ईश्वर से कुछ मांगना क्या उनका अपमान नहीं है? हम तो यहाँ उनका दिया हुआ सामान उनको बापस लौटाना चाहते हैं। उनका दिया हुआ सबसे बड़ा सामान है -- हमारा अन्तःकरण। यदि वे हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार) स्वीकार कर लें तो उसी क्षण हम उन्हें उपलब्ध हो जाते हैं। यह समर्पण का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ है। बाकी तो व्यापार है कि हम तुम्हारी यह साधना करेंगे, वह साधना करेंगे, और तुम हमें वह सामान दोगे।
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वे हमारे हृदय में बिराजमान हैं, क्या उन्हें पता नहीं है कि हमें क्या चाहिये? उन्हें सब पता है। वे बिना किसी शर्त के हमारा सिर्फ प्यार मांगते हैं, जो हम उन्हें देना नहीं चाहते। इस समय यह संसार अपने लोभ, लालच और अहंकार रूपी तमोगुण से चल रहा है। यहाँ तो स्वयं को गोपनीय रखो और चुपचाप उनसे प्रेम करो। अपने हृदय की बात कहना लोगों से दुश्मनी लेना है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०२४
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