निरंतर ध्यान ---
मेरी चेतना इस समय सर्वव्यापी परमात्मा के साथ एक है। मैं यह भौतिक शरीर नहीं, सारी सृष्टि, और सारा ब्रह्मांड हूँ। पूरी सृष्टि के सारे प्राणी, सारा जड़ और चेतन, मेरे साथ एक हैं। सभी मेरे साथ-साथ परमात्मा का ध्यान कर रहे हैं। मैं यह नश्वर शरीर नहीं, परमब्रह्म परमात्मा के साथ एक हूँ। जिस देह रूपी इस वाहन पर मैं यह लोकयात्रा कर रहा हूँ, वह रहे या न रहे, इसका कोई महत्व नहीं है। मेरी चेतना शाश्वत है, परमात्मा के साथ एक है और सदा एक ही रहेगी।
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सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म, कूटस्थ, और सविता देव की भर्गः ज्योति -- एक ही हैं। गुरु की आज्ञा से हम भ्रूमध्य में ध्यान करते हैं। भ्रूमध्य के ठीक पीछे यानि खोपड़ी के पीछे का भाग जहाँ मेरुदंड की नसें मस्तिष्क से मिलती हैं (Medulla oblongata), वहाँ हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञा चक्र है। कई जन्मों के पुण्यों का जब उदय होता है, तब भ्रूमध्य में ध्यान करते-करते, समय आने पर गुरुकृपा से पात्रतानुसार ब्रह्मज्योति के दर्शन और नाद का श्रवण होता है।
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मेरुदंड सदैव उन्नत रहे। बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर, (खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में) अजपा-जप (हंसः योग) करते हुए, साथ साथ प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए (लय योग) उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें। विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी। ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। एक लघुत्तम जीवाणु से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, लेकिन इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ ब्रह्म है, यही सविता देव की भर्गःज्योति है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ-चैतन्य व ब्राह्मी-स्थिति है। इस की चेतना में साधक स्थितप्रज्ञ हो जाता है, और चैतन्य में असत्य का सारा अंधकार दूर हो जाता है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अक्तूबर २०२२
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