Wednesday, 18 July 2018

"अभ्यास" और "वैराग्य" का महत्त्व :---

"अभ्यास" और "वैराग्य" का महत्त्व :---
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अभ्यास और वैराग्य की उपेक्षा न करें, अन्यथा यह जीवन यों ही व्यर्थ में बीत जाएगा| यह मैं अपने निज अनुभव से कह रहा हूँ| प्रमाद और दीर्घसूत्रता हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं जिनके आगे हम असहाय हो जाते हैं| महिषासुर हमारे अंतर में प्रमाद और दीर्घसूत्रता के रूप में अभी भी जीवित है, बाकी अन्य सारे शत्रु (राग-द्वेष रूपी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य) इसके पीछे पीछे चलते हैं| यह प्रमाद रूपी महिषासुर ही हमारी मृत्यु है| निरंतर प्रभु से प्रेम और उनके प्रेमरूप पर अनवरत ध्यान के अभ्यास और विषयों से वैराग्य द्वारा ही हम इन शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं|
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मैंने अपना सारा जीवन कामनाओं की पूर्ती के लिए उनके पीछे भाग भाग कर नष्ट किया है| इससे मुझे कुछ भी नहीं मिला| मैं नहीं चाहता कि और भी कोई अपना जीवन इस तरह नष्ट करे| हो सकता है कि यह मेरा प्रारब्ध ही था|
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भगवान गीता में कहते हैं .....
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"
अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है|
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यहाँ अभ्यास का अर्थ है .... अपनी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति| वैराग्य का अर्थ है दृष्ट व अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन और उन से विरक्ति|
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योगदर्शन में भी सूत्र है ..."अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः||१:१२||
इसके व्यास भाष्य में कहा गया है ....
"चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च| या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा| संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा| तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः||"
अर्थात् .....
चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च (चित्तरूपी नदी दो दिशाओं में प्रवाहित होती है, कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है)|
कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति (कैवल्य की ओर ले जाने वाली विवेकयुक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है)|
संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति (संसार की ओर ले जानेवाली अविवेक से युक्त वह पाप के लिए बहती है (अवनति की ओर ले जाती है)।
सर्वार्थसिद्धये सर्वभूतानाम् आत्मनश्च सुखावहम् आचरणं कुर्यात् (सकल प्रयोजनों की सिद्धि के लिए समस्त प्राणियों के लिए तथा अपने लिए जो सुखदायक आचरण है, उसे करना चाहिए)|
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हमारा चित्त "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी की तरह है| हमें किस और बहना है .... उस का अभ्यास वैराग्य के साथ साथ करें|
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हमारे चित्त में तमोगुण की प्रबलता होने पर निद्रा, आलस्य, निरुत्साह, प्रमाद आदि मूढ़ अवस्था के दोष उत्पन्न हो जाते हैं|
रजोगुण की प्रबलता होने पर चित्त विक्षिप्त अर्थात् चञ्चल हो जाता है|
इन दोनों प्रकार की बाधक वृत्तियों के प्रशमन के लिये अभ्यास तथा वैराग्य सर्वोत्तम साधन हैं| अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है| वैराग्य से चित्त का बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है, व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है|
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आप सभी को सादर सप्रेम नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जुलाई २०१८

नित्यमुक्त को कौन जाने की आज्ञा दे ? ....

हमें अपने अच्युत अपरिछिन्न भाव की सिद्धि और अहम् व इदम् के भेद का ज्ञान हो.
हमारे बंधन स्वतंत्र हैं, परतंत्र नहीं.
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ
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अंततः साधकत्व और मुमुक्षुत्व भी एक भ्रम ही हैं क्योंकि स्वयं से पृथक कोई सत्ता है ही नहीं. 
कोई बद्धता भी नहीं है.
ॐ ॐ ॐ
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परमशिव स्वेच्छा से अविद्या का मजा चखने स्वतंत्र बंधनों में आये हैं,
वे परतंत्र नहीं है| 
नित्यमुक्त को जाने की आज्ञा कौन दे?
ॐ ॐ ॐ
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गुरुरूप कूटस्थ परब्रह्म की कृपा से "इदम्" मिट जाता है.
वे परब्रह्म ही "अहम्" बन जाते हैं.
अजपाजप सोSहं व अनाहत नादश्रवण साधन हैं.

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सभी मुमुक्षुओं का स्वागत है जो इस मृगतृष्णा रूपी भवसागर की निद्रा को त्याग कर परब्रह्म परमशिव परमात्मा में जागृत होना चाहते हैं.

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यह सच्चिदानंद परमात्मा की करुणा, कृपा और अनुग्रह है कि हमें उनकी याद आ रही है, और हमें उनसे परमप्रेम हो गया है. 
ॐ ॐ ॐ

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जो कभी साहस ही नहीं जुटा पाये ! .....

जो कभी साहस ही नहीं जुटा पाये ! .....
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आध्यात्मिक यात्रा उन साहसी वीर पथिकों के लिए है जो अपना सब कुछ दांव पर लगा सकते हैं| लाभ-हानि की गणना करने वाले और कर्तव्य-अकर्तव्य की ऊहापोह में खोये रहने वाले कापुरुष इस मार्ग पर नहीं चल सकते| यह उन वीरों का मार्ग है जो अपनी इन्द्रियों पर विजय पा सकते हैं, और अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक परिस्थितियों से कोई समझौता नहीं करते|
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जो नहीं कर पाए उन्हें भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है| अगले जन्मों में उन्हें फिर अवसर मिलेगा| मैं ऐसे बहुत लोगों को जानता हूँ जो बहुत भले सज्जन हैं, उनमें भगवान को पाने की अभीप्सा भी है, पर वे कभी साहस नहीं जुटा पाए| घर-परिवार के लोगों की नकारात्मक सोच, गलत माँ-बाप के यहाँ जन्म, गलत पारिवारिक संस्कार और गलत वातावरण ... उन्हें कोई साधन-भजन नहीं करने देता| घर-परिवार के मोह के कारण ऐसे जिज्ञासु बहुत अधिक दुखी रहते हैं|
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इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में निश्चित ही उन्हें आध्यात्मिक प्रगति का अवसर मिलेगा| ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
१६ जुलाई २०१८

गुरुकृपा फलीभूत हो .....

गुरुकृपा फलीभूत हो .....
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हे कूटस्थ, सर्वव्यापी, सच्चिदानन्दमय, गुरु महाराज, जो कुछ भी है वह आप ही हैं| न तो मैं कुछ हूँ, और न ही मेरा कोई पृथक अस्तित्व है| मैं स्वयं को यह शरीर मानता रहा यही मेरा अहंकार और सब दुःखों का कारण था| इस शरीर के सुख के लिए ही मैंने आपके दिए हुए पता नहीं कितने जन्म व्यर्थ में गँवा दिए| ये शरीर तो आपने भजन-साधन के लिए दिये थे पर अज्ञानतावश मैं जन्म-जन्मान्तरों तक मैं इन्हीं का दास बना रहा| अब यह समस्त अंतःकरण आपको समर्पित है| मुझे अपने साथ एक करो, अपनी पूर्णता प्रदान करो, स्वयं को मुझमें व्यक्त करो, कहीं कोई भेद न हो, व किसी भी कामना, अपेक्षा और आकांक्षा का जन्म ही न हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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गीता में भगवान कहते हैं .....
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः| युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः||६:८||
यहाँ भगवान हमें ज्ञान-विज्ञान से तृप्त, कूटस्थ, और जितेन्द्रिय होकर एक ऐसी अवस्था (परमहंस) में होने का आदेश दे रहे हैं जहाँ चैतन्य में मिट्टी और सोना एक सा (ब्रह्ममय) ही लगे|
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शास्त्रोक्त पदार्थों को समझने का नाम ज्ञान है, और समझे हुए भावों को अपने अंतःकरण में प्रत्यक्ष अनुभव करना विज्ञान है| ऐसे ज्ञान और विज्ञान से तृप्त होने पर कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता| अब तो कुछ जानना नहीं बल्कि उसमें समाहित ही होना (ब्रह्ममय) है| यह भाव, इसकी प्रेरणा व इसमें स्थिति .... गुरु की कृपा और आशीर्वाद है|
ऐसे परमेष्टि गुरु को नमन! ॐ ॐ ॐ !!
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भगवान आगे कहते हैं ....
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु | साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||६:९||
यहाँ भगवान जो बता रहे हैं वह योगारूढ़ होने की अवस्था है जो मुझे अभी तक प्राप्त नहीं हुई है, पर गुरुकृपा से एक न एक दिन निश्चित रूप से मेरे जीवन में भी फलीभूत होगी| यहाँ भगवान .... सुहृत (प्रत्युपकार ना चाहकर उपकार करने वाला), मित्र, प्रेमी, शत्रु, अप्रिय, बन्धु , कुटुम्बी, श्रेष्ठ और पापियों में भी समभाव रखने की बात समझा रहे हैं|
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भगवान का स्वरुप क्या है ? .....
इस विषय को समझने के लिए "पुरुष सूक्त" और गीता के ग्यारहवें अध्याय "विश्वरूप दर्शन योग" का स्वाध्याय, मनन और ध्यान करना होगा|
पुरुष सूक्त की प्रारम्भिक तीन ऋचाएं कहती है .....
"ॐ सहस्त्रशीर्षापुरुष:सहस्त्राक्ष:सहस्त्रपात्॥ सभूमिगूँसर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठ्ठद्दशांगुलम्॥१॥ पुरुषऽएवेदगूँसर्वंयद्भूतंयच्चभाव्यम्॥ उतामृतत्वस्येशानोयदन्नेनातिरोहति॥२॥ एतावानस्यमहिमातोज्यायाँश्चपूरुष:॥ पादोस्यविश्वाभूतानित्रिपादस्यामृतन्दिवि॥३॥"
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ॐ नमो स्त्वनंताय सहस्त्रमूर्तये, सहस्त्रपादा क्षिशिरोरूहावहे | सहस्त्र नाम्ने पुरूषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युगधारिणे नमः ||
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जुलाई २०१८

मेरी दृष्टि में गुरु, गुरुदक्षिणा, गुरुस्थान और गुरुसेवा क्या है ? .....

मेरी दृष्टि में गुरु, गुरुदक्षिणा, गुरुस्थान और गुरुसेवा क्या है ? .....
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मेरी दृष्टि में कूटस्थ ही गुरु है, कूटस्थ ही गुरुस्थान है, और कूटस्थ पर निरंतर ध्यान ही गुरुसेवा है| कूटस्थ गुरु-रूप ब्रह्म सब गुणों से परे हैं, वह असीम हैं, उसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता| वह परमात्मा की अनंतता, पूर्णता और आनंद है| असली गुरुदक्षिणा है ..... कूटस्थ में पूर्ण समर्पण, जिसकी विधी भी स्वयं गुरु ही बताते हैं|
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यह मनुष्य देह तो लोकयात्रा के लिए परमात्मा से मिला हुआ एक वाहन रूपी उपहार है| हम यह वाहन नहीं हैं, गुरु भी यह वाहन नहीं हैं| पर लोकाचार के लिए लोकधर्म निभाना भी आवश्यक है| लोकधर्म निभाने के लिए गुरु यदि देह में हैं तो प्रतीक के रूप में उनकी देह को, यदि नहीं हैं तो उनकी परम्परा को, आवश्यक धन, अन्न-वस्त्र और पत्र-पुष्प आदि अर्पित करना हमारा दायित्व बनता है| गुरु देह में हैं तो यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उन्हें किसी प्रकार का कोई कष्ट तो नहीं है| तब उनकी देह की भी सेवा होनी चाहिए| गुरु के उपदेशों को चरितार्थ करना गुरुसेवा है| गुरु कभी स्वयं को भौतिक देह नहीं मानते| जो स्वयं को भौतिक देह मानते हैं वे गुरु नहीं हो सकते| उनकी चेतना कूटस्थ ब्रह्म के साथ एक होती है| उनके साथ हमारा सम्बन्ध शाश्वत है और वे शिष्य को भी स्वयं के साथ ब्रह्ममय करने के लिए प्रयासरत रहते हैं|
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हमारी सूक्ष्म देह में हमारे मष्तिष्क के शीर्ष पर जो सहस्त्रार है, जहाँ सहस्त्र पंखुड़ियों वाला कमल पुष्प है, वह गुरु के चरण कमल रूपी हमारी गुरु-सत्ता है| वह गुरु का स्थान है| सहस्त्रार में स्थिति ही गुरुचरणों में आश्रय है| उस सहस्त्र दल कमल पर हमें निरंतर परमशिव परात्पर परमेष्टि गुरु का ध्यान करना चाहिए| यह सबसे बड़ी गुरुसेवा है| सहस्त्रार से परे की अनंतता में वे परमशिव हैं| वह अनंतता ही वास्तव में हमारा स्वरुप है| ध्यान करते करते हम स्वयं भी अनंत बन जाते हैं|
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गुरु-चरणों में मस्तक एक बार झुक गया तो वह कभी उठना नहीं चाहिए| वह सदा झुका ही रहे| यही शीश का दान है| इससे हमारे चैतन्य पर गुरु का अधिकार हो जाता है| तब जो कुछ भी हम करेंगे उसमें गुरु हमारे साथ सदैव रहेंगे| तब कर्ता और भोक्ता भी वे ही बन जाते हैं| यही है गुरु चरणों में सम्पूर्ण समर्पण| तब हमारे अच्छे-बुरे सब कर्म भी गुरु चरणों में अर्पित हो जाते हैं| हम पर कोई संचित कर्म अवशिष्ट नहीं रहता| तब गुरु ही हमारी आध्यात्मिक साधना के कर्ता और भोक्ता हो जाते हैं|
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गुरु रूप परब्रह्म को कर्ता बनाओ| साधना, साध्य और साधक; दृष्टा, दृश्य और दृष्टी; व उपासना, उपासक और उपास्य .... सब कुछ हमारे गुरु महाराज ही हैं| हमारी उपस्थिति तो वैसे ही है जैसे यज्ञ में यजमान की होती है| गुरुकृपा ही हमें समभाव में अधिष्ठित करती है| गुरुकृपा हि केवलं||
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जुलाई २०१८

पिंजरे का पंछी और बैलगाड़ी का बैल .....

पिंजरे का पंछी और बैलगाड़ी का बैल .....
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पिंजरे में बँधे पक्षी, बैलगाडी में जुड़े बैल, और हमारे में कोई अंतर नहीं है| हम एक बैल की तरह हैं जो बैलगाड़ी में जुड़ा हुआ है और जिनको हम प्रियजन कहते हैं वे डंडे से मार मार कर हमें हाँक रहे हैं| हम उनकी मार खाकर और उनकी इच्छानुसार चलकर बहुत प्रसन्न हैं और इसे अपना कर्त्तव्य मान रहे हैं|
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हमारा जन्म ही विवशता में इसी कारण होता है कि हम अपनी अतृप्त कामनाओं के दास हैं| हम जन्म ही दास के रूप में लेते है और दास के रूप में ही मरते हैं| कामनाएँ सबसे विकट अति सूक्ष्म अदृष्य बंधन हैं| कामनाओं में बंध कर हम स्वतः ही गुलाम बन जाते हैं, इसके लिए किसी भी प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती है| जब कि स्वतंत्रता के लिए हमें अत्यंत दीर्घकालीन प्रयास करने पड़ते हैं| जो निरंतर बिना थके प्रयासरत रहते हैं, वे ही स्वतंत्र हो पाते हैं|
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स्वतंत्रता अपना मूल्य माँगती हैं, वह निःशुल्क नहीं होती| जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान है उसकी कीमत चुकानी पडती है| बंधन में बंधना कोई दुर्भाग्य नहीं है, दुर्भाग्य है ..... मुक्त न होने का प्रयास करना| गुलाम होकर जन्म लेना कोई दुर्भाग्य नहीं है, पर गुलामी में मरना वास्तव में दुर्भाग्य है|
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जीवन में तब तक कोई आनंद या संतुष्टि नहीं मिल सकती जब तक हम अपनी आतंरिक स्वतंत्रता को प्राप्त ना कर लें| कामनाओं में बंधे होना ही वास्तविक परतंत्रता है| कामनाओं में बंधे मनुष्य, पिंजरे में बंधे पक्षी और बैलगाड़ी में जुड़े बैल में कोई अंतर नहीं है| पराधीन मनुष्य कभी मुक्ति का आनंद नहीं ले सकता| वास्तविक स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में ही है, अन्यत्र कहीं नहीं|
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किसी दूसरे को दोष देने का कोई लाभ नहीं है| अपने दुःखों के जिम्मेदार हम स्वयं हैं .....
"सुखस्य दु:खस्य न कोऽपि दाता, परो ददाति इति कुबुद्धिरेषा |
अहं करोमि इति वृथाभिमान:, स्वकर्मसूत्रै: ग्रथितोऽहि लोक: || --- आध्यात्म रामायण
कोई किसी को सुख या दुःख नहीं दे सकता, सिर्फ एक कुबुद्धि ही यह सोचता है कि दूसरे मुझे दुःख या सुख दे रहे हैं| कर्ताभाव भी एक व्यर्थ का अभिमान है, इस लोक में सब अपने कर्मफलों से बँधे हुए हैं|
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ॐ गुरुभ्यो नमः| सब पर परमात्मा की परम कृपा हो! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जुलाई २०१८

हिन्दुओ, आत्मग्लानि कराने वाले लेख न लिखें .....

आजकल अपने धर्म और आस्था के ऊपर आत्म-ग्लानि कराने वाले लेख और विडिओ बहुत अधिक आ रहे हैं| भूतकाल पर पश्चाताप करने का अब कोई लाभ नहीं है| एकमात्र कार्य जो हम कर सकते हैं वे ये हैं कि .........
(१) अपने धर्म पर हम दृढ़ रहें, अपने धर्म का पालन स्वयं करें और अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा दें या दिलाएँ| धर्म का प्रचार करें| विधर्मियों का शुद्धिकरण कर के उन्हें बापस अपने पूर्वजों के धर्म में लायें|
(२) हिन्दू धर्म प्रचार के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने का प्रयास करें, जैसे .... भारत के संविधान की धारा ३०(१) जिसके अंतर्गत हिन्दू अपने बच्चों को अपने विद्यालयों में धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, पर मुसलमान और ईसाई अपने धर्म की शिक्षा दे सकते हैं| विद्यालयों में कुरान और बाईबिल पढाई जा सकती है पर गीता नहीं| मदरसों और कोन्वेंट्स को मान्यता प्राप्त है पर गुरुकुलों को नहीं| ऐसी हिन्दू विरोधी धाराओं को हटवाने का प्रयास करें|
(३) हिन्दू मंदिरों पर से सरकारी नियंत्रण समाप्त करवा कर हिन्दू धर्म गुरुओं की संस्थाओं का नियंत्रण मंदिरों पर हो, इसका प्रयास करें| मंदिरों का उद्देश्य धर्म का प्रचार है, न कि सरकारी लूट को प्रोत्साहन|
(४) धर्म विरोधी अधर्मी प्रचार तंत्र का विरोध करें| जैसे फिल्मों में एक हिन्दू धर्मगुरु को धूर्त, ठग और चोर दिखाते हैं, पर एक मौलवी और पादरी को सज्जन और महात्मा| ऐसे ही सारे निजी टीवी समाचार चैनलों और अंग्रेजी अखवारों के वास्तविक मालिक विदेशी चर्च हैं, जो हिन्दू विरोधी हैं| उनका समर्थन कभी भूल से भी न करें, न उन से प्रभावित हों| हिन्दू विरोधी प्रचार तंत्र बहुत अधिक शक्तिशाली है|
(५) उन सारे सेकुलर, वामपंथी और धर्मद्रोही राजनेताओं का सक्रीय विरोध और प्रतिकार करें जो हिन्दू द्रोही हैं|
(६) भारत में समान नागरिक संहिता लागू कराने का जी-जान से प्रयास करें| एक देश में एक ही क़ानून हो जो सब के लिए लागू हो| हिन्दू विरोधी कानूनों को हटवाने का पूरा प्रयास करें| वोट उसी को दें जो हिन्दूद्रोही न हो|
ऐसा कर के ही हम अपने देश और धर्म का कल्याण कर सकते हैं, आत्म-ग्लानि और हीनभावना से नहीं| भगवान धर्म की रक्षा करें पर उससे पूर्व हम स्वयं भी अपने धर्म की रक्षा करें| दूसरों की निंदा न कर के, सकारात्मक कार्य करें| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन!
कृपा शंकर
१५ जुलाई २०१८

वैदिक राष्ट्रीय प्रार्थना .....

वैदिक राष्ट्रीय प्रार्थना .....
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ओम् आ ब्रम्हन्ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतां
आस्मिन्राष्ट्रे राजन्य इषव्य
शूरो महारथो जायतां
दोग्ध्री धेनुर्वोढाअनंवानाशुः सप्तिः
पुरंधिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः
सभेयो युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां|
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलिन्यो न औषधयः पच्यन्तां
योगक्षेमो नः कल्पताम ||
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(इस राष्ट्र में ब्रह्मतेजयुक्त ब्राह्मण उत्पन्न हों| धनुर्धर, शूर और बाण आदि का उपयोग करने वाले कुशल क्षत्रिय पैदा होयें| अधिक दूध देने वाली गायें होवें| अधिक बोझ ढो सकें ऐसे बैल होवें| ऐसे घोड़े होवें जिनकी गति देखकर पवन भी शर्मा जावे| राष्ट्र को धारण करने वाली बुद्धिमान तथा रूपशील स्त्रियां पैदा होवें, विजय संपन्न करने वाले महारथी होवें|
समय समय पर योग्य वारिस हो, वनस्पति वृक्ष और उत्तम फल हों| हमारा योगक्षेम सुखमय बने|)

तैत्तिरीय उपनिषद् में नित्य पठनीय शान्ति पाठ और नित्य मननीय उपदेश .....

तैत्तिरीय उपनिषद् में नित्य पठनीय शान्ति पाठ और नित्य मननीय उपदेश .....
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शान्तिपाठ :--
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं बह्मासि । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम । अवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।
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उपदेश :--
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र १)
अर्थ:- वेद के शिक्षण के पश्चात् आचार्य आश्रमस्थ शिष्यों को अनुशासन सिखाता है । सत्य बोलो । धर्मसम्मत कर्म करो । स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो । आचार्य को जो अभीष्ट हो वह धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परंपरा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति कर पितृऋण से मुक्त होओ) । सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख न मोड़ो । धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए । अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना न की जाए । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए । स्वाध्याय तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे ।
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देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ।।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र २)
अर्थ:- देवकार्य तथा पितृकार्य से प्रमाद नहीं किया जाना चाहिए । (कदाचित् इस कथन का आशय देवों की उपासना और माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा तथा कर्तव्य से है ।) माता को देव तुल्य मानने वाला बनो (मातृदेव = माता है देवता तुल्य जिसके लिए) । पिता को देव तुल्य मानने वाला बनो । आचार्य को देव तुल्य मानने वाला बनो । अतिथि को देव तुल्य मानने वाला बनो । अर्थात् इन सभी के प्रति देवता के समान श्रद्धा, सम्मान और सेवाभाव का आचरण करे । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हीं का सेवन किया जाना चाहिए, अन्य का नहीं । हमारे जो-जो कर्म अच्छे आचरण के द्योतक हों केवल उन्हीं की उपासना की जानी चाहिए; उन्हीं को संपन्न किया जाना चाहिए । (अवद्य = जिसका कथन न किया जा सके, जो गर्हित हो, प्रशंसा योग्य न हो ।)संकेत है कि गुरुजनों का आचरण सदैव अनुकरणीय हो ऐसा नहीं है । अपने विवेक के द्वारा व्यक्ति क्या करणीय है और क्या नहीं इसका निर्णय करे और तदनुसार व्यवहार करे ।
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आनंद "प्यास" में है, "तृप्ति" में नहीं .....

आनंद "प्यास" में है, "तृप्ति" में नहीं .....
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जो आनंद "विरह" में है वह "मिलन" में नहीं हो सकता| परमात्मा नहीं मिलें तो ही अच्छा है| बस उन्हें पाने की यह "अभीप्सा" यानि "अतृप्त प्यास" और "तड़प" बनी रहे| ह्रदय में एक "प्रचंड अग्नि" जल रही है, एक बड़ी "प्यास" और "तड़प" है परमात्मा को पाने की| उसका अपना ही आनंद है| यदि परमात्मा मिल गए तो यह "प्यास" बुझ जायेगी, अतः परमात्मा नहीं चाहिए, बस उनको पाने की "अभीप्सा" रूपी "प्रचंड अग्नि" जलती रहे| जो आनंद इस "द्वैत" में है, वह "अद्वैत" में नहीं हो सकता|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जुलाई २०१८