"अभ्यास" और "वैराग्य" का महत्त्व :---
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अभ्यास और वैराग्य की उपेक्षा न करें, अन्यथा यह जीवन यों ही व्यर्थ में बीत जाएगा| यह मैं अपने निज अनुभव से कह रहा हूँ| प्रमाद और दीर्घसूत्रता हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं जिनके आगे हम असहाय हो जाते हैं| महिषासुर हमारे अंतर में प्रमाद और दीर्घसूत्रता के रूप में अभी भी जीवित है, बाकी अन्य सारे शत्रु (राग-द्वेष रूपी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य) इसके पीछे पीछे चलते हैं| यह प्रमाद रूपी महिषासुर ही हमारी मृत्यु है| निरंतर प्रभु से प्रेम और उनके प्रेमरूप पर अनवरत ध्यान के अभ्यास और विषयों से वैराग्य द्वारा ही हम इन शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं|
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मैंने अपना सारा जीवन कामनाओं की पूर्ती के लिए उनके पीछे भाग भाग कर नष्ट किया है| इससे मुझे कुछ भी नहीं मिला| मैं नहीं चाहता कि और भी कोई अपना जीवन इस तरह नष्ट करे| हो सकता है कि यह मेरा प्रारब्ध ही था|
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भगवान गीता में कहते हैं .....
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"
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अभ्यास और वैराग्य की उपेक्षा न करें, अन्यथा यह जीवन यों ही व्यर्थ में बीत जाएगा| यह मैं अपने निज अनुभव से कह रहा हूँ| प्रमाद और दीर्घसूत्रता हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं जिनके आगे हम असहाय हो जाते हैं| महिषासुर हमारे अंतर में प्रमाद और दीर्घसूत्रता के रूप में अभी भी जीवित है, बाकी अन्य सारे शत्रु (राग-द्वेष रूपी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य) इसके पीछे पीछे चलते हैं| यह प्रमाद रूपी महिषासुर ही हमारी मृत्यु है| निरंतर प्रभु से प्रेम और उनके प्रेमरूप पर अनवरत ध्यान के अभ्यास और विषयों से वैराग्य द्वारा ही हम इन शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं|
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मैंने अपना सारा जीवन कामनाओं की पूर्ती के लिए उनके पीछे भाग भाग कर नष्ट किया है| इससे मुझे कुछ भी नहीं मिला| मैं नहीं चाहता कि और भी कोई अपना जीवन इस तरह नष्ट करे| हो सकता है कि यह मेरा प्रारब्ध ही था|
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भगवान गीता में कहते हैं .....
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"
अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है|
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यहाँ अभ्यास का अर्थ है .... अपनी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति| वैराग्य का अर्थ है दृष्ट व अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन और उन से विरक्ति|
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योगदर्शन में भी सूत्र है ..."अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः||१:१२||
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यहाँ अभ्यास का अर्थ है .... अपनी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति| वैराग्य का अर्थ है दृष्ट व अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन और उन से विरक्ति|
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योगदर्शन में भी सूत्र है ..."अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः||१:१२||
इसके व्यास भाष्य में कहा गया है ....
"चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च| या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा| संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा| तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः||"
अर्थात् .....
चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च (चित्तरूपी नदी दो दिशाओं में प्रवाहित होती है, कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है)|
कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति (कैवल्य की ओर ले जाने वाली विवेकयुक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है)|
संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति (संसार की ओर ले जानेवाली अविवेक से युक्त वह पाप के लिए बहती है (अवनति की ओर ले जाती है)।
सर्वार्थसिद्धये सर्वभूतानाम् आत्मनश्च सुखावहम् आचरणं कुर्यात् (सकल प्रयोजनों की सिद्धि के लिए समस्त प्राणियों के लिए तथा अपने लिए जो सुखदायक आचरण है, उसे करना चाहिए)|
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हमारा चित्त "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी की तरह है| हमें किस और बहना है .... उस का अभ्यास वैराग्य के साथ साथ करें|
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हमारे चित्त में तमोगुण की प्रबलता होने पर निद्रा, आलस्य, निरुत्साह, प्रमाद आदि मूढ़ अवस्था के दोष उत्पन्न हो जाते हैं|
रजोगुण की प्रबलता होने पर चित्त विक्षिप्त अर्थात् चञ्चल हो जाता है|
इन दोनों प्रकार की बाधक वृत्तियों के प्रशमन के लिये अभ्यास तथा वैराग्य सर्वोत्तम साधन हैं| अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है| वैराग्य से चित्त का बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है, व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है|
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आप सभी को सादर सप्रेम नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जुलाई २०१८
चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च (चित्तरूपी नदी दो दिशाओं में प्रवाहित होती है, कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है)|
कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति (कैवल्य की ओर ले जाने वाली विवेकयुक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है)|
संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति (संसार की ओर ले जानेवाली अविवेक से युक्त वह पाप के लिए बहती है (अवनति की ओर ले जाती है)।
सर्वार्थसिद्धये सर्वभूतानाम् आत्मनश्च सुखावहम् आचरणं कुर्यात् (सकल प्रयोजनों की सिद्धि के लिए समस्त प्राणियों के लिए तथा अपने लिए जो सुखदायक आचरण है, उसे करना चाहिए)|
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हमारा चित्त "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी की तरह है| हमें किस और बहना है .... उस का अभ्यास वैराग्य के साथ साथ करें|
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हमारे चित्त में तमोगुण की प्रबलता होने पर निद्रा, आलस्य, निरुत्साह, प्रमाद आदि मूढ़ अवस्था के दोष उत्पन्न हो जाते हैं|
रजोगुण की प्रबलता होने पर चित्त विक्षिप्त अर्थात् चञ्चल हो जाता है|
इन दोनों प्रकार की बाधक वृत्तियों के प्रशमन के लिये अभ्यास तथा वैराग्य सर्वोत्तम साधन हैं| अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है| वैराग्य से चित्त का बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है, व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है|
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आप सभी को सादर सप्रेम नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जुलाई २०१८