देश्य :---

 (प्रश्न) :-- दशहरे पर रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतले जलाने से क्या होता है? इससे क्या रावण मर जाता है? इससे क्या अधर्म नष्ट हो जाता है? बच्चों के मनोरंजन से अधिक इसका क्या उपयोग है? क्या यह एक तमाशा मात्र नहीं है? क्या इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण है?

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(उत्तर) :-- जी हाँ, रावण-दहन एक तमाशा मात्र है। इसका कोई भी शास्त्रीय विधि-विधान या प्रमाण नहीं है। मैं इसका विरोध करता हूँ। यह परंपरा अंग्रेजों ने उत्तर भारतीय व दक्षिण भारतियों में फूट डालने के लिए आरंभ करवाई थी। पुतला-दहन -- भारत की परंपरा ही नहीं है। यह भारत पर थोपी हुई परंपरा है। दिल्ली में राजनेता इसे वोट प्राप्ति की राजनीति के लिए प्रोत्साहित करते हैं। सनातन-हिन्दू-धर्म को नष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने और भी अनेक कार्य किए थे, जिनके ऊपर अनेक मनीषियों ने खूब लिखा है।
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विजयदशमी का उद्देश्य :---
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विजयदशमी भारत में क्षत्रियों का एक पर्व है जिसमें वे अपने अस्त्र-शस्त्रों की पूजा करते हैं। इस दिन नीलकंठ का दर्शन होना शुभ माना जाता है। कई संप्रदायों के साधु-संत चातुर्मास के पश्चात इसी दिन सीमा-उल्लंघन करते हैं। इस दिन हमें अपने अस्त्र-शस्त्रों का पूजन, व भगवान श्रीराम की आराधना करनी चाहिए।
यह भी कहीं पढ़ा है कि इसमें अपराजिता की पूजा होती है। अपराजिता बेल की तरह की एक वनस्पति (Clitoria ternatea) भी होती है, और "अपराजिता" भगवान श्रीराम की आराधना का एक मंत्र भी होता है, जिसका पाठ युद्ध भूमि में प्रस्थान से पूर्व क्षत्रियों द्वारा किया जाता था। अपराजिता का मंत्र "हनुमत्कवच" में आता है। हनुमत्कवच इसी दिन सिद्ध होता होगा। विद्वान मनीषी इस पर प्रकाश डालें।
वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर विजयदशमी के दिन ही भगवान श्रीराम ने दस अश्वमेध यज्ञ किए थे। इस बारे में भी विद्वानों से अनुरोध है कि कुछ और प्रकाश डालें।
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सभी को विजयदशमी की मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !!
ॐ तत्सत् !! जय जय श्रीसीताराम !!
कृपा शंकर
४ अक्तूबर २०२२

श्रीकृष्ण समर्पण ---

 श्रीकृष्ण समर्पण ---

आज प्रातःकाल उठते ही स्वतः यह भाव मन में आया कि मैं मेरे इस जीवन में हुये अच्छे-बुरे सभी घटनाक्रमों को श्रीकृष्ण समर्पित करता हूँ। किसी ने मेरे साथ अच्छा या बुरा जैसा भी व्यवहार किया वह सब उन्होंने मेरे साथ नहीं, श्रीकृष्ण के साथ किया है। मेरे अपने भी अच्छे-बुरे सारे कर्म और उनके फल श्रीकृष्ण को समर्पित हैं। मेरा एकमात्र व्यवहार श्रीकृष्ण से है।
जो भी साधना मेरे माध्यम से होती है उसके कर्ता श्रीकृष्ण है। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। वे मेरे सामने हर समय शांभवी महामुद्रा में बिराजमान रहते हुए अपने परमशिव रूप का ध्यान कर रहे हैं। और कुछ भी नहीं चाहिए। यह जीवन उनके साथ इसी भाव में व्यतीत हो जायेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ अक्तूबर २०२२
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श्रीकृष्ण समर्पण ---
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(१) मुझ पर अनेक लोगों के उपकार हैं, मैं कभी भी उनको कृतज्ञता व्यक्त नहीं कर पाया।
(२) अनेक लोगों ने मुझ पर उपकार किया, लेकिन प्रत्युत्तर में मैंने उनके साथ अपकार ही किया। मैं सदा कृतघ्न ही रहा।
(३) अपनी नासमझी, बुद्धिहीनता, कुटिलता और भूलवश अनेक पापकर्म और हिमालय से भी बड़ी-बड़ी भूलें मुझसे हुईं।
(४) पता नहीं कोई पुण्यकर्म कभी किसी जीवन में किया भी या नहीं।
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पृथकता का बोध ही सबसे बड़ा पाप था, जिससे अन्य सब पाप हुए। अपने पाप-पुण्य, सारे संचित व प्रारब्ध कर्म, और स्वयं का सम्पूर्ण अस्तित्व -- सब कुछ श्रीकृष्ण समर्पण !!
मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। सब कुछ भगवान वासुदेव ही हैं। उनसे अन्य कुछ भी नहीं है। वे अनन्य और अनंत हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०२२

गहराई मे यदि उतरें तो हमारे में और परमात्मा में कोई दूरी नहीं है ---

 गहराई मे यदि उतरें तो हमारे में और परमात्मा में कोई दूरी नहीं है ---

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भगवान के और हमारे मध्य में कोई दूरी नहीं है। लेकिन एक रहस्य है, उसे समझना पड़ेगा। जब तक आप स्वयं को यह देह मानते हो, आप को कभी भी परमात्मा का बोध नहीं हो सकता। इस देह की चेतना से ऊपर उठना पड़ेगा।
हम यह देह नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। जब आप आत्म तत्व को जान लोगे, उस समय परमात्मा की और आपके मध्य की सारी दूरियाँ मिट जायेंगी।
देह का धर्म और आत्मा का धर्म अलग अलग होता है। हम शाश्वत आत्मा हैं। धीरे धीरे हम परमात्मा की, परमब्रह्म की उपासना करेंगे। एक दिन आप परमात्मा को अपने समक्ष पाओगे, और नृत्य कर उठोगे।
नारायण ! नारायण ! यह सारी सृष्टि आपके साथ नृत्य करेगी। आपको परम तृप्ति और संतुष्टि मिलेगी। समय लगता है। शीघ्र ही फिर मिलेंगे। अगली बार परमात्मा के साथ नृत्य करेंगे। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ अक्टूबर २०२२

संसार की पकड़ से कैसे बचें? ---

 संसार की पकड़ से कैसे बचें? ---

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दिन में तो संसार पकड़ लेता है। भगवान की आराधना ही करनी है तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना ही पड़ेगा, क्योंकि ब्रहमुहूर्त में उठते ही भगवान हमें पकड़ लेते हैं। भगवान हमें पकड़ें इस से अधिक शुभ, मंगलमय व कल्याणकारी बात और क्या हो सकती है? भगवान हमसे क्या मांगते हैं? --
भगवान हमसे इतना ही मांगते हैं -- "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।"
और उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए।
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उनके पास सब कुछ है, बस हमारा प्रेम नहीं है। हमारे प्रेम के ही वे भूखे हैं। अपना समस्त प्रेम उन्हें दे दो। फिर वे स्वयं को ही आप को दे देंगे। भगवान कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् -- "(तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥९:३४॥"
"तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥९:३५॥"
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प्रातः साढ़े तीन बजे का अलार्म लगा लो। उठकर उष:पान करो, और सब शंकाओं से निवृत हो, हाथ मुँह धोकर अपने आसन पर दो घंटे के लिए बैठ जाओ, उठो ही मत। अपना हाथ भगवान के हाथ में पकड़ा दो। जो करना है वे ही करेंगे।
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जिसमें जैसी बुद्धि और समझ होती है वह वैसी ही बात करता है। मेरा तो हृदय, बुद्धि, चित्त और मन आदि सब कुछ भगवान ने चुरा लिए हैं। अतः भगवान के सिवाय मुझे अन्य कुछ भी नहीं मालूम। मेरे पास कुछ भी नहीं छोड़ा है, सब कुछ उन्होंने छीन लिया है। शिकायत भी किस से करें? सब ओर तो वे ही वे हैं। उनके सिवाय कुछ भी अन्य नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ अक्तूबर २०२२

मेरी भावनाएँ ---

 मेरी भावनाएँ ---

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मेरा स्वधर्म है परमात्मा से परमप्रेम और उन्हें पाने की अभीप्सा। अन्य सब धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य और कर्तव्य-अकर्तव्य सबसे मैं अब परे हूँ। ये पंक्तियाँ मैं स्वयं की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए ही लिख रहा हूँ। मैंने जीवन में अनेक तपस्वी व विद्वान विरक्त संत-महात्माओं और मनीषियों का खूब सत्संग किया है। सभी से बहुत कुछ सीखा है। अनेक आध्यात्मिक अनुभूतियाँ भी प्राप्त की हैं। जीवन में स्वाध्याय भी अपनी बौद्धिक क्षमता की सीमा तक खूब किया है। पूरी तरह संतुष्ट हूँ।
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मेरी अपनी स्वयं की बहुत ही अधिक निजी समस्याएँ हैं, लेकिन मैं अपने धर्म पर दृढ़ व अडिग हूँ। अनेक बहुत अधिक महत्वपूर्ण बातें है जो गुरुकृपा से अब इस आयु में समझ में आ रही हैं। किसी को समझाना चाहूँ तो भी नहीं समझा सकता। लेकिन ज्ञान के प्रवाह को कोई नहीं रोक सकता। असत्य का अंधकार स्थायी नहीं है। जीवन एक सतत प्रवाह और प्रक्रिया है। मेरा भी एक संकल्प है जो निश्चित रूप से फलीभूत होगा। इस सृष्टि के सारे शरीर मेरे ही हैं। मैं ही सभी में व्यक्त हो रहा हूँ। भगवान शिव के सिर से जो गंगा जी प्रवाहित हो रही है, वह ज्ञान की ही गंगा है, जिसे कोई भी अवरुद्ध नहीं कर सकता। यह शरीर रहे या न रहे, मैं अजर अमर और शाश्वत हूँ। मैं स्वयं को सदा व्यक्त करता रहूँगा।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ अक्तूबर २०२२

"निज जीवन में ईश्वर की अभिव्यक्ति" ही "सनातन धर्म" है ---

"निज जीवन में ईश्वर की अभिव्यक्ति" ही "सनातन धर्म" है ---
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सनातन-धर्म ही भारत है, और भारत ही सनातन-धर्म है। सनातन-धर्म नित्य नवीन, नित्य सचेतन, और शाश्वत है। सनातन धर्म ही भारत की अस्मिता और पहिचान है। बिना सनातन धर्म के भारत, भारत नहीं है। भारत आज भी यदि जीवित है तो उन महापुरुषों के कारण है जिन्होंने निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त किया।
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भारत में एक से एक बड़े बड़े चक्रवर्ती सम्राट हुए, महाराजा पृथु जैसे राजा हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर राज्य किया और जिनके कारण यह ग्रह "पृथ्वी" कहलाता है। भारत में इतना अन्न होता था कि सम्पूर्ण पृथ्वी के लोगों का भरण पोषण हो सकता था। एक छोटा मोटा गाँव भी हज़ारों लोगो को भोजन करा सकता था। लोग सोने कि थालियों में भोजन कर के थालियों को फेंक दिया करते थे। राजा लोग हज़ारों गायों के सींगों में सोना मंढा कर ब्राह्मणों को दान में दे दिया करते थे।
लेकिन हम ने कभी भी उन चक्रवर्ती राजाओं और सेठ-साहूकारों को आदर्श नहीं माना। हम आदर्श मानते हैं -- भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण को; क्योंकि उनके जीवन में परमात्मा अवतरित थे।
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इस पृथ्वी पर चंगेज़, तैमूर, माओ, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, अँगरेज़ शासकों, व मुग़ल शासकों जैसे क्रूर अत्याचारी और कुबलई जैसे बड़े बड़े सम्राट हुए। पर वे मानवता को क्या दे पाए? अनेकों बड़े बड़े अधर्म फैले और फैले हुए हैं, वे क्या भला कर पाए हैं? कुछ भी नहीं!
पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके ह्रदय में परमात्मा है।
ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
८ अक्तूबर २०२२

निरंतर ध्यान ---

 निरंतर ध्यान ---

मेरी चेतना इस समय सर्वव्यापी परमात्मा के साथ एक है। मैं यह भौतिक शरीर नहीं, सारी सृष्टि, और सारा ब्रह्मांड हूँ। पूरी सृष्टि के सारे प्राणी, सारा जड़ और चेतन, मेरे साथ एक हैं। सभी मेरे साथ-साथ परमात्मा का ध्यान कर रहे हैं। मैं यह नश्वर शरीर नहीं, परमब्रह्म परमात्मा के साथ एक हूँ। जिस देह रूपी इस वाहन पर मैं यह लोकयात्रा कर रहा हूँ, वह रहे या न रहे, इसका कोई महत्व नहीं है। मेरी चेतना शाश्वत है, परमात्मा के साथ एक है और सदा एक ही रहेगी।
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सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म, कूटस्थ, और सविता देव की भर्गः ज्योति -- एक ही हैं। गुरु की आज्ञा से हम भ्रूमध्य में ध्यान करते हैं। भ्रूमध्य के ठीक पीछे यानि खोपड़ी के पीछे का भाग जहाँ मेरुदंड की नसें मस्तिष्क से मिलती हैं (Medulla oblongata), वहाँ हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञा चक्र है। कई जन्मों के पुण्यों का जब उदय होता है, तब भ्रूमध्य में ध्यान करते-करते, समय आने पर गुरुकृपा से पात्रतानुसार ब्रह्मज्योति के दर्शन और नाद का श्रवण होता है।
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मेरुदंड सदैव उन्नत रहे। बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर, (खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में) अजपा-जप (हंसः योग) करते हुए, साथ साथ प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए (लय योग) उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें। विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी। ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। एक लघुत्तम जीवाणु से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, लेकिन इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ ब्रह्म है, यही सविता देव की भर्गःज्योति है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ-चैतन्य व ब्राह्मी-स्थिति है। इस की चेतना में साधक स्थितप्रज्ञ हो जाता है, और चैतन्य में असत्य का सारा अंधकार दूर हो जाता है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अक्तूबर २०२२

सिर्फ परमात्मा ही हमारा स्थायी और शाश्वत मित्र है ---

 सिर्फ परमात्मा ही हमारा स्थायी और शाश्वत मित्र है ---

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हमारे अपने विचार ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल हमें भुगतना ही पड़ता है। हमारे अपने विचार ही हमारी प्रगति या पतन के कारण हैं। अतः अपने विचारों के प्रति हम सजग रहें। हर विचार के पीछे एक गहन ऊर्जा है जो निश्चित रूप से फलीभूत होती है। जैसा हम सोचते हैं वैसे ही हो जाते हैं। परमात्मा का चिंतन भी एक उपासना है। उपास्य के गुण उपासक में आये बिना नहीं रहते। जीवन में प्रगति न करने की इच्छा, प्रमाद यानि आलस्य, और दीर्घसूत्रता यानि अपने कार्यों को कल पर टालते रहना -- ये माया के बहुत बड़े अस्त्र हैं।
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न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः।
व्यवहारेण जायन्ति मित्राणि रिपवस्तथा॥
इस संसार में कोई भी न तो किसी का स्थायी मित्र होता है और न शत्रु। सब अपना अपना हित देखते हैं। भावुकता में उठाये गए सारे कदम अंततः धोखा देते हैं| कभी भी यह नहीं मानना चाहिए कि कोई हमारा स्थायी मित्र या शत्रु है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
९ अक्तूबर २०२२

शरद पूर्णिमा पर सभी श्रद्धालुओं का अभिनंदन ---

 शरद पूर्णिमा पर सभी श्रद्धालुओं का अभिनंदन ---

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आज रात्री में सारा जगत श्रीकृष्णमय होगा। भगवान श्रीकृष्ण आज की रात्रि में सचमुच प्रकट होंगे। चारों ओर ईश्वरीय शांति होगी। आप सभी कॊ शरदपूर्णिमा की
बधाई
हॊ। उनकी कृपा आप पर सदा बनी रहे।
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आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इस रात्रि की चाँदनी रात सोलह कलाओं से परिपूर्ण होती है, चंद्रमा से निकलने वाली किरणें अमृत समान होती हैं। समुद्र मंथन के समय इसी दिन मां लक्ष्मी प्रकट हुई थीं। आज महालक्ष्मी जी का जन्मदिवस भी है। रात्रि को खीर बनाकर चाँदनी रात में रखते हैं और प्रातः प्रसाद के रूप में इसका सेवन करते हैं। आज के दिन ही मीराबाई जी की जयंती भी मनाई जाती है।
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आज की रात्रि में आठ या नौ वर्ष की आयु के बालक भगवान श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। नौ वर्ष की आयु में तो उन्हें पढ़ने के लिए गुरुकुल भेज दिया गया था। अपनी सारी लीलाएँ उन्होंने नौ वर्ष की आयु से पहले पहले की थीं। आठ-नौ वर्ष की आयु के बालक के मन में कोई विकार नहीं होता। वृंदावन की सभी गोपियाँ उनके साथ नृत्य करना चाहती थीं। श्रीकृष्ण ने शरद पूर्णिमा की रात यमुना तट के पास निधिवन में गोपियों को मिलने के लिए कहा। शरद पूर्णिमा की रात सभी गोपियां निधिवन पहुंच गईं। उस समय निधिवन में जितनी गोपियां थीं, श्रीकृष्ण ने उतने ही रूप धारण किए और सभी गोपियों के साथ रास रचाया यानि नृत्य किया।
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शरद पूर्णिमा की चाँदनी रात में ईश्वरीय शांति होगी। भगवान श्रीकृष्ण अपने सभी भक्तों के समक्ष स्वयं को व्यक्त करेंगे। उनकी बांसुरी की धुन में, उनके संगीत में अद्भुत जादू होगा। आप सब का पुनश्च
अभिनंदन
!! मैं तो उन्हीं के साथ रहूँगा॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
९ अक्तूबर २०२२

सनातन हिन्दू धर्म को भारत में शासकीय संरक्षण चाहिए ---

 सनातन हिन्दू धर्म को भारत में शासकीय संरक्षण चाहिए।

सबसे पहिले तो मंदिरों पर से सरकारी अधिकार समाप्त हो। मंदिरों का धन सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए है, न कि इमामों और मौलवियों के वेतन और विधर्मियों के संरक्षण व हज यात्रा के लिए।
संविधान की वे धाराएं समाप्त की जाएँ जो हिंदुओं को अपने धर्म की शिक्षा देने से रोकती है। समान शिक्षा-व्यवस्था हो।
हिंदुओं को अपने विद्यालयों में सनातन धर्म की शिक्षा देने व संस्कृत भाषा पढ़ाने की पूरी छूट हो।
धर्म के दस लक्षण व अन्य संस्कारों का ज्ञान विद्यालयों में दिया जाए।
सूर्य-नमस्कार, महामुद्रा, प्राणायाम व योगिक आसन, बंध और हठयोग की कुछ आवश्यक अन्य क्रियाओं व ध्यान-साधना आदि का ज्ञान विद्यार्थियों को दिया जाए।
उपनयन संस्कार करवा कर गायत्री संध्या आदि, व सविता देव की भर्ग:ज्योति का ध्यान आदि सिखाया जाये।
आधुनिकतम और श्रेष्ठतम शिक्षा की व्यवस्था हो और खेलकूद पर भी पूरा ध्यान दिया जाए।
विद्यार्थियों का पूरा भौतिक, प्राणिक, मानसिक, वैज्ञानिक व आध्यात्मिक विकास कैसे हो? इस की व्यवस्था हो।
संस्कृत भाषा में ही कुछ वैदिक सूक्त जैसे श्रीसूक्त आदि भी विद्यार्थियों को कंठस्थ याद करवाये जाएँ
एक बार तो इतना ही बहुत है विद्यार्थियों को सनातन धर्म की शिक्षा देने के लिए।
आगे समय समय पर समीक्षा हो।
१० अक्टूबर २०२२

जब तक शरीर में प्राण है तब तक मैं अपने धर्म पर दृढ़ रहूँ ---

 जब तक शरीर में प्राण है तब तक मैं अपने धर्म पर दृढ़ रहूँ। स्वधर्म से क्षणमात्र के लिए भी न डिगूँ।

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मन में प्रश्न आता है कि वे कौन हैं जिनके कारण मेरे प्राणों का अस्तित्व है। कभी भगवती महाकाली की अनुभूतियाँ होती हैं, कभी श्रीहनुमान जी का विग्रह सामने आता है, और कभी वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण सामने बैठे दिखाई देते हैं। लेकिन इनमें भी तो प्राण है। वह प्राण-तत्व क्या है जिनके कारण भगवान के ये सभी रूप जीवंत हैं?
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कभी कभी अनुभूतियाँ होती हैं कि परमात्मा के संकल्प से ही प्राण और ऊर्जा -- इन दो मूल तत्वों की उत्पत्ति हुई, व सारी सृष्टि का निर्माण भी इन्हीं से हुआ है। सारी सृष्टि -- ऊर्जा और प्राण का ही विभिन्न मात्राओं और आवृतियों पर स्पंदन, प्रवाह, और गति है।
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जो भी हो, हे परमात्मा, आपका रहस्य जानने की अब और इच्छा नहीं है। आपका रहस्य -- रहस्य ही रहे। आपकी पूर्ण अभिव्यक्ति मुझ अकिंचन में हो। आप ही मेरे अस्तित्व हैं। जो आप हैं, वही मैं हूँ, और जो मैं हूँ, वही आप हैं। न तो अब और कुछ जानने को है, और न कुछ पाने को है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ अक्टूबर २०२२

कुछ अनुत्तरित प्रश्न ?? --

 कुछ अनुत्तरित प्रश्न ?? --

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विश्व में जितने भी Secular देश हैं, वे सब अपने अपने Religion/मजहब को संरक्षण देते हैं। ब्रिटेन की सरकार स्वयं को सेकुलर कहती है लेकिन वह Church of England को पूरा संरक्षण देती है। बिना Church of England की अनुमति के वहाँ पत्ता भी नहीं हिलता।
अमेरिका के लगभग सारे राष्ट्रपति Evangelist Church से थे और हैं। वहाँ की सरकारें स्वयं को Secular कहती हैं, लेकिन Evangelism को पूरा संरक्षण देती हैं।
यूरोप के सारे देश अपने बहुमत के चर्चों को पूरा आधिकारिक संरक्षण देते हैं। रूस जैसा देश जो कुछ समय पूर्व तक नास्तिक था, इस समय Russian Orthodox Chuch को पूरा संरक्षण दे रहा है। वहाँ के राष्ट्रपति पुतिन जब सत्ता में आए तब उन्होंने Christianity और Russian Orthodox Church की रक्षा का सार्वजनिक रूप से संकल्प लिया था।
जितने भी इस्लामिक देश है, वहाँ का सारा काम "बिस्मिल्ला ओ रहमानो रहीम" बोलकर होता है। अप्रत्यक्ष रूप से वहाँ का शासन मुल्ला-मौलवियों द्वारा संचालित है। तुर्की स्वयं को सेकुलर कहता है, लेकिन अपने आप को इस्लाम का मुख्य संरक्षक मानता है।
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केवल भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ हिंदुओं का बहुमत है लेकिन सन १९४७ से ही Secularizm के नाम पर हिन्दुत्व को सुव्यवस्थित रूप से नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। पाँच हिन्दू युवाओं से पूछ लो कि हिन्दू धर्म क्या है? कोई भी नहीं बता पाएगा, क्योंकि उन्हें धर्म की शिक्षा ही नहीं मिली है। भारत का संविधान -- मान्यता प्राप्त विद्यालयों में हिन्दू धर्म को पढ़ाने की अनुमति नहीं देता। गुरुकुलों की शिक्षा को मान्यता प्राप्त नहीं है। लगभग सारे मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं, वहाँ का चढ़ावा जो हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार में खर्च होना चाहिए, वह विधर्मियों के कल्याण के लिए खर्च होता है।
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हिंदुओं में आत्म-हीनता का भाव भर दिया गया है। सब आपस में एक-दूसरे को नीचा ही दिखाते रहते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए, पर क्यों हो रहा है? इसका क्या समाधान है?
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दूसरा मेरा प्रश्न है कि जब भारत के संविधान ने "अल्पसंख्यक", "बहुसंख्यक", "धर्मनिरपेक्ष", "सेकुलर", "समाजवाद", आदि शब्दों को परिभाषित ही नहीं किया है, तब क्यों इनके नाम पर शासन चलाया जा रहा है?
इंग्लैंड का तो कोई लिखित संविधान ही नहीं है, लेकिन क्यों वे भारत पर यह संविधान थोप गए? वर्तमान संविधान उनके India Indendence Act का ही copy/paste है जिसे बाबा साहब का लिखा संविधान बताया जा रहा है। कोई भी संविधान स्थायी नहीं होता, पर इसे धर्मग्रंथ बताया जा रहा है।
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सनातन धर्म यदि समाप्त हो गया तो यह सभ्यता भी समाप्त हो जाएगी। चारों ओर आतताइयों का बोलबाला हो जाएगा। ये इब्राहिमी मजहब (Abrahmic Religions), और मार्क्सवाद भी सब आपस में लड़ झगड़ कर नष्ट हो जाएंगे। विश्व की कुल जनसंख्या बहुत कम हो जाएगी। नई सृष्टि का जो नवनिर्माण होगा वह नव जागृत सनातन धर्म ही करेगा।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
११ अक्टूबर २०२२
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पुनश्च:-- एक बात और बताता हूँ जिस पर कभी चर्चा नहीं होती। जब आर्मेनिया और अज़रबेजान में लड़ाई हो रही थी, तब रूस निरपेक्ष रहा। अज़रबेजान तो एक शिया मुस्लिम देश है, और आर्मेनिया ईसाई। लेकिन आर्मेनिया का अपना स्वयं का "The Armenian Apostolic Church" है, जिसकी रूस के "Russian Orthodox Church" से नहीं बनती।
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कस्मै देवाय हविषा विधेम? ---

 कस्मै देवाय हविषा विधेम? --- हम किन देवता को नमन करें? किन से प्रार्थना करें? किन के लिए यज्ञ करें व आहुतियाँ दें? वे कौन से देव हैं जो हमारी आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकें? हमें शांति प्रदान कर सकें? हमें ऊँचा उठाने में सहायता दे सके? ऐसे देव कौन है?

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जिन्होनें मुझ में ही नहीं, पूरी सृष्टि में स्वयं को व्यक्त कर रखा है। उन्हीं पारब्रह्म परमात्मा का ध्यान और उनको समर्पण -- मेरी दृष्टि में समष्टि के कल्याण के लिए किया गया सबसे बड़ा यज्ञ है। समष्टि के लिए सर्वश्रेष्ठ कार्य जो कोई कर सकता है वह है - परमात्मा से परम प्रेम और उन को समर्पण। अपने अहं यानि मानित्व की आहुति अपने प्रियतम प्रभु को दें। जब अहं समाप्त हो जाता है, तब केवल परमात्मा ही बचते हैं। यही समष्टि की सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा यज्ञ है।
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥" (गीता)
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माता पिता की सेवा और सम्मान प्रथम यज्ञ है। उसके बिना अन्य यज्ञ सफल नहीं होते। वे लोग भाग्यशाली हैं जिन्हें माता पिता की सेवा का अवसर मिलता है। माता-पिता का तिरस्कार करने वाले से उसके पितृगण प्रसन्न नहीं होते। उसके घर में कोई सुख शांति नहीं होती और उसके सारे यज्ञ कर्म विफल होते हैं।
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इस ग्रह पृथ्वी के देवता 'अग्नि' हैं। भूगर्भ में जो अग्नि है उसी के कारण पृथ्वी पर जीवन है। उस भूगर्भस्थ अग्नि के कारण ही हमें सब प्रकार के रत्न, धातुएँ और वनस्पति प्राप्त होती हैं। इसीलिए सृष्टि में इस पृथ्वी लोक पर जहाँ हमारा वर्तमान अस्तित्व है, वहाँ परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक "अग्नि" है। उस "अग्नि" में हम समष्टि के कल्याण के लिए कुछ विशिष्ट मन्त्रों के साथ आहुतियाँ देते हैं, वह भी यज्ञ का एक रूप है।
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एक विशिष्ट विधि द्वारा प्राण में अपान, और अपान में प्राण कि आहुतियाँ देते हैं, वह भी यज्ञ का एक रूप है। फिर प्रणव का मानसिक जप करते हुए ज्योतिर्मय नाद ब्रह्म में लय होकर अपने अस्तित्व का अर्पण करते हैं, वह भी यज्ञ है।
परोपकार के लिए हम जो भी कार्य करते हैं वह भी यज्ञ की श्रेणी में आता है| भगवान की भक्ति भी एक यज्ञ है। परमात्मा की चर्चा "ज्ञान यज्ञ" है। अपने ह्रदय में परमात्मा को पाने की प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित कर शिवभाव में स्थित होकर प्रणव की चेतना से युक्त होकर हर साँस में सोsहं-हंसः भाव से उस प्रचंड अग्नि में अपने अस्तित्व की आहुतियाँ देकर प्रभु की सर्वव्यापकता और अनंतता में विलीन हो जाना भी एक बहुत बड़ा यज्ञ है। अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का प्रभु में पूर्ण समर्पण कर उनके साथ एकाकार हो जाना ही यज्ञ कि परिणिति और सार्थकता है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ शिव शिव शिव !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अक्तूबर २०२२
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पुनश्च : -- (प्रश्न) :--- हम क्या उपासना करें?
किस देवता की आराधना करें?
कौन सा पंथ/सिद्धान्त/मत/रिलीजन/मज़हब सर्वश्रेष्ठ है?
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(उत्तर) :--- जिस उपासना से मन की चंचलता शांत हो, परमात्मा से प्रेम और समर्पण का भाव बढ़े, वही उपासना सार्थक है, अन्य सब निरर्थक हैं।
स्वभाविक रूप से भगवान का जो भी रूप हमें सब से अधिक प्रिय है, उसी की आराधना करें।
जो हमें इसी जीवन में भगवत्-प्राप्ति करा दे, वही पंथ/सिद्धांत/मत सर्वश्रेष्ठ है।
ध्यान या तो हम भगवान शिव का करते हैं, या भगवान विष्णु या उनके अवतारों का। अधिकांश योगी ज्योतिर्मय ब्रह्म के साथ साथ प्रणव का भी ध्यान करते हैं।
उपदेश हम किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों का ज्ञान हो) आचार्य से ही ग्रहण करें।
अंत में एक बात याद रखें कि बिना भक्ति (परमप्रेम) व सत्यनिष्ठा के कोई साधना सफल नहीं होती।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
३ अक्टूबर २०२२