सिर्फ परमात्मा ही हमारा स्थायी और शाश्वत मित्र है ---
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हमारे अपने विचार ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल हमें भुगतना ही पड़ता है। हमारे अपने विचार ही हमारी प्रगति या पतन के कारण हैं। अतः अपने विचारों के प्रति हम सजग रहें। हर विचार के पीछे एक गहन ऊर्जा है जो निश्चित रूप से फलीभूत होती है। जैसा हम सोचते हैं वैसे ही हो जाते हैं। परमात्मा का चिंतन भी एक उपासना है। उपास्य के गुण उपासक में आये बिना नहीं रहते। जीवन में प्रगति न करने की इच्छा, प्रमाद यानि आलस्य, और दीर्घसूत्रता यानि अपने कार्यों को कल पर टालते रहना -- ये माया के बहुत बड़े अस्त्र हैं।
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न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः।
व्यवहारेण जायन्ति मित्राणि रिपवस्तथा॥
इस संसार में कोई भी न तो किसी का स्थायी मित्र होता है और न शत्रु। सब अपना अपना हित देखते हैं। भावुकता में उठाये गए सारे कदम अंततः धोखा देते हैं| कभी भी यह नहीं मानना चाहिए कि कोई हमारा स्थायी मित्र या शत्रु है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
९ अक्तूबर २०२२
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