Wednesday, 18 July 2018

गुरुकृपा फलीभूत हो .....

गुरुकृपा फलीभूत हो .....
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हे कूटस्थ, सर्वव्यापी, सच्चिदानन्दमय, गुरु महाराज, जो कुछ भी है वह आप ही हैं| न तो मैं कुछ हूँ, और न ही मेरा कोई पृथक अस्तित्व है| मैं स्वयं को यह शरीर मानता रहा यही मेरा अहंकार और सब दुःखों का कारण था| इस शरीर के सुख के लिए ही मैंने आपके दिए हुए पता नहीं कितने जन्म व्यर्थ में गँवा दिए| ये शरीर तो आपने भजन-साधन के लिए दिये थे पर अज्ञानतावश मैं जन्म-जन्मान्तरों तक मैं इन्हीं का दास बना रहा| अब यह समस्त अंतःकरण आपको समर्पित है| मुझे अपने साथ एक करो, अपनी पूर्णता प्रदान करो, स्वयं को मुझमें व्यक्त करो, कहीं कोई भेद न हो, व किसी भी कामना, अपेक्षा और आकांक्षा का जन्म ही न हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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गीता में भगवान कहते हैं .....
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः| युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः||६:८||
यहाँ भगवान हमें ज्ञान-विज्ञान से तृप्त, कूटस्थ, और जितेन्द्रिय होकर एक ऐसी अवस्था (परमहंस) में होने का आदेश दे रहे हैं जहाँ चैतन्य में मिट्टी और सोना एक सा (ब्रह्ममय) ही लगे|
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शास्त्रोक्त पदार्थों को समझने का नाम ज्ञान है, और समझे हुए भावों को अपने अंतःकरण में प्रत्यक्ष अनुभव करना विज्ञान है| ऐसे ज्ञान और विज्ञान से तृप्त होने पर कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता| अब तो कुछ जानना नहीं बल्कि उसमें समाहित ही होना (ब्रह्ममय) है| यह भाव, इसकी प्रेरणा व इसमें स्थिति .... गुरु की कृपा और आशीर्वाद है|
ऐसे परमेष्टि गुरु को नमन! ॐ ॐ ॐ !!
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भगवान आगे कहते हैं ....
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु | साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||६:९||
यहाँ भगवान जो बता रहे हैं वह योगारूढ़ होने की अवस्था है जो मुझे अभी तक प्राप्त नहीं हुई है, पर गुरुकृपा से एक न एक दिन निश्चित रूप से मेरे जीवन में भी फलीभूत होगी| यहाँ भगवान .... सुहृत (प्रत्युपकार ना चाहकर उपकार करने वाला), मित्र, प्रेमी, शत्रु, अप्रिय, बन्धु , कुटुम्बी, श्रेष्ठ और पापियों में भी समभाव रखने की बात समझा रहे हैं|
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भगवान का स्वरुप क्या है ? .....
इस विषय को समझने के लिए "पुरुष सूक्त" और गीता के ग्यारहवें अध्याय "विश्वरूप दर्शन योग" का स्वाध्याय, मनन और ध्यान करना होगा|
पुरुष सूक्त की प्रारम्भिक तीन ऋचाएं कहती है .....
"ॐ सहस्त्रशीर्षापुरुष:सहस्त्राक्ष:सहस्त्रपात्॥ सभूमिगूँसर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठ्ठद्दशांगुलम्॥१॥ पुरुषऽएवेदगूँसर्वंयद्भूतंयच्चभाव्यम्॥ उतामृतत्वस्येशानोयदन्नेनातिरोहति॥२॥ एतावानस्यमहिमातोज्यायाँश्चपूरुष:॥ पादोस्यविश्वाभूतानित्रिपादस्यामृतन्दिवि॥३॥"
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ॐ नमो स्त्वनंताय सहस्त्रमूर्तये, सहस्त्रपादा क्षिशिरोरूहावहे | सहस्त्र नाम्ने पुरूषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युगधारिणे नमः ||
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जुलाई २०१८

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